Saturday, December 16, 2017

जीवनानंद दास की बांग्ला से हिंदी में अनुदित कविताएँ 

अनुवादक : सुशील कुमार झा एवं  समीर वरण नंदी 






परिचय 
जीवनानंद दास
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 जन्म : - 17 फ़रवरी 1899
 निधन :- 22 अक्तूबर 1954
जन्म स्थान:- बारीसाल, पश्चिम बंगाल, भारत
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
झरा पालोक (1927), धूसर पाण्डुलिपि (1936), बनलता सेन (1942), महापृथ्वी (1944), सातटि तारारा तिमिर (1948), श्रेष्ठ कविता (1954), रूपसी बांग्ला (1957), बेला अबेला कालबेला (1961)


एक...

कविता :- बनलता सेन 
अनुवादक :-सुशील कुमार झा 
कवि :- जीवनानंद दास

हजारों बर्ष तक भटकता रहा इस धरा के पदचिन्हों पर,
नीरव अन्धकार में ही, सिंहल समुद्र हो या मलय सागर;
वहाँ भी, जहाँ था अशोक और बिम्बसार का धूमिल संसार;
और भी दूर विदर्भ में भी था, छाया था जहाँ धुंधला अन्धकार;
थका हारा क्लांत मैं; और चारों ओर था बिखरा जीवन;
हो मानो समुद्र का फेन;
दो घड़ी की भी शान्ति जिस ने दी, वह थी नाटोर की बनलता सेन!

श्रावस्ती के विश्वश्रुत शिल्प सा उसका मुख,
विदिशा की काली रात के अन्धकार से घने उसके केश;
और भी दूर समुद्र में, जैसे टूटी नावों में दिशाएँ खो चुका नाविक,
अचानक देखे दालचीनी के द्वीपों के बीच हरी पत्तियों का कोई देश;
उसी अन्धकार में देखा था; पूछा था ‘कहाँ थे तुम’ होकर बेचैन,
भटकों को ठौर दिखाती नजरों से तकती नाटोर की बनलता सेन!

दिन के बाद धीरे धीरे ओस की बूँद सी लरजती आती शाम;
डैनों से पोंछती चील गंध धूप की; बुझते हुए सभी रंग और
थमती हुई आवाज़ें;रहती केवल कोरी पाण्डुलिपि सी रात,
और उसमें कुछ भूली-बिसरी कहानियाँ बुनते झिलमिलाते जुगनु;
लौट जातीं सब चिड़ियाँ - सभी नदियाँ - खत्म जीवन का सब लेन देन;
बच जाता है सिर्फ अन्धकार, और सामने बैठी बनलता सेन!

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कविता :-बनलता सेन / 
अनुवाद :-समीर वरण नंदी / 
कवि:-जीवनानंद दास

 जीवनानंद दास » समीर वरण नंदी» बनलता सेन » Script
हज़ारों साल से राह चल रहा हूँ पृथ्वी के पथ पर
सिंहल के समुद्र से रात के अँधेरे में मलय सागर तक
फिरा बहुत मैं बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
रहा मैं वहाँ बहुत दूर अँधेरे विदर्भ नगर में
मैं एक क्लान्त प्राण, जिसे घेरे है चारों ओर जीवन सागर का फेन
मुझे दो पल शान्ति जिसने दी वह-नाटोर की बनलता सेन।

केश उसके जाने कब से काली, विदिश की रात
मुख उसका श्रावस्ती का कारु शिल्प-
दूर सागर में टूटी पतवार लिए भटकता नाविक
जैसे देखता है दारचीनी द्वीप के भीतर हरे घास का देश
वैसे ही उसे देखा अन्धकार में, पूछ उठी, ”कहाँ रहे इतने दिन?“
चिड़ियों के नीड़-सी आँख उठाये नाटोर की बनलता सेन।

समस्त दिन शेष होते शिशिर की तरह निःशब्द
आ जाती है संध्या, अपने डैने पर धूप की गन्ध पोंछ लेती है चील
पृथ्वी के सारे रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती आयोजन
तब क़िस्सों में झिलमिलाते हैं जुगनुओं के रंग
पक्षी फिरते घर-सर्वस्व नदी धार-निपटाकर जीवन भर की लेन-देन
रह जाती अँधेरे में मुखाभिमुख सिर्फ़ बनलता सेन।




दो 

कविता :- बिल्ली 
अनुवाद:-  समीर वरण नंदी 
कवि:- जीवनानंद दास

दिन भर, घूम-फिर कर केवल मेरा ही
एक बिल्ली से सामना होता रहता है,
पेड़ की छाँह में, धूप के घेरे में,
बादामी पत्तों के ढेर के पास,
कहीं से मछली के कुछ काँटे लिए
सफे़दी माटी के एक कंकाल-सी
मन मारे मधुमक्खी की तरह मग्न बैठी है,
फिर, कुछ देर बाद गुलमोहर की जड़ पर नख खरोंचती है।

दिन भर सूरज के पीछे-पीछे वह लगी रही
कभी दिख गई
कभी छिप गई।

उसे मैंने हेमन्त की शाम में
जाफ़रानी सूरज की नरम देह पर
सफे़द पंजों से चुमकार कर
खेलते देखा।

फिर अन्धकार को छोटी-छोटी गेंदों की तरह
थपिया-थपिया कर
उसने पृथ्वी के भीतर उछाल दिया।
*


तीन 
कविता :- बीस साल बाद  
अनुवादक:- सुशील कुमार झा 
कवि :-जीवनानंद दास


बीस साल बाद एक बार फिर अगर मिल जाओ तुम?

कम नहीं होते बीस साल,
धुंधली पड़ जाती हैं यादें भी किसी भूली बिसरी सदी की तरह,
और ऐसे में मैदान के पार अगर तुम अचानक ही दिख जाओ?

कार्तिक की एक अलसाई शाम
दूर कहीं लंबी घासों में गुम होती
बलखाती सुरमई नदी के किनारे
पक्षी लौट रहें हों जब घोसलों को
ओस की बूँदों से घास हो रहें हों नर्म
कोई ना हो दूर धान के खेतों में
स्तब्धता सी पसरी हो चारों ओर
चिड़ियों के घोसलों से गिर रहे हों तिनके

और ऐसे में
एक बार
फिर से अगर तुमसे मुलाकात हो जाये?

और दूर मनिया के घर शिशिर की शीत सी झर रही हो रात
अँधेरी गलियों में खुली खिड़कियों से झाँक रही हो कांपते दीये की लौ

हो सकता है
चाँद निकला हो आधी रात को
पेड़ों की झुरमुट के पीछे से
जामुन, कटहल या आम के पत्तों से मुंह छुपाये
या बांस की लहराती टहनियों के बीच लुकाछिपी करते हुए

दूर मैदान में चक्कर काट उतर रहा हो कोई एक उल्लू
बबूलों के काँटों या फिर बरगद के जटाओं से बचता हुआ,

झुके पलकों सा समेट रहा हो पंखों को वही सुनहला चील,
जिसे चुरा ले गया था शिशिर पिछले साल,

कोहरे से धुंधलाती इस रात में
अगर मिल जाओ
अचानक
बीस साल बाद...

कहाँ छुपाऊँगा तुमको?




सौजन्य से साहित्य की बात वाट्स अप समूह ,कुछ चुनिन्दा प्रतिक्रियाएं 

मधु सक्सेना :  बनलता सेन ....जो भी हो ,कवि के मन के नज़दीक ही होगी तभी तो ये कविता रची गई ।

सभी कवितायें एक प्रवाह में चलते हुए अपने अलग वितान से मुखरित होती है । बिल्ली पर कविता  लिखना कठिन लगता है ..प्राश्चित कहानी ही याद आती है पर ये कविता वास्तविक दृश्य उपस्थित करती है ।

बीस साल बाद भी मिलने की अभिलाषा है कवि को ।हमे भी कई चेहरे याद आते है ,काश  कि अचानक वो सामने आ जाएं । सोच कर ही अच्छा लगता है ।
सरल सहज कविताएं ।

उपमा ऋचा :  भूगोल, इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, कला, धर्म और भाषा के आधार पर टुकड़ों में बंटी दुनिया में राहत की बात है कि यहां कुछ सेतु हमेशा क़ायम रहे हैं। जो टुकड़ों के बीच एक साझा सड़क बनाकर आवाजाही को बरक़रार रखते हैं। अनुवाद भी एक ऐसा ही पुल है। आज जीवनानंद दास की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार सुशील कुमार झा और समीर वरण नंदी के साथ-साथ द्वितीय सेतु अनीता जी को शुक्रिया कहा क्योंकि यही वह पुल थे जिनके सहारे बंगाल की रोशनाई हमारे इनबॉक्स तक आई।

  बनलता के सामने आते ही बरबस बसंतलता और फागुनलता याद हो आईं। नहीं... ये तीनों सहोदरा नहीं हैं। कम से कम अपने रचयिताओं के आधार पर तो बिलकुल भी नहीं, लेकिन जहां तक बनलता से संवाद हुआ उससे मुझे यही लगा कि जैसे कोई कहानीकार अपनी कहानी में पात्र रचता है। वैसे ही कवि ने भी एक किरदार रचा। एक ऐसा किरदार जो दिक् काल की सीमाओं से उतना ही परे है। जितना कि कल्पनाओं का सीमांत संसार... मूल भाषा में बनलता जितनी अप्रतिम रही होगी, अनुवाद प्रक्रिया में उसका राई रत्ती भी सौंदर्य धूमिल नहीं हुआ। इसके लिए निश्चय ही सुशील कुमार झा साहब साधुवाद के पात्र हैं। समीर जी ने भी जिस शिद्दत के साथ बिल्ली की चपलता को थामा। उससे गुजरते हुए यही लगा कि बीस साल बाद क्या हज़ारों साल बाद तक इन कविताओं में बसी मिट्टी की गंध यूं ही महकती रहेगी...


अपर्णा अनेकवरना "  संस्करण का कवर स्वंय सत्यजीत राय ने स्केच और डिज़ाइन किया है। स्पष्ट है बंगाल बनलता सेन का बेहद स्थानीय परंतु लगभग उतना ही व्यापक असर वाला संस्करण है गुरुदेव टैगोर की एक ग्रामीण श्यामली सुंदरी पर लिखी कविता कृष्णकली आमी तारेई बॉली।
 नाटोर भी वर्तमान बांग्लादेश में है। तो कवि के गृहनगर बॉरीशाल से अधिक दूर नहीं। 😊
मुझे दूसरी कविता बेहतरीन लगी। बिडाल बंगाल के लोक कांशेंसनस का हिस्सा रहा है। जामिनी राय की पेंटिंग हो या किस्से कहानियों का केंद्र, बिल्ली एक लोकप्रिय बिंब है।
नंदी सर का अनुवाद भी कसा हुआ है।
बहुत ही स्नेह, लगाव और ध्यान से नित्य प्रतिदिन देखा हुआ विषय है जिसे सामान्य जन भी देखते होंगे पर कवि की दृष्टि से देखना इस कविता में संभव हुआ
मुझे दूसरी कविता बेहतरीन लगी। बिडाल बंगाल के लोक कांशेंसनस का हिस्सा रहा है। जामिनी राय की पेंटिंग हो या किस्से कहानियों का केंद्र, बिल्ली एक लोकप्रिय बिंब है।


माया मृग :..बहुत अच्छी कविताओं का अच्छा अनुवाद पढ़ने का अवसर मिला।
दोनो अनुवाद बढ़िया हैं। समीर जी के अनुवाद में प्रवाह अधिक है लेकिन आखिरी पंक्तियों के अनुवाद पहले वाले में ज्यादा सहज लगा।
 बनलता सेन एक व्यक्ति से एक मिथ में बदलती नायिका हैं। व्यक्ति की सीमाओं का अतिक्रमण मिथ से ही सम्भव है। जीवनानंद दास की विराट कल्पना के यह सर्वथा अनुकूल है। बिल्ली का बिम्ब भी जीवमात्र का चित्र नहीं उकेरता, उससे आगे जाता है।
बीस साल बाद तो एक कसक है, इसे जिया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता।


ब्रज श्रीवास्तव :   जीवनानंद दास की यहां प्रस्तुत पहली कविता में महान कल्पनाएं और उपमाऐं मन को छू रही हैं हम चकित हो चलते हैं कि सौन्दर्य भास की अभिव्यक्ति इस तरह भी की जा सकती है.ऐसी कविताऐं ही कविताओं के प्रति भरोसा और प्रीति जगाती हैं. विदिशा का जिक्र देखकर सुखद एहसास हुआ.यहां की काली रात तक को उपमान के रूप में लिया गया. तो दिन के क्या कहने. कालिदास ने भी यहां की युवतियों का ज़िक्र मेघदूत में किया है.

4 comments:

  1. जीवनानंद दास की कविताएं जितने विस्तृत भावभूमि की कविताएं हैं अनुवाद भी उतना ही सहज, उतना ही प्रवाहमय है।

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  2. जीवनानंद दास की कविताएं जितने विस्तृत भावभूमि की कविताएं हैं अनुवाद भी उतना ही सहज, उतना ही प्रवाहमय है।

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