Tuesday, January 31, 2017

 बसंत पंचमी यह ऋतु अपने साथ कई परिवर्तन लेकर आती हैI कभी सुखकर दरकती धरती, तो कभी उसे रिमझिम फुहारों से भिगोकर मनाने कि चेस्टा करते देख, कभी शरद कि कुनकुनी धुप तो घने कोहरे मैं किसी उदास मन सी उलझी उलझी यह धरतीI मानो जैसे जो कुछ भी इंसान के मन में चल रहा है, यही प्रकृति में भी प्रतिबिंबित हो रहा हैI
शिशिर की विदाई और बसंत का आगमन ..जैसे सूरज ने रजाई से झाँक कर देखा स्रष्टि को और चारो और प्रकृति स्वागतातुर हो गई सूरज की बसंती रश्मियों के लिए ... ,चटक कर खिल गई हर कलि ..भ्रमर ने प्रीत गीत गुंजाये और धरती ने ओढ़ ली धानी चुनर ....सब ने एक स्वर में कहा लो आगया बसंत मेहमां बन ...मन को कर तरंगित हरषाया पलाश तो कोयल की कूक से बौराया आम ...सरसों  की आभा इठलाई पवन झकोरों से .... तो परदेसी कन्त की राह में प्रिय ने अपनी नज़र बिछाई |
बसंत पंचमी पर साहित्य शिरोमणि श्री सूर्यकांत त्रिपाटी निराला जी  का जन्मोत्सव मनाया जाता है और माँ सरस्वती का पूजन का दिवस भी| शायद ही कोई ऐसा कवि  रहा हो जिसने  अपनी कलम से बसंत पर साहित्य सृजन न किया हो |सबने अपने अपने मन से बसंत को देखा और उन भावों को शब्दों से सजाया |निराला जी  ,पद्माकर,धूमिल , त्रिलोचन केदारनाथ सिंह ,मंगलेश डबराल  और समकालीन कवियों  की रचनाओं के साथ आज रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है साहित्य की बात समूह के  रचनाकारों की भिन्न भिन्न भावों को संजोई हुई रचनाएं |
 कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
          क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है.
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में 
          पानन में पीक में पलासन पगंत है
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में 
          देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में 
          बनन में बागन में बगरयो बसंत है
निराला जी
सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,

स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
(गीत)
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी--
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-
छबि-विभावरी;

बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी--
छबि-विभावरी;

निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी--
छबि-विभावरी;

आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर
विहरी--
छबि-विभावरी;
         *निराला*
रुखी री यह डाल ,वसन वासन्ती लेगी.
देख खड़ी करती तप अपलक ,
हीरक-सी समीर माला जप .
शैल-सुता अपर्ण - अशना ,
     पल्लव -वसना बनेगी-
     वसन वासन्ती लेगी.
हार गले पहना फूलों का,
ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का,
स्नेह, सरस भर देगा उर-सर,
      स्मर हर को वरेगी .
      वसन वासन्ती लेगी.
मधु-व्रत में रत वधू मधुर फल 
देगी जग की स्वाद-तोष-दल ,
गरलामृत शिव आशुतोष-बल 
        विश्व सकल नेगी ,
       वसन वासन्ती लेगी.
      *निराला*
*हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र*
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल--आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।

तुम मध्य भाग के, महाभाग!--
तरु के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।

देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँध कर रँगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज।
  *निराला*
आज का विषय *बसंत* काव्य के लिए बहुश्रुत विषय है । जिस पर आदि काल से रीति काल और आधुनिक समय तक के कवियों ने सुंदर रचनाएं हमे दी हैं ।
आज विषय के सापेक्ष अपने समय को काव्य में बताने वाले कुछ कवियों की महत्वपूर्ण रचनाएं परंपरानुसार प्रस्तुत कर रहा हूँ । देखिएगा हर कवि बसंत को कैसे महसूस करता है और कैसे काव्य में उतारता है । बसंत ... प्रेम है , उन्माद है ,उदासी है , अकेलापन है , तुर्शी है , स्मृति है , आत्मनिरीक्षण है ,.... और भी बहुत कुछ है । देखिये ,सुनिये ,गुनिये और हो सके तो कुछ कहिये भी

               ➖ *सुरेन*
*बसंत आएगा*
▪▪▪▪▪
--स्वप्निल श्रीवास्तव
बसंत आएगा इस वीरान जंगल में जहाँ 
वनस्पतियों को सिर उठाने के ज़ुर्म में 
पूरा जंगल आग को सौंप दिया गया था 
वसन्त आएगा दबे पाँव हमारे-तुम्हारे बीच 
संवाद कायम करेगा उदास-उदास मौसम में 
बिजली की तरह हँसी फेंक कर बसंत 
सिखाएगा हमें अधिकार से जीना 
पतझड़ का आख़िरी बैंजनी बदरंग पत्ता समय के बीच 
फ़ालतू चीज़ों की तरह गिरने वाला है बेआवाज़ एक ठोस शुरूआत फूल की शक्ल में आकार लेने लगी है मैंने देखा बंजर धाती पर लोग बढ़े आ रहे हैं कंधे पर फावड़े और कुदाल लिए देहाती गीत गुनगुनाते हुए उनके सीने तने हुए हैं बादल धीरे-धीरे उफ़क से ऊपर उठ रहे हैं ख़ुश्गवार गंधाती हवा उनके बीच बह रही है एक साथ मिलकर कई आवाज़ें जब बोलती हैं तो सुननेवालों के कान के परदे हिलने लगते हैं वे खिड़कियाँ खोलकर देखते हैं दीवार में उगे हुए पेड़ की जड़ों से पूरी इमारत दरक गई है
*इन ढलानों पर* ▪▪▪▪▪मंगलेश डबराल इन ढलानों पर वसंत आएगा हमारी स्मृति में ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता धीमे-धीमे धुंधुवाता खाली कोटरों में घाटी की घास फैलती रहेगी रात को ढलानों से मुसाफ़िर की तरह गुज़रता रहेगा अंधकार चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख फिर से उभरेगा झाँकेगा कभी किसी दरार से अचानक पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ़ शिखरों से टूटते आएँगे फूल अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़ छटपटाती रहेगी चिड़िया की तरह लहू लुहान *वसन्त* ▪▪▪--धूमिल इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूँ : कुर्सी में टिमटिमाते हुए आदमी की आँखों में ऊब है और पड़ौसी के लिए लम्बी यातना के बाद किसी तीखे शब्द का आशय अप्रत्याशित ध्वनियों के समानान्तर एक खोखला मैदान है और मासिकधर्म में डूबे हुए लत्ते-सा खड़खड़ाता हुआ दिन जाड़े की रात में जले हुए कुत्ते का घाव सूखने लगा है मेरे आस-पास एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है उधार देने वाले बनिये के नमस्कार की तरह जिसे मैं मात्र इसलिए सहता हूँ कि इसी के चलते मौज से रहता हूँ मेरे लिए अब कितना आसान हो गया है नामों और आकारों के बीच से चीज़ों को टटोलकर निकालना अपने लिए तैयार करना – और फिर उस तनाव से होकर – गुज़र जाना जिसमें ज़िम्मेदारियाँ आदमी को खोखला करती हैं मेरे लिए वसन्त बिलों के भुगतान का मौसम है और यह वक़्त है कि मैं वसूली भी करूँ – टूटती हुई पत्तियों की उम्र जाड़े की रात जले कुत्ते का दुस्साहस वारण्ट के साथ आये अमीन की उतावली और पड़ौसियों का तिरस्कार या फिर उन तमाम लोगों का प्यार जिनके बीच मैं अपनी उम्मीद के लिए अपराधी हूँ यह वक़्त है कि मैं तमाम झुकी हुई गरदनों को उस पेड़ की और घुमा दूँ जहाँ वसन्त दिमाग से निकले हुए पाषाणकालीन पत्थर की तरह डाल से लटका हुआ है यह वक़्त है कि हम कहीं न कहीं सहमत हों वसन्त मेरे उत्साहित हाथों में एक ज़रूरत है जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग चीज़ों को घटी हुई दरों में कूतते हैं और कहते है : सौन्दर्य में स्वाद का मेल जब नहीं मिलता कुत्ते महुवे के फूल पर मूतते हैं *वसन्त* ▪▪▪-एकांत श्रीवास्तव वसन्‍त आ रहा है जैसे मॉं की सूखी छातियों में आ रहा हो दूध माघ की एक उदास दोपहरी में गेंदे के फूल की हॅंसी-सा वसन्‍त आ रहा है वसन्‍त का आना तुम्‍हारी ऑंखों में धान की सुनहली उजास का फैल जाना है काँस के फूलों से भरे हमारे सपनों के जंगल में रंगीन चिडियों का लौट जाना है वसन्‍त का आना वसन्‍त हॅंसेगा गॉंव की हर खपरैल पर लौकियों से लदी बेल की तरह और गोबर से लीपे हमारे घरों की महक बनकर उठेगा वसन्‍त यानी बरसों बाद मिले एक प्‍यारे दोस्‍त की धौल हमारी पीठ पर वसन्‍त यानी एक अदद दाना हर पक्षी की चोंच में दबा वे इसे ले जाएँगे हमसे भी बहुत पहले दुनिया के दूसरे कोने तक। *बसंत* ▪▪--केदारनाथ सिंह और बसंत फिर आ रहा है शाकुंतल का एक पन्ना मेरी अलमारी से निकलकर हवा में फरफरा रहा है फरफरा रहा है कि मैं उठूँ और आस-पास फैली हुई चीजों के कानों में कह दूँ 'ना' एक दृढ़ और छोटी-सी 'ना' जो सारी आवाजों के विरुद्ध मेरी छाती में सुरक्षित है मैं उठता हूँ दरवाजे तक जाता हूँ शहर को देखता हूँ हिलाता हूँ हाथ और जोर से चिल्लाता हूँ- ना...ना...ना मैं हैरान हूँ मैंने कितने बरस गँवा दिए पटरी से चलते हुए और दुनिया से कहते हुए हाँ हाँ हाँ...|  

बिना टिकट के
गंध लिफ़ाफ़ा
घर-भीतर तक 
डाल गया मौसम
रंगों डूबी
दसों दिशाएँ
विजन डुलाने लगी हवाएँ
दुनिया से बेख़ौफ़ 
हवा में
चुंबन कई 
उछाल गया मौसम।
दिन सोने की
सुघर बाँसुरी
लगी फूँकने...फूल-पाँखुरी,
प्यासे अधरों पर ख़ुद 
झुककर
भरी सुराही 
ढाल गया मौसम।
-इसाक अश्क

सीधी है भाषा बसंत की
त्रिलोचन ...
कभी आँख ने समझी कभी कान ने पाई कभी रोम-रोम से प्राणों में भर आई और है कहानी दिगंत की नीले आकाश में नई ज्योति छा गई कब से प्रतीक्षा थी वही बात आ गई एक लहर फैली अनंत की|
वासंती समझौते 
दस्तख़त पलाश के।
गंधों के दावों का
एक बाग फूला,
आँखों ने कलियों पर
डाल दिया झूला,
कहाँ रहे कोयल के
आज मन हुलास के।
आसमान छूने को
परचम लहराए,
कौवों ने सुबह-सुबह
काँव गीत गाए,
उगल रही तोती भी
शब्द कुछ भड़ास के।
तेज़ हुई आँधी में
डोलते बबूल,
डाल की गिलहरी भी
राह गई भूल,
टिड्डी दल पाले है
-बृजनाथ श्रीवास्तव

प्रत्यंचा टूट गई
छूट गए फूलों के वाण
ऋतुओं के गंध कलश छलक गए
रेशमी हवाओं की
रस्सियाँ भाँजता
बटरोही वसंत
वन-बगीचों में झाँकता
कोयल के पैने संधान
अंध कूप में गहरे सरक गए
शहज़ादे सलीम-सा
बौराया आम
मेंहदी हसन-सी
ग़ज़ल पढ़ती है शाम
पहाड़ों पर नदी के पैतान
गुलमोहर निगाहों में करक गए
जंगल ने ओढ़ ली 
खुशबू की चादर
धरती ने लगा ली
जैसे महावर
रंगों के तन गए वितान
गीत-क्षण शीशे-सा दरक गए
-कैलाश पचौरी

संयम के टूटेंगे फिर से अनुबंध,
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

मधुबन की बस्ती में,
सरसिज का डेरा है।
सुमनों के अधरों तक,
भँवरों का फेरा है।
फुनगी पर गुंजित है, नेहों के छंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

किसलय के अंतर में, 
तरुणाई सजती है।
कलियों के तनमन में,
शहनाई बजती है।
बहती, दिशाओं में जीवन की गंध।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

बौरों की मादकता,
बिखरी अमरैया में,
कुहु की लय छेड़ी,
उन्मत कोयलिया ने।
अभिसारी गीतों से, गुंजित दिगंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

सरसों के माथे पर,
पीली चुनरिया है।
झूमे है रह रहकर,
बाली उमरिया है।
केसरिया रंगों के, झरते मकरंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।
बूढ़े से बरगद पर,
यौवन चढ़ आया है।
मन है बासंती पर,
जर्जर-सी काया है।
मधुरस है थोड़ा, पर तृष्णा अनंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।
अजय पाठक
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साहित्यिक समूह साहित्य की बात के रचनाकारों की कविताएं |समूह के संचालक है श्री ब्रज श्रीवास्तव जी
1
बसंत का अग्रदूत
पर जीवन ऐसा
जब भी आने को होता
बसंत पतझड साथ
चली आती है उसके
पूरा बसंत 
अकेला बसंत
एक साथ 
नहीं मिलता जीवन में कभी
जैसे पूर्णिमा के साथ
ही आरंभ हो जाती है
अमावस्या........।

संजीव जैन 
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2
आ गया वसन्त झूमती दिशा दिगन्त
नहीं आए मेरे कन्त मन डोल-डोल जाए रे
मन्द-मन्द डोलती प्राण रस घोलती 
फागुनी बयार ,जैसे प्रेम गीत गाए रे !
खुल गए हैं देख कलियों के बाजूबन्द
फूल-फूल की सुगन्ध मकरन्द छलकाए रे
रुत अलबेली जैसे रागिनी नवेली
जैसे प्रीत की पहेली कोई छन्द लिख जाए रे !
खेत-खेत ,मोड़-मोड़ सारे काम-धाम छोड़,
सरसों रंगीली जो चुनर फहराए रे
कोकिला के सोर और आम पे लदा ये बौर
देख टेसू ठौर-ठौर रंग बगराए रे !!

मीना शर्मा

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3
*बसंत*
▪▪▪
प्रिय , जैसा कि तुम जानते हो
मौसम  ... 
जिसे फागुन कहते है
तुमने साल भर जो चोटियाँ
बाँधी है ,
वे एक साथ खुल-खुल जाती है
यूँ रह -रह कर खुलते केशों से
किसी भी पत्ते का पर्ण हरित
लह लहा के मेरी ओर
ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश करता है
ऐसे में तुम्हे प्यार ना करने की जिद
और तुम्हे जहन से हटाने की सारी कोशिशे ,
तुमसे कहना नहीं चाहता 
और न ही  जताना ....।
            
 ➖➖ *सुरेन*
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4

 *उम्र में जुड़ता बसन्त*
शहर की ऊंची इमारतों 
और कंक्रीट के जंगल में
सेवानिवृत्त हो ,
मल्टी स्टोरी की एकमात्र छत पर टहलता है
मौसम का हरकारा पवन।

वातानुकूलित कार्यगृहों में 
बारह महीने सूट में अकड़े रहते हैं बदन ,
किटी पार्टी में कट कट के 
अतिसभ्य  सुचिता में छोटा हुआ पचरंगी दुपट्टा 
नहीं करता अब  हवा से ठिठोली 

खिलखिलाती मटर, 
फ्रोज़न  हो गई 
लहलहाती गेहूं की बालियां 
पिसे आटे के ब्रांडेड बेग पर 
उदासी का फोटो बन चिपकी रहती है,
पीली सरसों की महक का 
अब कहीं कोई परिचय नहीं है 

बालकनी के अय्याश गमलों में 
मठेठ से मुस्कुराते हैं 
बोनसाई गुलाबी कनेर 
चेतुवे की गुनगुनाहट याद नहीं 
अब दौड़ते-भागते शहर को 

विविध भारती पर गूंजता  फरमाइशी गीत
" केतकी गुलाब जूही चंपा के वन फूले 
ऋतु बसंत अपनो कंत गोदी गरवा लगाए"…
सुनकर जोड़ लिया 
सबने उम्र के सालों में एक और बसंत।

प्रवेश सोनी 
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5
बसन्त!!
पलाश की टहनियों पर
फूटने लगे हो तुम,
कुछ दिनों में
दहक कर पूरे जंगल पे
बुझ जाओगे...
और कहीं कहीं
कुछ भी न बदलेगा,
बना रहेगा सब
जस के तस।

मंजूषा मन
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6
पता नहीं 
कैसा होता है 
सुबह का आलम 
नदी में सूरज की पहली किरण का 
अक्स कैसा होता है पता ही नहीं 

कैसे होते हैं चमकदार शहर
हंसते मुस्कराते हुए लोग कैसे होते हैं खुश
कुछ पता नहीं 
प्रेम का कामयाब रस्ता 
कोई बता दे
मुझे तो नहीं पता 
कैसा होता है. 

यहां तो बस 
काम करने के लिए सुबह होती है 
न थकने के लिए दोपहर और 
बोझ लेकर घर लौटने के लिए 
होती है शाम
रात केवल सोने के लिए ही कैसे होती है नहीं पता हमें 
चटख रंग चिढ़ाते हुए मिलते हैं हमें
शीत ऋतु छोड़ कर जाती है हमारे घर
तब भी हम हिसाब से  ठिठुरते रहते हैं 
कर्ज की मार सहते हुए हम देख ही नहीं पाते खिले चेहरे के नूर
फूलों की खेती की झंझट बड़ी है हमारे गांव में 
हमें नहीं है पता 
बसंत किसे कहते हैं लोग. 
ब्रज श्रीवास्तव 
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7
आम पर बौर
तन पर.मदहोशी
जंगल में टेसू
मन की उमंग
हरी हरी लहराती बालियाँ
जैसे.जीवन की बांछे खिल जाना
शांत नदियाँ
जैसे चुपके से तुम्हारा आना
जीवन में बसंत…..।
संजीव जैन 
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8
अभी अभी पीपल के पेड़ से
गिरा है 
एक निःशब्द पत्ता
लहराते हुये .
पहली और अंतिम दफा 
उठाया है उसने विरक्ति का ये लुफ्त
लहराने पर .
धरा ने लगा लिया
ह्र्दय से
चुंबन पर जड़ दिये
धूल के कुछ कण.
इसका यूं विरक्त होना
छाँह का टूटना अवश्य है 
पर क्या करे 
बसन्त जो आ रहा है ।
   🔵कुंजेश श्रीवास्तव  

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9
 #प्रेमी#
पत्ते उगते हैं
झड़ जाते हैं
फिर उगने के लिए
फूलों का भी ऐसा ही है कुछ
खिलना और मुरझा जाना
रख दो कलम किनारे
वो देखो मेरी चाँदनी
और उसकी लट
हे कवि
अब लिखो बसंत पे कविता
बस इतना सा ख्याल रखना
लिखने में न आए
खुलने न पाए लट
✍जतिन अरोरा 
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10
 बसंत 
कोयल से कहा मैंने सखि ! 
मेरी बोली को दे -दे थोड़ी सी मिठास 
वह झट से मान गई
फूलों ने मुझे दे दी खुश -खुश खुशबू की बहा
कलियों ने फिर भर -भर अँजुरी 
 मुझ पर दी उड़ेल अपनी 
 हँस कर अपनी उन्मुक्त हंसी 
 भौरों से सीख लिए मैंने सब प्यार के गीत 
 भीनी -भीनी गुन -गुन 
 पायल में हवाओं में 
 भर दी रुन -झुन ,रुन झुन 
 और झरनों का
 इठलाना बक्श दिया 
 तितली ने स्वयं मुझ को\ 
 और झील के पानी की उद्दाम तरंगों ने 
 दी अपनी चंचलता 
 रक्ताभ पलाशों ने रंग डाले कपोल मेरे 
 मेहंदी ने हथेली पर रख दी अपनी सुर्खी 
 इक वृद्ध अशोक ने फिर वरदान दिया मुझ को
 जीने का शोक रहित 
 और मुझ में उतर आया मानों कि समूचा वसंत 
 जो रोप गया खुशियाँ 
 मेरे अंतस में अनंत 
 कृष्णा कुमारी 
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11आहट होती है,
मन की चादंनी मे, 

तुम ,आकर कुछ समय बाद ही चले जाते हो.....,
तुम्हारी प्रतीक्षा मे भुल जाती हूं,
श्याम पट की कालिमा 
औऱ
श्वेतपट पर लिख देना चाहती हूं,
ढेर सारे रंगों से 
नई कविता ...

अब तो आ जाओ
प्रिय कंत 
आया है
बसंत.....

राखी तिवारी               
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 12         
मुझको याद तुम्हारी आई अरसे बाद।
नैनों ने गगरी छलकाई अरसे बाद।

मन-वीणा के तारों में झनकार जगी
अंतस में गूँजी शहनाई अरसे बाद।

मेरे मन-मधुबन में प्यार के फूल खिले
कोयल ने भी कूक सुनाई अरसे बाद।

पतझड़ बीता अब मधुमास है आने को
लाई संदेशा ये पुरवाई अरसे बाद।

ख़बर सुनी जब से ऋतुराज के आने की
बौराई सी है अमराई अरसे बाद।

            उदय ढोली

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13
  बसन्त 
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जीवन में बसंत आ रहा है
उतर कर ससरता हुआ
पेड़ों की लचकती 
शाखों से
अमराइयाँ लेने लगी हैं 
उच्छ्वास गहरे
कुहकती कोकिल के
शब्द बेधी बाण बींध रहे हृदय... आग सी लगाता पलाश मैं भी झुलसना चाहती हूँ इस बसन्त में देखा है पहली बार आँखें खोल..... बदलता मौसम देह पर बौराया बसन्त चहकता, महकता, दहकता, लरजता छूकर कलियाँ थिरकते पाँव, बजती झाँझर दौड़ पड़ती हिरनी पलाश वन में झुलसने को सहेज लेना तुम अपने हिस्से के सुख बसन्त कुछ छोड़ जाए तो ... इस तरह आया है अबके बसन्त जीवन में बौराया सा !! मीना सारस्वत !

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14
चलो अब आ गया फिर से अम्मलतास का मौसम 
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ये कैसा गीत है जो गा रही कोयल मगन होकर 
लगी छाने कशिश दिल में,कि है उल्लास का मौसम 
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यूँ लगता है कि जैसे हॅस रहा हो ये चमन ,ये घर
तेरे आने से   बदला है मेरे पास का  मौसम 
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मिटे कैसे समझ आता नहीं जो प्यास दिल में है
कि आया लौट अब तो फिर नज़र की प्यास का मौसम 
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नशा है फाग का छाया ज़मीं से आसमां तक अब
हॅसी फूलों की ,समझो तुम कि है आभास का मौसम 

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
भावना
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15
 "फिर आएगा वसन्त"

हम जो चुपचाप बैठे हैं हताश से
अपनी ही लगाई गाँठों की ऐंठन में जकड़े से
प्रसन्नता से निर्वासित लोग हम
बदलेगा मौसम हमारे लिए भी
देखना फिर आएगा वसन्त चुपके से
डालेगा बसेरा हमारे आँगन में
पीले नीले मिल नारंगी रंगो से
पूर पूर देगा हमारे गलियारे

खेतों में,बागों में,गली कूचों में
हौले से बिखर जायेगा जैसे बिखर जाती है खुशबू
सांसों की सरगम में,राग भोर का गायेगा,चूमेगा वल्लरी से झरती कलियों को
फ़ैल जायेगा वसन्त का जादुई उजाला सवेरे की रेशमी झालर में झिलमिल सा

टेसू के उन्मादी रंग से घुल जायेगी केसर सी
उसके आने की आहट से  समीर बना रही अल्पनाएँ पराग कणों से
कोयल गायेगी मादक गीत
भौरों की गुनगुन में उसकी आमद का संगीत स्वर लहरियों में नाचने लगा है

अपने गिटार के तारों को छूकर छेड़ते ही वो उखाड़ फेंकेगा तुम्हारी उदासी की केंचुल
पपड़ाये होंठ हिलने लगेंगे और फिर से जीने लगेंगे 
कब तक आखिर कब तक 
भूख,हमे संत्रास देगी
वसन्त के आते ही होगा एहसास अनोखा तृप्ति का
जी उट्ठेगा जग सारा देखना 
अँधेरे को चीर आयेगा वसन्त
छा जायेगा हमारे दिलो-दिमाग पर वसन्त का मादक नशा
आयेगा वसन्त अपनी पूरी की पूरी जिजीविषा के साथ
@c आरती तिवारी

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16
 बसंत और पतझड़
इसमें है दुनिया के तमाम रंगों की आभा देदीप्यमान 
इसमें है संगीत के सातों सुर की स्वर लिपि  जाज्वल्यमान
ऋतु यह लाजवाब है
बस!
मुझे पसंद नहीं इसकी एक बात
सुख की आदत डाल
दो चार दिनों बाद
दु:खमय दौर 
सौगात हमें
दे जाता 
लेकिन पतझड़--- ?
भावना सिन्हा 
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17
संत बसंत 
बसंत
ऋतुओं का संत
मौसम के सितार पर 
थिरकाता अपनी अंगुलियां
  
स्वप्न में डूबी 
जैसे मन्त्र मुग्ध महफ़िल 
जैसे मोहिनी राग में 
झर रहे सुगंध से सने 
निर्मल शब्द

गुनगुनी मदमस्त बयार से  
बेसुध पूरी बगिया   

झूठ कहते हैं लोग
कि ऋतुओं के महाराज पधारे हैं

ये शिविर आनन्द का कुछ दिन 
प्रेम लुटाकर  लौट जाएगा 
इश्क में डूबा फ़कीर।

ब्रजेश कानूनगो
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18
*फिर इस बसंत में*
फिर बसंत  में होंगी बातें  फूलों की
रंग , खुशबू ,बहार और  झूलों की

पीठ से जा लगे हैं कितने  पेट
बसंत को याद नहीं बुझते चूल्हों की

दरख्तों  का घना साया महलों पर 
अपने हिस्से में है छाँव  बबूलों की

उनकी दरियादिली का  आलम है
पहाड़ों पर बस्ती लंगड़ों - लूलों की

अब नही आता यौवन कलियों पर
नज़रे उन पर दरिन्दे शूलों की

वो ज़खीरा लिये बैठे हथियारों का
सज़ा हवाओं को उनकी भूलों की

मुल्क की पैमाइश का पैमाना क्या
नक्शों में छिड़ी जंग भूगोलों की

जले बदन की बू है बयारों में
बाज़ार में कीमत बढ़ेगी दूल्हों की

शिकायत करें अब हम किससेे
अकाल में सूखी फसल उसूलों की

*शरद कोकास*

19
 *1985 का बसंत*
*संदर्भ भोपाल गैस कांड*

*बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे*

बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गए
देश की हवाओं में घुले 
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गए
अंकुरित होने से पहले
और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिए भी

जाओ उस ओर
तुम देखोगे और सोचोगे
पत्तों के झड़ने का 
अब कोई मौसम नहीं होता
उगते हुए नन्हें नन्हें पौधों की कमज़ोर रगों में इतनी शक्ति शेष नहीं कि वे सह सकें झोंका तुम्हारी मन्द बयार का पौधों की आनेवाली नस्लें शायद अब न कर सकें तुम्हारी अगवानी पहले की तरह खिलखिलाते हुए आश्चर्य मत करना देखकर वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को । *शरद कोकास*
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२०
सोलहवें बसंत की अदायें ''
कमसिन सी ,अल्हड़ तितली सी ,
सतरंगी सपने बुन रही है वो ! मृगया ,मृगनयनी ,मृगमन लिए , बचपने को भूल रही है वो ! चंचलता को बांध चोटी  में ,
शरारतों को छेड़  रही है वो ,
बावरी सी निहारती दर्पण ,
खुद ही इठला रही है वो !
बीते सालों की पतझड़ी पत्तियाँ बीन,
तन -मन बुहार रही है वो !
ओंस से  भींगी कोपल को चूम ,
खुद ही खुद शर्मा रही है वो !
कभी चुरा कर आँखों से काजल ,
मानो कच्ची उम्र ही चुरा रही है वो ,
कभी लगा कर काजल का टीका ,
बुरी नज़रो से खुद को बचा रही है वो ! 
इन मधुमासी मधुर बयार संग ,
महक -बहक जा रही है वो !
देख ,फूलो संग भवरों  का खेला ,
लाज  से लजा रही है वो !
सुनकर यौवन की आहटें ,
अंगड़ाइयाँ ले रही है वो !
सोलहवें बसंत की अदाएं लिए  
पिया की पदचापे सुन रही है वो !
ई अर्चना नायडू 
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21
इस वर्ष बसंत सूना रहेगा , 
हर बयार में ढूँढेंगे उन्हें , 
जो मिल न सकेंगे कभी , 
बयार चलेगी , बादल आयेंगे , 
ओलावृष्टि भी हो शायद ,
हम साझा न कर पायेंगे ।
आम के बौर आयेंगे , 
होली आयेगी , 
हम ये रंग बता नहीं पायेंगे , 
दुनिया जब रंगीन होगी , 
शायद हम रंगहीन नजर आयेंगे, 
अब चूँकि आप ब्रम्हलोक में हैं , 
बिना किसी दृष्टिदोष के प्रत्यक्ष  देख पायेंगे ...

पूज्यनीय पिता जी को समर्पित 
पीयूष तिवारी 
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२२
काँधे तक कंबल सरका कर, सर-से सर्दी भागी
तब थोड़ी-सी राहत आई जब बसंत ऋतु जागी

सूरज करने लगा ठिठोली, लगा ठहरने ज़्यादा
चंदा घर जल्दी जाने की, लांघ रहा मर्यादा

तारों ने भी शुक्र मनाया, घटी जो पहरेदारी
खींचा-तानी में दिन जीता, रात बेचारी हारी

पीले-पीले फूल खिले, सरसों ने ली अंगड़ाई
हल-चल भई बाग के भीतर, अमवा भी बौराई

फागुन खड़ा द्वार के बाहर, राग मल्हार अलापे
कोयल पपिहा बेर-बेर, घर आँगन, झाँके-ताके

गोरी का मनवा अति हर्षित, मन ही मन मुसकाए
जो घर साँवरिया आ जाए, मन मुराद मिल जाए

कहे आज़मी मैं भी अपने दिल का हाल सुनाऊँ
जो बसंत पर पिय माने तो, पीहर तक हो आऊँ

(सरस्वती तिवारी आज़मी)
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23
माली अपनी खुरपी लिए
क्यारियों को रहा है खंगाल 
देखती हूँ मुग्ध रंग बदलना 
मिट्टी का.. सांस खींच भीतर 
अपने होने की सबसे आदिम गंध
से सींचती हूँ ख़ुद को
देखती हूँ टपकते स्वेद को 
मिट्टी का भूरा खारा होता जाता है

खोलती हुँ पति का बटुआ
निकालती हूँ नोट दो सौ के
बीज, खाद, श्रम का मूल्य तय है
पाती हूँ एक बार फिर एक गंध खारी

बसंत के आगमन पर
एक श्रम से दूजे श्रम तक
पुल बन जाती हूँ
मेरी बगीची में आने को है
बसंत....................
अनेकवर्णा
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24
कोंपलें फिर फूटने को है 
स्मृतियां फिर जुड़ने को है 
पलाश फिर दहकने को है 
हल्की सी जुम्बिश ही सही थोड़ा पानी तो हिल जाये कोई चिंगारी तो सुलग जाये हम दोनों के बीच ही नही स्नायु को फड़का जाये मेरे शीत से उनींदे तन मन को झकझोर दे भले धीरे से नर्म है धूप तो क्या कीजे नम्र है हवा तो क्या कीजे चिटकने चाहिए कुछ किल्ले कब तक पुकारूँगा ,तुम्हे कुछ अपनी सांस भी दिख जाए कुंडली में जो बैठा है फन काढ़े कब देखा तुमने कर दे रीढ़ को फिर सीधा
... ...ओ बसंत !
सुरेन के सिंह 
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25
 बसंत : 

सारे पत्ते
पीले पड़ रहे है
जैसे रंग उड़ जाता है पैरहन  का
पुराने हो जाने पर ।

सबसे पहले
ऊंचे पेड़ो की फुनगिंया 
गिराती है धरा
जैसे स्त्री ने हटाया हो माथे का टीका।

धीरे धीरे एक एक पर्ण गिरा रही है 
नग्न हो रही है धरती
ठंड़ से जीर्ण पड़ चुके सूर्य 
उत्तेजना में फिर गर्म हो रहे है 

मलय पवन की सरसराहट संकेत है 
सूर्य ने एक साथ करोड़ो रश्मियां
धरती पर उड़ेल दी है 
बंसत सूर्य का स्खलन है ।

यह सृजन का समय हैं 
सृजन हेतु पैरहन का न होना जरूरी है 
ईश्वर नंगा है ।
अखिलेश
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26
 "बसन्त"
महक उठी जग,घर,मन,फुलवारी
पहने पीत वसन बसंत वसुधा नारी
श्रंगार कर रहीं रसिक फन कारी
ह्रदय हुलास लरज रही धानी बाली

ठुमक चमक नव कपोल मुस्काई
तरुवर हर्षित कलियाँ बिकसाई
मधुर-मधुर मदरिम सुगन्ध बिखराई
भवरों ने सुर साधे कोयल गाना गाई
पवन प्रेंम मैं डूब ओस अँजुरी भर लाई

हरित तृणों के लहंगे में
रूप का सागर छलका
देख पलाश दहक प्रेंम में
फूला लाल सुमन सा
टेसू देखें सँवर-सँवर और
बौरें अमुआं झूला झूलें
चलें बसन्ती हवाएं फिर
जो मद में डुबो रहीं हैं

पड़े अटारी कनक बने
विलग हुए जो पात
मैं देखूं और सोचती
ये जीवन का सच बताता 
रेखा दुबे 
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चित्र :गूगल से साभार

4 comments:

  1. बसंत अंक बसंत की तरह ही खूबसूरत बना है। साहित्य की बात ग्रुप के सदस्यों की सभी कविताएँ बहुत उम्दा।

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  2. बसंत का खूबसूरत आगमन....रसभरी रंगभरी कविताएँ

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