अँधेरा ,जिससे सब डरते है ,दूर भागते है ...दोड़ते है प्रकाश की ओर |यदि अंधकार रात बन कर न आया होता तो सूरज का अस्तित्व क्या होता ,सोचने वाली बात है | जब भी इंसान प्रकाश में चला अंधकार उसके साये के रूप में साथ चला |जब दीपक ने उजास किया ,अंधकार उसके तल में जा बैठा |खुशियों के उजास में भी कभी कभी उदासी का अँधेरा मन में आकर बैठ जाता है |किसी न किसी रूप में अंधकार हमारे आस -पास ही रहा |अंधकार को सबसे धिक्कार मिला ,प्रतिक बनाया उसे बुराई का |
क्या वाकई अँधेरा इतना बुरा है, इसमें कोई गुण ही नहीं है ,क्या इसे समाप्त करना ही एक मात्र ध्येय होना चाहिए .....
यही विचार लेकर साहित्य की बात समूह पर ,समुहधिकारी श्री ब्रज श्रीवास्तव जी ने कविता लिखने को प्रेरित किया |त्वरित लिखी गई कविताओं में कवियों ने अँधेरे को भिन्न-भिन्न द्रष्टि देखा और काव्य संरचना की |
रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है अँधेरे पर लिखी गई कविताएं ....
अँधेरे पर विशेष नोट समूह के सदस्य श्री ब्रजेश कानूनगो जी द्वारा
अंधेरों के खिलाफ
आज अपनी बात विख्यात शायर जनाब राहत इंदौरी जी के एक शेर से कर रहा हूँ।
जुगनुओं को साथ लेकर रात रोशन कीजिये
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जायेगी।।
अन्धकार है तो कहीं न कहीं जरूर रात घिर आई होती है। अन्धेरा क्या सचमुच इतना बुरा है? उजाले क्या हमेशा अच्छे ही होते हैं।अँधेरे के भी कुछ उजले पक्ष होते हैं,तो उजाला भी कई अंधेरों को लेकर आता है।
अँधेरा,उजाला व्यक्ति सापेक्ष भी हो सकता है और समय सापेक्ष भी।तुम्हारा उजाला मेरा अँधेरा बन सकता है।उसका अंधेरा तुम्हारे लिये रौशनी लेकर आ सकता है।
कितने हैं जो दूसरों के अंधेरों में मोमबत्तियां लेकर पहुँचते है? ज्यादातर लोग किसी अन्य के इन्तजार में अपने उजालों की अय्याशी में मस्त रहते है।कोई सूरज निकलेगा और सुबह होगी तो उजियारा बिखरेगा।
अंधियारा मिटाना किसी और की जिम्मेदारी समझ हर कोई हाथ बांधे खड़ा रहता है।
राहत इंदौरी जी का शेर दिशा देता है।जुगनुओं को साथ लेकर अँधेरे की दीवार को भेदना चाहता है। इसमें सामूहिकता और कमजोर की एकजुटता की ताकत को रेखांकित किया गया है।
ये अँधेरा क्यों समाप्त करना चाहता है कवि? कहीं न कहीं इसके पीछे अँधेरे के खिलाफ प्रतिरोध की भावना समाहित है।प्रतिबद्धता और उसकी पक्षधरता के दर्शन का पता चलता है।
कवि के शब्द वे अश्म बन जाते हैं जो कविता में रगड़ से छोटी सी चिंगारी का सबब बनते हैं। समाज में उजाले के संचार का वातावरण निर्मित करते हैं।
आज 'अंधियारा' शीर्षक से यहां लिखी गईं कुछ कविताओं में थोड़ी सी ऐसी चमक दिखाई देती है,लेकिन तिमिर की मजबूत दीवार भेदने के लिए ये कोशिशें नाकाफी ही है।
कुछ और गंभीर प्रयास अभी किये जाने शायद बाकी हैं।
इस टिप्पणी के उजाले में साथी अपनी कविताओं के अंधेरे तलाशने की कोशिश स्वयं करेंगें तो वह कवि को बेहतर बनाने का निश्चित ही एक सार्थक उपक्रम होगा।
जरूरी नहीं कि मैं सब कुछ ठीक ही कह रहा। अपने अंधेरों से खुद भी लड़ना होता है,मैं भी संघर्षरत ही हूँ।
शुभकामनाओं सहित।
ब्रजेश कानूनगो
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समूह के सदस्य श्री सुरेन सिंह द्वारा प्रस्तुत की गई दो कविताये कवि लीलाधर जगूड़ी जी की
*अँधेरा-उजाला-१*
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अँधेरे के भी किसी गुण की तारीफ़ क्यों न की जाए
उजाला होते ही, बिना नष्ट हुए भी
तत्काल अपने नष्ट होने से हिचकिचाता नहीं
और पक्का इतना कि उजाला बुझते ही, तुरंत जन्म ले लेता है
अँधेरे की प्रशंसा को ग़ाली मानते हैं लोग
ढेर सारा अँधेर और अँधेरा फैलाए हुए लोग
वे अँधेरी और हवाओं से जूझते हुए
अकेले जलते दिये की प्रशंसा करते हैं
जबकि अँधेरे का ईंधन भी तेल-बाती के साथ
चुप-चाप जलता रहता है
यह अँधेरे की सिफ़त है कि वह कभी ख़त्म नहीं होता
पर कभी भी उजाले का गला नहीं घोंटता
और अंत में अँधेरा ही मित्रवत् उसे
अपनी काली आभा के कफ़न से ढक देता है
*अँधेरा-उजाला-2*
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छोटे दीयों की तरह चाँद-तारों को निस्तेज करते हुए
सुनहरी हवा से उस काले कफ़न को उठा देता है सूर्य
अँधेरों की छायाएँ दिन भर के लिए जी उठती हैं
सब छायाएँ मिलकर फैला देती हैं
पहाड़ों और समुद्रों तक फैली एक विशाल रात
मेरी ही परछाई में दुबका हुआ है सृष्टि का सारा अँधेरा
अपनी अनुपस्थिति का नाम उजाला सुनने के लिए
न कोई कोशिश न कोई सफलता-असफलता
बस उजाले की कमी इतना बड़ा अँधेरा बना लेती है ख़ुद को।
➖➖ *लीलाधर जगूड़ी*
1.. अंधकार
अंधेरा नहीं रोशनी है
साफ झकास रोशनी
यह वह रोशनी है
जिसमें आँखे भटकती नहीं है
यही वह रोशनी है जिसके.बिना
सूरज का कोई अस्तित्व.नहीं हो.सकता
यही वह रोशनी है जिसमें
जीवन आकार लेता है
यही है जिसमें
हम सपने देखते हैं
सपनों के बिना जीवन की.कल्पना नहीं .....
आँखें अपनी.थकान इसी.रोशनी में
उतारती हैं
करती हैं तैयार
सूरज की तपिश.को.सहने के.लिये
अंधकार ठंडक है
रोशनी तपिश है
यह वह रोशनी है जिसके लिये
न सूरज की जरूरत है
न चाँद तारों.की
अंधकार निर्हेतुक रोशनी है...
इसे अपने होने में दीपक की भी
जरुरत नहीं..
यह स्वयंभू शाश्वत रोशनी है
इसे बंद आँखों से भी देख सकते हैं
यह संसार का हेतू है
जीवन का सृजन है.....
अंधकार..।
संजीव जैन
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2....
सर्बिया की तरह भावनाओं की तहों के तले
बहती थी मुझमें जुनून की खौलती नदी
जहाँ अब सूखा पड़ा है और अवसाद के
अम्ल से झुलसा गयी है मछलियाँ सारी जिजीविषा की..
आधी रात को सहमे बच्चे की तरह
नफरत की खरखराहट सुन
पलंग के नीचे घुटने मोड़े मेरे ख्वाब
अपने ख़्वाबों के ख्वाब में रोते रोते खो जाते है..
वो पारस सी छुअन जो मेरी ऊँगलियों में डूबी रहती थी
अब बेरुखी से ख़ुश्क होकर चट्टानी कंकड़ के आकार में
अक्सर लहूलुहान कर देता है सैंकड़ों टुकड़ों में हर मुझे छूने वाले को..
मेरी खुशमिजाजी की चमक जो गारे में घुलकर
इमारत के कंगूरे से लोगों की आँखें चौंधिया रही थी
अनजाने अँधेरों के डर से
सिमट गयी है फिर से औकात में अपनी..
वो नदी,वो ख्वाब,वो छुअन, वो खुशमिजाजी और वो अस्तित्व अपना
मैंने शायद खो दिया है खुद को भी तेरे साथ साथ..
-कोमल सोमरवाल
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3- Devilal Patidar Ji
हर एक अपने को रोशन दिमाग यहा बताता हे
अंधकार फिर क्यो हर जगह नजर आता हे .
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4... मेरे अँधेरे
तुम मेरे अंधरे देखना सीख लो मेरी सुबह
तुम्हारा उजाला और मेरा अँधेरा दोनो कायनात का हिस्सा हैं
मैं तुमको प्यार करूँगा तो दिन बन जायूँगा
मेरा अंधेरा कही दूर किसी गर्त में पड़ा होगा
तुम पूरी दुनिया को खुली आँखों से देखती हो
तुम जानती हो हर चीज की काली परछाई
ओ मेरी प्यार
मुझसे क्यों कहती हो में अपना अंधियारा छोड़ कर आऊँ
कितना सुन्दर है ये अँधियारा जो तुम छुपाए हो
रौशनी के स्कार्फ में काले बालों की तरह
तुम्हारे बालों के अंधियारे में ही रखता हूँ मैं तुम में सृजन के बीज
ओ मेरी सुबह तुमको प्यार करूँगा
अपने अंधियारों से बनाऊंगा सितारों से भरी विशाल रजाई तुमको सुला लूँगा और
दिप दिपते तुम्हारे सोंदर्य को सहेज लूँगा
ओ मेरी सुबह
अब में तुममें जन्म लूँगा तुम मुझ में जन्म लोगी
आज में तुममें से गुजर रहा हूँ
शाम् को तुम मुझ में से गुजर जाना|
रविन्द्र स्वप्निल
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जिसकी तमाम उम्र अंधेरा निगल गया
उसकी चिता जली तो बहुत रोशनी हुई।
- महेश अनघ
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5....
इस अँधियारे में
डुबोकर कलम
कोई लिखता है
सुबह
सुबह
सुबह
तो कोई डुबोता है अपना ब्रश
और कैनवास पर
उभर आता है
सूरज
यह और बात
कि थोड़ा सा अँधेरा
चिपका रहता है
उनकी उँगलियों से
ताउम्र ...
#मणि मोहन
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6...अनायास नहीं होता
अनायास नहीं होता कि
टकराते हैं अश्म और
ध्वस्त हो जाती है
तिमिर की दीवार
खंडित हो जाती है
जंगल की खामोशी
रगड़ के मद्दिम स्वरों से
विचारों के बियाबान में
एक अकेला कवि
जब सुनना चाहता है
निविड अन्धकार में
रोशनी की कतरा आवाज
चकमक
बन जाते हैं अक्षर
फूट पड़ती है चिंगारी
कविता के भीतर से
अनायास
नहीं जला करती
प्रतिरोध की मशालें.
ब्रजेश कानूनगो जी
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7....
ओ! मन के चकमक पत्थर
क्यों पड़े हो अँधेरे कोने में
अपना ही मोल नहीं जानते
जागो! उठो!
पहचानो स्वयं को
तुम में है शक्ति
आग पैदा करने की,
तपन जाने की
तुम जगमगा सकते हो सारी दुनिया...
तब कहो तो ज़रा
क्या डरा सकता है तुम्हें
की अँधियारा...
अरे बात मानो..
ये अँधियारा खुद ही डरता है
तुम्हारे जाग जाने से...
तभी तो यह अँधियारा
चाहता है तुम्हारा भूले रहना
तुम्हारा खोये रहना...
ओ! मन के चकमक पत्थर
जागो! जागो! जागो!
मंजूषा मन
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8.. अंधियारा
पाटी और खड़िया से
लिखना शुरू किया
'अ' से अनार ,लिखे अक्षर
'अ 'से अपने पाये भी
'अ 'से अंकुरण में देखा सृजन
और
'अ 'से अन्धकार भी देखा प्रतिदिन
सूरज के ढल जाने पर
सजग हुए दीपक
सूरज के बन साथी
चाँद तारे भी हुए शामिल
अक्षेम से बचाने सबको
मन में जाने कब और कहाँ से
जमा हो गए
सबक,
बन अन्धकार के प्रहरी ||
प्रवेश सोनी
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9... || अँधियारा ||
निरापद नहीं है
अपने होने में पूरा है
जैसे साँस में प्राण
और जीवन में एक ज़रूरी पड़ाव
आवाहन करता है सूरज का
और उसी की प्रतीक्षा में
डटा रहता है,अपना साम्राज्य फैलाये
तान देता है एक चादर नींद की
कि उसके साये में,दुबके रहते हैं
कितने ही ग़म,आँसू और निराशाएं
दिन की मथानी में बिलोया दुःख
छाछ बनके नीचे पड़ा हो जैसे
और उस पर तैरते हैं मक्खन से सपने
एक जैविक क्रिया है अँधियारा
कैसे पायेंगे हम इसके बिना
जीवन की खिचड़ी को स्वादिष्ट बनाने को जरूरी
मक्खन का सत्व
आरती तिवारी
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10... ।। होना था ।।
यहां वह कंधा होना था
जहां मेरा हाथ खाली
झूल गया है हवा में
कि जिस पर रखता सर
और आंखें बंद कर लेता
मुझे राहत चाहिए
ऐसी कि भूल जाऊं
लौटने के लिए मैं दूर जाऊं हर बार
मुझे आंखों से देखो पूरा
कि रह न जाऊं
मुझे ऐसे भूलो
कि मैं याद करता रहूं
मेरे लिए दरवाज़ा खोलो
मेरी दस्तक से पहले
मुझे पहचानो
कि शीशे में अभी मेरा चेहरा नहीं उभरा
कि मैं अभी
तुम्हारे सपनों के बाहर
टहलता हूं सड़क पर अकेला
यहां वह कंधा होना था
जहां अंधकार की पीठ पर मेरा हाथ
कांपता है बेपनाह !
कोई जन्म होगा कभी
मैं जब
तुमसे कहूंगा
तुम्हारे वृत्त में नाचूंगा
रहूंगा।
- नवीन सागर
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11...
हर मौसम में
साथ मेरे अंधेरा होता है
औढ लेती हूं इसे
कभी ज्जबातों की रजाई बनाकर
सर्द मौसम में
उस वक्त......
रस ,गंध, स्पर्श के न होते हुए भी
एक ऐसी सच्चाई होती है
जो सारे आवरण को हटा देती है
उस वक्त ….
मुझे सिर्फ और सिर्फ
अपनी कमियों के अंधियारे ही नजर आते है
भीड़ से अलग ,खुद को पहचानती हूं इनमें
उस वक्त
इन्हें स्वीकार करने का साहस होता है
जिंदगी की सच्ची इबारत लिखते हुये ,
अँधेरे में ,
खुद से मिलना सुहाता है ।
राखी तिवारी
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12... || अँधियारा ||
अजीब दहशत सी है जब
अपने शहर के आने पर झाँकता हूँ बाहर ट्रेन से
वहाँ घुप्प अँधेरा है
भय का उदगम है ये अँधकार
न जाने क्या चीज़ किस चीज़ से
टकरा जाए बुरी तरह
यह वह अँधियारा है
जिसे सूरज छोड़ गया अपने आने तक
जो घर की छत से चिपका है
नदी किनारे रेत के कणों के बीच में
और गहरा गया है
ये दुनिया के बनने के पहले दिन से है
अस्तित्व में
इसका होना देर तक, अखरता है हमें
हम डरे हुए हैं दरअसल
अपनी बनाई चीज़ के मौजूद न होने पर
अँधियारा इसीलिए हुआ है भयानक आज
क्योंकि हमने कल तक इसे
अलग करके नहीं देखा
रोशनी से....
*ब्रज श्रीवास्तव*
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13... दीपशिखा
लेकर नन्ही दीपशिखा
मैं तम हरण चली थी,
आलोकित हो मन अंधियारा
मैं बाती बन जली थी।
देकर दर्प का आत्मोतसरग,
मैं कणकण बिखर गई थी,
नीरवता को बना संगिनी,
आत्मवेदन से निखर गई थी।
दिव्य दरस के अभिसार संग
अनंत प्रेम मे लीन थी,
बन पाती मै जोगन तेरी
बजी रागिनी बिन बीन थी।
न जान सकी न पा सकी
मैं चिर विरहन अधीर थी,
व्यर्थ रहा, मेरा विषपान
मै बिन बदरी की नीर थी।
छूने चली नभ के तेज को
अंतर तक बावरी थी,
बस जली अंत तक
मैं राख ही राख धरी थी।.
ई. अर्चना नायडू 😊
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14... अंधेरा
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अंधेरा कभी भी
अपने अंधकार से
नष्ट नहीं करता
कुछ भी
बीजों का अंकुरण अंधेरे में होता है
अंधेरे में
एक बूंद चुपके से
पंखुड़ियों पर आ बैठती है
अंधेरा
चांद तारों को अस्तित्व देता है
दिन के उजाले में
खो चुकी
बहुत सी आवाजों का पता है अंधेरा
अंधकार की भी
अपनी नैतिकता होती है ।
।। भावना सिन्हा ।।
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15...
अंधेरा रोज होता है ,
सवेरा रोज होता है ,
अंधेरा डराया करता है ,
सबेरा उसे हराया करता है ,
अक्सर महसूस किया है मैंने ,
किंतु जबसे माँ , पिता को खोया है ,
अंधेरा खूब समझ पाया है ,
जीवन में सिर्फ अंधेरा ही नजर आया है ...
पीयूष तिवारी
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16... दो किनारे....
दो किनारे थे हम,मैंइधर तुम उधर
लहर आती रही,दिल मिलाती रही
छिपके"अँधियारा"नज़रें चुराता रहा
चाँदनी एक मधुर गीत गाती रही !
जो सुनाए मुझे,वे नवल छंद थे
जिनमें भँवरे छिपे वे कँवल बंद थे
फिर महक रातरानी लुटाती रही
कोई धुन दिल की धड़कन सुनाती रही !
मधुमयी रात में खुशबुओं के तले
कँपकँपाते अधर अब मिले,अब मिले
साँस की लय उमंगें बढ़ाती रही
गूँज शहनाइयों की लुभाती रही !!
मीना शर्मा
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17...
रोशनी के साथ
जन्मा था
एक टुकड़ा
अँधेरे का !
उजाले का साया
बन चलता
धीरे धीरे लील गया
उजाले को ही।
- अनिता मंडा
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18...
ये नींद
कभी चाँदनी
तो कभी
अँधेरी रात की ही है सौगात
पर ....
सबको सुलानें वाली क्यों
जागी है रात ???
ज्योत्स्ना प्रदीप
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19... अंधियारा :
ईश्वर के सिरहाने उजास रहता है
दिप्त वलय के रूप में ।
पा जाता है अक्षौणिक सेना
गज,रथ ,अश्व सब ।
बस अकेले निहत्थे ईश्वर
उजियार के विरुद्ध है
वो प्रकाश का हिंसा प्रेम समझते है
अंधियारा शांति का दूत है
उसके आते ही गांडीव तक कमान
ढीली कर देता है
अश्व अस्तबल में लौट जाते है ।
कुरुक्षेत्र में प्रकाश की पहली किरण
मौत के लाखो लिफाफे बाटती है।
अंधियार के पास शुभकामना पत्र है
जयद्रथ का दिया हुआ ।
अंधियार है तो
चांद है उसकी पूर्णिमा है
झिलमिल सितारो के आंगन तले
विश्राम की उत्कट इच्छा है ।
मानव सबसे सुन्दर व मौलिक रचना है
इस रचना के सृजन हेतु
ईश्वर ने अंधकार को चुना
प्रकाश में वह सिर्फ अनुवाद करता है ।
अखिलेश
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20...
अँधेरे की खामोशी बीती रात
मेरे दिल से करती रही बातें
अंधेरा समृद्ध शाली हो गया
उजाले ने अपने पैर सुकोड़े
मैं उस अँधेरे में ही जीती रही
उजाले की कशिश बकरार रही
बहु मंजिला इमारतों के बीच
खामोशियों के बाजार में
लोगों को जानना मुश्किल था
मुस्कराहटों पर पाबन्दियाँ
गले लगा
गुबार निकलना मुश्किल था
सो सलाखों के महल मैं
अँधेरे संग बातें करती रही
रेखा दुबे
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सभी कविताओ पर समूह की सह एडमिन सुश्री मधु सक्सेना का समीक्षक प्रतिक्रियात्मक नोट
सबकी कविताओं पर क्या लिखू ।बड़ा कठिन काम सौंप दिया ब्रज जी ने ।फिर भी कोशिश करती हूँ ।
अँधेरे पर लिखना याने रौशनी के साथ होना ...
अँधेरा शाश्वत सत्य और रौशनी अल्प समय की ....
बहुत बढ़िया विषय दिया ....
बृजेश जी की कविता की शुरुआत आखिरी पंक्ति से शुरू होती है ...जब वो कहते है कि ' अनायास नही जला करती
प्रतिशोध की मशालें '
इन पंक्तियों में दुःख ,त्रासदी और तिल तिल जलने की कहानी छुपी हुई है ।कविता ही है जो रौशनी को खोजती है और दिशा देती है ।अक्षर का प्रकाश ही
चेतना को जागृत करता है ।
बहुत सुंदर बात और सुंदर तरीके से रखी बृजेश जी ने ।भाषा सहज है और पाठक को अपने साथ ले चलती है ।
बधाई बृजेश जी ....
मञ्जूषा ने भी चकमक पत्थर की बात की ।अँधेरे के खिलाफ साथ देने वाला पहला हथियार है ये ।वीर रस की ये कविता ललकारती है पुकारती है और साहस जगाती है ।चट्टान पर मानों कोंपल उग आई हो ।अपने छोटे से वजूद को विशालता में परिवर्तित करने की शक्ति का आह्वान करती है । " ओ ! मन के चकमक पत्थर ..,जागो " कह कर मञ्जूषा आत्म बल की शक्ति को उजागर करती है ।
सहज भाषा इतनी की बच्चा भी समझ जाए ।कहीं कोई दुविधा नही, सीधी बात की मञ्जूषा ने ।
बधाई मञ्जूषा ..
प्रवेश की कविता पढ़ कर एक गजल की पंक्तियाँ याद आ गई ..'सुर्खरू होता है इंसान ठोकरे खाने के बाद , रंग लाती है हिना पत्थर पे पीस जाने के बाद '
संधर्ष ही इंसान को शक्ति देता है ।अन्याय ही विरोध का स्वर मुखर करता है ।
प्रवेश की आशावादी कविता उसकी मेहनत और लगन को दर्शा रही है ।आत्मा की आवाज़ होती है कविता और शब्द जिजीविषा । मन के उजाले को जो पायेगा उसका सारा अन्धकार मिट जाएगा ।
कविता की शुरुआत बहुत अच्छी है ।बचपन से शुरू होकर आज तक की बात करती है ।अन्धेरा होगा तभी तो रौशनी की चाह होगी ।जीवन का सन्देश करती बढ़िया कविता के लिए बधाई प्रवेश ।
आरती ने अन्धकार को जरूरी बताया ।
जीवन का फलसफा सुख और दुःख का मिश्रण है ..पूरक है अँधेरे उजाले की तरह ।जीवन को पूर्णतः स्वीकारोक्ति आरती को सहज बनाती है ।प्रतीक और विम्ब का प्रयोग बढ़िया किया ...अंतिम पंक्तियों में पूरी कविता का मन मुखरित होता है ।कविता की गम्भीरता प्रभावित करती है ।बधाई आरती ।
राखी की कविता अँधेरे की सार्थकता बयान करती है ।'खुद से मिलना सुहाता है ' कह कर खुद को उसी तरह स्वीकार करती हैं जैसी वो हैं ।खुद से प्यार और स्वीकारोक्ति जीवन जीने की कला है ।
छोटी सी कविता में बड़ी सी बात ।बधाई ।
ब्रज जी अपनी बात भय से शुरू करते है जो अन्धकार से उपजा है ।नदी आशा है पर किनारे की रेत निराशा है बस उसे पार करने की बात है ...नदी को पाने रेत को पार करना ही होगा ।
अंतिम पंक्तियों में मूल बात पर आते है ।अन्धेरा उजाले से अलग नही ..उसकी जरूरत है । अंधकार ही रौशनी देगा ।यानी अँधेरे के कारण ही रौशनी का निर्माण हुआ और हम रौशनी के बिना रहने की सोच भी नहीं पाते ।
बहुत बढ़िया ब्रज जी ।बधाई ।
सभी कविताओं में अँधेरे की सार्थकता की बात आई है किसी न किसी रूप में ।ये सत्य स्वीकाने का साहस है ।बधाई सभी को ।
आभार ब्रज जी ।
मैं आप सबकी कविताओँ की तह में जा पाई या नही या सही कह पाई या नही मैं नही जानती ।आप सब बताये मैं कितनी सफल हुई ।
धन्यवाद और आभार ब्रज जी ।
प्रयुक्त फ़ोटो ,सोजन्य से श्री शरद कोकास
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सुंदर प्रयोग।
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