क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
.
जोश मलीहाबादी ने क़दमों की आज़माइश की बात कही है वहीं मुक्तिबोध ने भी क़दमों के सामने आ खड़ी चुनौतियों को अपनी पंक्तियों में उठाया है। वो कहते हैं:
मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए!!
कविता लिखो की यात्रा में एक पग और धरते हैं। आइए आज क़दम/पग पर कविता लिखते हैं।
अपर्णा अनेकवर्णा
साहित्य की बात समूह में कविता की कार्यशाला के अंतर्गत आज कदम शब्द पर बिखरे कविताओं के कई नए स्वर |सृजन में अभिव्यक्त हुई नए व् स्थापित कवियों की कदम दर कदम नई कविताएं |यह भी एक एतिहासिक कदम है की यूँ लिखी जा रही है कविताएं |
1...
ढाई कदम की
इस दुनिया में
दो कदम दूर
हो तुम
एक कदम तुम चलो
एक कदम मैं चलूं
तो दुनिया हमारे कदमों के नीचे हो..?
संजीव जैन
============================
2.....“कदम”
कदम दर कदम
आगे बढ़ते चले गए तुम
मेरी एहसासों की किरचें झाड़ते हुए
एक बार
काश! एक बार तो पीछे मुड़कर देखा होता
तो मैं शायद
तुम्हारे क़दमों के निशाँ
न ढूंढ रही होती
कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा
घर की देहरी पर,
आँगन में,
सड़कों, गलियों, चौराहों पर
मगर वक़्त की रफ़्तार ने
मिटा दिया था उसे
रह गई थी तो तुम्हारी यादें शेष
काश!
जाते-जाते तुम अपने क़दमों के निशाँ छोड़ जाते
तो जड़ लेती मैं उसे
अपने एहसासों के फ्रेम में
और ताका करती
यूँ धरती न खुरचती
यूँ वीराँ न भटकती
तुम्हारे लिए कदम दर कदम |
शकुंतला तरार
=================================
3.....चाँद और झील
||||||||||||||||||
मन से क़रीब है
पर क़दमों का फासला बना रहा
झील और चाँद में ....
फिसलते समय की देहरी को पार कर
कब आ पाये क़रीब ....?
कोई किवाड़ नही
फिर भी बंध जाता है जीवन
खुले हुए हैं रास्ते
चल नही पाते उन पर .....
पता नही कौन बांधता
क्यों बंध जाता कोई
झील, नही बन पाती नदी
दायरे से बाहर होते ही
फिर कस दिए जाते मुहाने
चाँद का अक्स तैरता रात भर
झील में
पर सूरज बन्धन सा फ़ैल जाता
अपना रंग लिए ..
यही तो हुआ
अब भी यही तो होगा
झील के हिस्से में सिर्फ
परछाई है चाँद की
मिलन की आस लिए .....
. |||| मधु सक्सेना ||||
======================================
४.....क़दम
***
क़दम उठते नहीं जंजीर सी
झंकार करती है
ये पायल पाँव की बेड़ी बनी
इंकार करती है
बहुत मुश्किल है अपनी राह चुनना और बढ़ जाना
कहाँ दुनिया किसी की हर खुशी स्वीकार करती है !!
मीना.
=========================================
5.....||कदम पड़ने लगे हैं ||
आखिरी दिन इस तरह आएगा
उसे बर्दाश्त करना
ना काबिले बर्दाश्त होगा
प्रलय सा आएगा
आएगा पहले भूकंप,
बाढ़ आएगी, या
पहले सूरज छोड़ेगा
आग की मिसाइलें
कदमपड़ने लगे हैं यहां
उन घटनाओं के अब
जो दो प्रेमियों को जुदा करने के लिए आया करती हैं
खुद को मिटते हुए पूरी तरह देखने का दिन होगा वह
अपना बयान देने का समय भी
भीड़ की बात न मानने की एवज़ में
हमें सुनाई गई सजा होगी यह
ब्रज श्रीवास्तव
===============================================
6........तुम चलती हो तो
साथ तुम्हारे मेरी निगाहें चलती हैं,
साया बन कर,
निगहबां बन कर,
मीत बन कर,
सहारा बन कर,
सांसे बनकर,
धड़कने बन कर,
तुम चलती हो तो
अकेली कहाँ चलती हो।
तुम चलती हो
तो एक कारवां चलता है।
- संतोष तिवारी
=============================================
7......क़दम
.
लो एक क़दम आगे
ले लो अब दो पीछे
यह ही तय पायी गयी है
सबसे मुफ़ीद चाल तुम्हारी
यूँ भरम बना रहेगा
कि चल रहे हो
और बड़े ही आराम से
तुम कभी भी
कहीं नहीं पहुंचोगे..
तुम्हारी सहूलियतें, ज़िंदाबाद!
...............................
अनेकवर्णा
==============================================
8.......कुछ कदम
देखो मैं तो बीन लाई हूँ किरचे
उस टूटे आइने के
जो झेल न सका
हमारे शब्दों के प्रहार
और हो गया चूर -चूर
क्या ! शक है तुम्हें ?
देखो मेरी लहुलुहान उंगलियों की ओर
ये जख्म दिये हैं
उसी टूटे आइने की किरचों ने
जिन्हें सहेजा मैंने बरसों
किंतु नहीं है पीङा
है यकीन
भर जायेंगे जख्म, गर
लगा दो तुम मरहम
उस विश्वास का
जो शायद रह गया शून्य मात्र
हम दोनों के बीच
और टूट गया वह आईना
जिसमें नज़र आते थे तुम और हम
साथ-साथ
आओ न
कुछ कदम चलते हैं हम
फिर से साथ
शायद तुम्हारी भी एक कोशिश
जोङ दे उन टूटी किरचों को
जो भर लाई हूँ मैं
अपने आस के दामन में
और ले-ले फिर नयी आकृति
वह आईना
जिसमें हों तुम और मैं
साथ-साथ
रोचिका शर्मा , चेनै
================================================
9.....क़दम
बढ़ते रहे हम
सधे क़दमों से
मिलती रहीं मंजिलें
मुकाम नहीं आसान
कि झुक आए आसमान
सजा दे तारे आँचल में
खुशनसीबी
मिलते रहें हम कदम
हर मोड़ पर
जन्नत की चाहत
कब रही ....
बस एक ,फिर एक
उठता हुआ क़दम
ले आएगा पास और पास
क्षितिज
लगता है, मिल गया
आसमान जमीं से
तभी तो मौसम
बदल रहा है यहाँ
दो पल की
जन्नत लिए आँचल में ।।
मीना.
===========================================
10.....कमान संभाले मेरा सैनिक
कदम कदम बढ़ाए जा
कहकर
बढ़ाता हौसला
और हम सब लिए
नया हौसला
कूद पड़े
मैदान में ,खुशियाँ लिए
मुस्कुराहटों के
तीर लिए ।
मीना.
===========================================
11........
संस्कारों की दीवार,चरमराने लगी,
शालीनता के दरख़्त, गिराने लगी,
इज्जत शर्म से,जल मग्न हो गई,
मान,मर्यादा की धज्जियां,उड़ गईं,
अपने बच्चे ही स्वप्न में,डराने लगे,
छोटे बड़ों को,आँख दिखाने लगे,
दुल्हन बिन व्याहे,घर आने लगी,
बूढ़ी माँ वृद्धा आश्रम,जाने लगी,
आधुनिकता सब को,भाने लगी,
तब यह बात,समझ आने लगी,
कुटिल कलयुग ने,अपने कुत्सित,
कदमों के प्रहार से ,कर दिया कलुषित
और हमारे ह्रदय को बना दिया बज्र ,
रेखा दुबे
=============================================
12,,,, बचपन
हरगोविंद मैंथिल
=====================================================
13....कोई नहीं देखता
उसकी मजबूरियाँ
लोग समझते हैं
उसके पांव में जादू है
बजाते हैं तालियाँ
फेंककर अठन्नी -चवन्नी
एक - दो रुपिया
देखते तमाशे
न एक इंच इधर
न एक इंच उधर
कदम
दर
कदम
जिंदगी और मौत के
बीच झुलती है नटिनी
एवज में
जुटा पाती मात्र रूपए साठ ।
भावना सिन्हा।
=============================================
१४.....कदम
काँटों भरी थी राहें
नँगे पांव लिए थे हम..
सफर भी ज़रूरी था
आखिर जीना तो था ही...
खूब जुटाया साहस
मन को बार बार समझाया,
मंजिल का लालच देकर खूब बहलाया,
डांटा-डपटा, पुचकारा..
ये डरा बैठा था काँटों की चुभन से...
रात रात हिम्मत जुटाता
पर हर सुबह फिर घबरा जाता,
मेरी भी जिद थी
मंजिल पाने की,
कुछ कर दिखाने की,
दूर तक जाने की,
साहस चाहिए था मन को
बस पहले कदम के लिए
देर थी तो बस
पहला कदम उठाने की...
मैंने धकेल दिया मन को
इस जीवन की कंटीली राहों पर
अब बरबस चलना था
ये चला
जा पहुंचा अपनी मंजिल तक
उस एक पहले कदम के सहारे।
मंजूषा मन
==========================================
१५....
संकोच उगता है
चंपा का फूल बन
महकता है सिरहाने रात भर
दरख़्त पर बंधी हवा में
पत्तियां नींद में झूमती हैं
जाने किस तारे को लुभाने के लिए
कर गलबहियां ठिठोली करती हैं
एक कुत्ता जागता है सोता है
कभी उनींदा, मुंह को खोल
उकता कर पत्तियों की ठिठोली से
दो कदम आगे बढ़
एक सुर निकालता है
शायद उसी तारे को देख
वो सुर पत्तियों को बेसुरा
और उचटाने को काफी है
पत्तियों की ठिठोली एकाएक बन्द देख
कुत्ता दो कदम फिर पीछे जा
चंपा को निहार, लोट लगा
मुंह ज़मीं पर टिका,
आँख बंद कर लेता है
चंपा और तेज़ महकती है
... सुरेन ( 20 / 3 / 17 )
======================================
16.....दबे पाँव पँजों के बल
कल रात उलटे कदम चल
अतीत में देखा था मैंने तुम्हें
मेरी स्याह रात के कैनवास पर
इन्द्रधनुष की परिकल्पना कर
वाटर कलर से सात रंगों को भरते
कच्ची पेन्सिल से बनाये गए
वीरान रेगिस्तान के स्केचों में
वो तुम ही तो थे जो चुपके से
छोड़ आते थे उनमें मुँह अँधेरे
सफ़ेद खरगोश, लाल गाजरें पकड़े
बरसाती शाम को
खिड़की से सर टिका
रो रही थी जिस दिन मैं
अधूरे सपने को थामे
तुम नजर आये मुझे आसमां में
बिजलियों की सीढ़ियाँ चढ़ते
और झटका के अपनी तर्जनी
तोड़ा डाला था तुमने
मेरी मन्नत मुकम्मल करने वाला
वो चमचमाता तारा
भयावह सपने जो कर देते थे
तरबतर पसीने से अक्सर
आधी रात को मुझे
मैंने देखा है तुम्हें
चाँदनी को कागज में तान
और उसके हवाई जहाज को
मेरे सपनों में उड़ाते हुए
सर्द शामों को मेरे ठिठुरते कन्धों पे
ओढ़ाया था तुमने अपनी यादों का ब्लेज़र
वो अब चिथड़े-चिथड़े हो चुका है
बिखरे है जिसके टुकड़े यहाँ वहाँ
अतीत से वर्तमान के रास्ते पर
ठोकर से पाँवों में जन्मे जख्म
अब झाँकने लगे है मोजों से
छोटे छोटे छेद कर के
देख रहे है वो इसमें से
जीवन में फैले अन्धकार को
दो तारों को टकराकर
जलाते है फ़्लैशलाइट
इस रोशनी में भी पढ़ लेती हूँ
धुँधले पीले पन्ने वसीयत के
जो तुम मेरे नाम छोड़ गये हो
दो गज़ यादों की ज़मीं
मुट्ठी भर सपनों की राख
और कुछ किरचे टूटे वायदों केे..
-कोमल सोमरवाल
======================================
17.....मेरी कविता
****
उत्तराखण्ड की
खूबसूरत वादियां
जहाँ गुनगुनाती हैं
खामोशियाँ
हरे भरे पर्वतों के मध्य
बने हैं रहस्यमय पथ
जिन पर चले जा रहे हैं
हम अनवरत
कदम दर कदम रखते हुए
ये वही रास्ते हैं
जिन पर चलकर
पांडवों ने किया था
जीवन का अंतिम सफ़र
आदि गुरु शंकराचार्य के
पदचिह्न भी तो
यहीं हैं अंकित
जो स्वयं थे
शिव के साक्षात अवतार
आज भी गूंजती है
उनकी वेदांत दुन्दुभि की
झंकार
इसी पथ के
धूलकणों और
पत्थरों ने
चट्टानों और लताओं ने
इन सब के वार्तालाप के
आनन्द और क्लान्ति की
निश्वासों को
न सिर्फ़ सुना था
बल्कि जिया भी था
तभी इन पर चलते चलते
जय केदारनाथ
जय बद्री विशाल
कहने भर से
हो जाता है कायम
आत्मीयता का
एक अटूट रिश्ता
सफ़र की कड़ी धूप
भले ही हम पर करे आघात
या दिल दहला दे
घनघोर बरसात
पर यही जयघोष
इन दुर्गम रास्तों को
फतह करने का
बन जाता है संकल्प
और सहारा
और हमारा आसपास
देता है हमे एक
ऐसा विश्वास और
हमारे क़दमों को एक ताक़त
जिससे हमारे संस्कारों को
मिलती है नई ऊर्जा
आस्थाओं को मिलता है
एक मजबूत आधार
तभी होता है ये अहसास
की ऊँची नीची ढलानों
और उबड़ खाबड़ रास्तों से
गुजरने वाली ये यात्रा
लंबी हो या छोटी
पर अकेले होकर भी
हम नहीं होते हैं अकेले
कोई तो है
जो हर पल संभालता है हमे
दुलारता है और ले आता है
हमे अपने घर
तब लेते हैं हम सुखद विराम
हमारे इसी विश्वास
इसी शक्ति को
प्रणाम प्रणाम प्रणाम।
*दिनेश मिश्र
=======================================
१८.......गृहप्रवेश
मुझे याद है
गृहप्रवेश की रस्म में
कुमकुम
में डुबाकर
लिए गए थे
मेरे..
सात कदमों
के निशां….
गर्व से दीप्त
हो उठी थी
उस क्षण.…
बरसों बीत गए
कदमों में
मोटी बेड़ियाँ
लग गईं….
लेकिन,
गृहलक्ष्मी
होने का
एहसास…
अब भी
बन्द है
तुम्हारी
तिजोरी में..…
वर्षा…..
================================================
१९......मुहिम
एक नई मुहिम पर है
वो ,
बड़ी बड़ी गाड़ियां
आगे पीछे
हाथ में झाड़ू लिए
कैमरे के फ्लैश चमक रहे है
उनकी ही और
नारे भी गुंजित है
उनके नाम से
कुछ साथियों का हुजूम भी
हर समय साथ
सत्तासीन योग्य घोषित हुए है अब
छवि उनकी बनी है अभी अभी
स्वच्छ
क्या हुआँ जो पहले
कीच लिथड़ा था उनके कदमो से
अब तो तन और मन से
जुटे है वो
स्वच्छता अभियान में ।
प्रवेश सोनी
===========================================
20...........
मन की रेत पर
ये जो निशान बने हैं ताजे
कोई गुजरा है अभी
रेत से होकर
इंद्रधनुष उड़ा मन के आकाश में
लहरें पीछा करती लपकीं हमारी ओर
तो दूर तक बनते गए
स्मृतियों के सुंदर फूल
लौटते जल से डब-डबाए
कदमों के निशान
जैसे आंसू खिलखिलाती आँखों में
फिर गीली होने लगी है मिठ्ठी निशानों को भरने लगा है मीठा समुद्र।
ब्रजेश कानूनगो
======================================
21........कदमों में हैं...
खिल अनार कहा मैंने
जब एक सिंहासन ने सुनी
घुँघरू की आवाज़
जिसे आदत थी
ज़िल्ले इलाही, बादशाह-ए-हिंद सुनने की
वो नहीं झेल पाया एक कनीज़ की अदा
चट् से चटक गया उसका पहला पाया
वो चीन्हता था तलवारों की खनक
भाँप लेता था सारे षड्यंत्र
देख लेता था संधियों में छिपी टूट
रानियाँ जीत में मिली थाल थी
हारे हुए हाथियों की पीठ पर बैठ कर आती थी
और अपनी आँचल धर देती थी मूंठ पर
उनके जिम्मे था सत्ता के सीने पर उगे
बाल सहलाने का काम
एक दासी की पलकें सत्ता के सीने पर उगे
बालों से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली थी
और उसकी चुनरी उड़ने के लिए ज्यादा
स्वतंत्र थी रानियों के हिज़ाब से
ठुमरी लड़ी तलवारों से
कथक ने मात दी भालों को
ता था थैंया, ता था थैंया
भारी पड़ गया
आगे बढ़ो और अल्लाह हो अकबर के उद्घोष पर
अनारकली के अलाप में
ज्यादा इतिहास है तबकात-ए-अकबरी से
एक दीवार के भीतर से आते
इस अलाप को सुनो
दीने-ए-इलाही की क़ब्र
इस दीवार के क़दमों में है
अखिलेश
===========================================
22.....पहला क़दम
उबड़-खाबड़ काँटों भरे रास्ते
मीलों दूरियाँ
पहाड़ों की चोटियाँ
गहरी नदियाँ
विराट समुंदर
कुछ भी न रोकेगा तुम्हें
मुझ तक आने में
बस एक पहला क़दम उठाना होगा
पूरे मन से
जैसे उठाया था
घुटनों चलते हुए
अनायास ही एक दिन
काँपते हुए
रोमांच से भर
और जीत लिया था डर
जैसे आशिक उठाता है
महबूब की गली के लिए
बेसाख़्ता क़दम
जैसे दुल्हन आती है
आलता लगे पैरों से
कामनाओं की झाँझर बाँधे
दहलीज़ के भीतर
जैसे माँएँ चलती हैं
बच्चों की हर पुकार पर
फूलों पर ठहरी ओस में
मेरे आँसुओं की नमी
हवाओं में घुली
साँसों की रागिनी
सब तो बुला रहे हैं तुम्हें
फिर तुम क्यों नहीं उठाते-
पहला क़दम।
अनिता
==============================================
23...✍ख्वाब
अच्छा सुनो
एक एक कर खोलना
सारे तोहफ़े
सबसे पहले छोटे वाला
फिर उससे बड़ा
अच्छा सुनो
वो गोल सबसे अखीर में
तुम्हे कसम मेरी
सबसे छोटे में क्या निकला
अच्छा सुनो
तुम खुद ही बताते रहो
इत्ती देर
इतने में तो मैं सारे तोहफ़े खोल देती
बताओ न क्या निकला
बताओ न...
बताओ भी...
कुछ बोलो ...
कहाँ गए...
बस यही बात मुझे नहीं सुहाती मुझसे बात मत करियो
....
अचानक कदमों की आहट में टूट गई नींद
खाली बिस्तर पर थी किताब
उसमें कुछ सूखे फूल
हां...यह ख्वाब ही था
हां...यह ख्वाब ही रहा
✍ जतिन
===================================================
24....
धरती की कोख मे,
हुई आहट ,
उस वक्त .............,
होलै से ममता नेे दी किवाड़ पर दस्तक
नव सृजन ने रूप धरा,
नौ माह की यात्रा कर
इठलाये आँचल तले नन्हे कदम
पल पल सुख संघर्ष के साक्षी रहे कदम.........,
पर ये क्या?
विधाता ने लिखा भाग्य कुछ और
काल का कहर टूटेगा
असमय चारो और
छूटा साथ बिसूरती रही धरा
पर........
बचाई उम्मीद की नमी
और
स्मृतियों में सहेजे चेहरें में
पा लिया सूरज का उजास
राखी तिवारी
=======================================
सुबह
आज एक असीम सुखद अहसास
की अनुभूति हो रही थी उसे ।
पहले भी जंगले में से छनकर
आती हुई स्वच्छ
वायु से साँस लेती थी वह
मगर खुले आसमान में बहती
त्रिविध वयार में साँस लेने की
बात ही कुछ और थी ।
उसे इससे पहले भी
नरम - नरम घास और पत्तियाँ
मिलती थी खाने को
चहारदीवारी के भीतर
लेकिन, स्वयं तोड़कर खाना
घास - पत्तियाँ
देता था
अपना एक अलग ही आनंद
इस सुखद अहसास में
पता ही नहीं चला
शाम होने का
जब लौटने लगे
दूसरे पशु पक्षी
अपने -अपने बसेरों में
तब तय किया उसने
पीछे न हटाने का
अपने बढ़े हुए कदम
यद्यपि
इधर वापस बुला रही थी
अब्बू की बिगुल और
सीटी की आवाज
और उधर अँधेरे में सामने ही
दिखाई दे रहा था भेड़िया
अपने लाल -लाल होंठो पर फेरते हुए
नीली -नीली जीभ
फंसा हुआ देखकर शिकार
रात गहरा चुकी थी और
वापस लौट चुके थे
अब्बू होकर निराश
लेकिन ,भेड़िया अब
तैयार हो चुका था पूरी तरह
हमले के लिए अपने शिकार पर
यह अच्छी तरह जानते हुए भी
कि अभी तक कोई बकरी
जीत नहीं सकी किसी भेड़िये से
लेकिन,
यह मुकाबला जरूरी है सोचकर
पैंतरा बदलते हुए उसने अचानक
हमला बोल दिया अपने
दुश्मन पर ।
चकरा गया भेड़िया
अचानक हुए इस हमले से
बावजूद अपना पूरा जोर लगाकर
करते हुए मुकाबला रात भर
जब उसे लगने लगा मुश्किल पार पाना
बकरी से तब
वह भाग खड़ा हुआ छोड़कर मैदान
देखकर बकरी के बुलंद हौसले
पास ही पेड़ पर बैठी
एक चिड़िया ,जो
देख रही थी रात भर से
इस पूरी लड़ाई को
बोली अब सुबह होने वाली है
तब कलरव करने लगी
मिलकर सभी चिड़ये खुशी से
मानो गा कर यशोगान
मना रहीं हों जश्न
बकरी के इस अदम्य साहस का ।।
हरगोविंद मैंथिल
============================================
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
.
जोश मलीहाबादी ने क़दमों की आज़माइश की बात कही है वहीं मुक्तिबोध ने भी क़दमों के सामने आ खड़ी चुनौतियों को अपनी पंक्तियों में उठाया है। वो कहते हैं:
मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए!!
कविता लिखो की यात्रा में एक पग और धरते हैं। आइए आज क़दम/पग पर कविता लिखते हैं।
अपर्णा अनेकवर्णा
साहित्य की बात समूह में कविता की कार्यशाला के अंतर्गत आज कदम शब्द पर बिखरे कविताओं के कई नए स्वर |सृजन में अभिव्यक्त हुई नए व् स्थापित कवियों की कदम दर कदम नई कविताएं |यह भी एक एतिहासिक कदम है की यूँ लिखी जा रही है कविताएं |
1...
ढाई कदम की
इस दुनिया में
दो कदम दूर
हो तुम
एक कदम तुम चलो
एक कदम मैं चलूं
तो दुनिया हमारे कदमों के नीचे हो..?
संजीव जैन
============================
2.....“कदम”
कदम दर कदम
आगे बढ़ते चले गए तुम
मेरी एहसासों की किरचें झाड़ते हुए
एक बार
काश! एक बार तो पीछे मुड़कर देखा होता
तो मैं शायद
तुम्हारे क़दमों के निशाँ
न ढूंढ रही होती
कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा
घर की देहरी पर,
आँगन में,
सड़कों, गलियों, चौराहों पर
मगर वक़्त की रफ़्तार ने
मिटा दिया था उसे
रह गई थी तो तुम्हारी यादें शेष
काश!
जाते-जाते तुम अपने क़दमों के निशाँ छोड़ जाते
तो जड़ लेती मैं उसे
अपने एहसासों के फ्रेम में
और ताका करती
यूँ धरती न खुरचती
यूँ वीराँ न भटकती
तुम्हारे लिए कदम दर कदम |
शकुंतला तरार
=================================
3.....चाँद और झील
||||||||||||||||||
मन से क़रीब है
पर क़दमों का फासला बना रहा
झील और चाँद में ....
फिसलते समय की देहरी को पार कर
कब आ पाये क़रीब ....?
कोई किवाड़ नही
फिर भी बंध जाता है जीवन
खुले हुए हैं रास्ते
चल नही पाते उन पर .....
पता नही कौन बांधता
क्यों बंध जाता कोई
झील, नही बन पाती नदी
दायरे से बाहर होते ही
फिर कस दिए जाते मुहाने
चाँद का अक्स तैरता रात भर
झील में
पर सूरज बन्धन सा फ़ैल जाता
अपना रंग लिए ..
यही तो हुआ
अब भी यही तो होगा
झील के हिस्से में सिर्फ
परछाई है चाँद की
मिलन की आस लिए .....
. |||| मधु सक्सेना ||||
======================================
४.....क़दम
***
क़दम उठते नहीं जंजीर सी
झंकार करती है
ये पायल पाँव की बेड़ी बनी
इंकार करती है
बहुत मुश्किल है अपनी राह चुनना और बढ़ जाना
कहाँ दुनिया किसी की हर खुशी स्वीकार करती है !!
मीना.
=========================================
5.....||कदम पड़ने लगे हैं ||
आखिरी दिन इस तरह आएगा
उसे बर्दाश्त करना
ना काबिले बर्दाश्त होगा
प्रलय सा आएगा
आएगा पहले भूकंप,
बाढ़ आएगी, या
पहले सूरज छोड़ेगा
आग की मिसाइलें
कदमपड़ने लगे हैं यहां
उन घटनाओं के अब
जो दो प्रेमियों को जुदा करने के लिए आया करती हैं
खुद को मिटते हुए पूरी तरह देखने का दिन होगा वह
अपना बयान देने का समय भी
भीड़ की बात न मानने की एवज़ में
हमें सुनाई गई सजा होगी यह
ब्रज श्रीवास्तव
===============================================
6........तुम चलती हो तो
साथ तुम्हारे मेरी निगाहें चलती हैं,
साया बन कर,
निगहबां बन कर,
मीत बन कर,
सहारा बन कर,
सांसे बनकर,
धड़कने बन कर,
तुम चलती हो तो
अकेली कहाँ चलती हो।
तुम चलती हो
तो एक कारवां चलता है।
- संतोष तिवारी
=============================================
7......क़दम
.
लो एक क़दम आगे
ले लो अब दो पीछे
यह ही तय पायी गयी है
सबसे मुफ़ीद चाल तुम्हारी
यूँ भरम बना रहेगा
कि चल रहे हो
और बड़े ही आराम से
तुम कभी भी
कहीं नहीं पहुंचोगे..
तुम्हारी सहूलियतें, ज़िंदाबाद!
...............................
अनेकवर्णा
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8.......कुछ कदम
देखो मैं तो बीन लाई हूँ किरचे
उस टूटे आइने के
जो झेल न सका
हमारे शब्दों के प्रहार
और हो गया चूर -चूर
क्या ! शक है तुम्हें ?
देखो मेरी लहुलुहान उंगलियों की ओर
ये जख्म दिये हैं
उसी टूटे आइने की किरचों ने
जिन्हें सहेजा मैंने बरसों
किंतु नहीं है पीङा
है यकीन
भर जायेंगे जख्म, गर
लगा दो तुम मरहम
उस विश्वास का
जो शायद रह गया शून्य मात्र
हम दोनों के बीच
और टूट गया वह आईना
जिसमें नज़र आते थे तुम और हम
साथ-साथ
आओ न
कुछ कदम चलते हैं हम
फिर से साथ
शायद तुम्हारी भी एक कोशिश
जोङ दे उन टूटी किरचों को
जो भर लाई हूँ मैं
अपने आस के दामन में
और ले-ले फिर नयी आकृति
वह आईना
जिसमें हों तुम और मैं
साथ-साथ
रोचिका शर्मा , चेनै
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9.....क़दम
बढ़ते रहे हम
सधे क़दमों से
मिलती रहीं मंजिलें
मुकाम नहीं आसान
कि झुक आए आसमान
सजा दे तारे आँचल में
खुशनसीबी
मिलते रहें हम कदम
हर मोड़ पर
जन्नत की चाहत
कब रही ....
बस एक ,फिर एक
उठता हुआ क़दम
ले आएगा पास और पास
क्षितिज
लगता है, मिल गया
आसमान जमीं से
तभी तो मौसम
बदल रहा है यहाँ
दो पल की
जन्नत लिए आँचल में ।।
मीना.
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10.....कमान संभाले मेरा सैनिक
कदम कदम बढ़ाए जा
कहकर
बढ़ाता हौसला
और हम सब लिए
नया हौसला
कूद पड़े
मैदान में ,खुशियाँ लिए
मुस्कुराहटों के
तीर लिए ।
मीना.
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11........
संस्कारों की दीवार,चरमराने लगी,
शालीनता के दरख़्त, गिराने लगी,
इज्जत शर्म से,जल मग्न हो गई,
मान,मर्यादा की धज्जियां,उड़ गईं,
अपने बच्चे ही स्वप्न में,डराने लगे,
छोटे बड़ों को,आँख दिखाने लगे,
दुल्हन बिन व्याहे,घर आने लगी,
बूढ़ी माँ वृद्धा आश्रम,जाने लगी,
आधुनिकता सब को,भाने लगी,
तब यह बात,समझ आने लगी,
कुटिल कलयुग ने,अपने कुत्सित,
कदमों के प्रहार से ,कर दिया कलुषित
और हमारे ह्रदय को बना दिया बज्र ,
रेखा दुबे
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12,,,, बचपन
जब पहली बार
अपने पिता की उंगली पकड़कर
चला था चंद कदम
तब जैसे नाप ही ली थी
मैंने पृथ्वी की दूरी
पृथ्वी अब भी वही है
लेकिन ,
जितना चलता हूँ आगे
बढ़ते जाते है फासले ......
थक ही जाते हैकदम
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13....कोई नहीं देखता
उसकी मजबूरियाँ
लोग समझते हैं
उसके पांव में जादू है
बजाते हैं तालियाँ
फेंककर अठन्नी -चवन्नी
एक - दो रुपिया
देखते तमाशे
न एक इंच इधर
न एक इंच उधर
कदम
दर
कदम
जिंदगी और मौत के
बीच झुलती है नटिनी
एवज में
जुटा पाती मात्र रूपए साठ ।
भावना सिन्हा।
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१४.....कदम
काँटों भरी थी राहें
नँगे पांव लिए थे हम..
सफर भी ज़रूरी था
आखिर जीना तो था ही...
खूब जुटाया साहस
मन को बार बार समझाया,
मंजिल का लालच देकर खूब बहलाया,
डांटा-डपटा, पुचकारा..
ये डरा बैठा था काँटों की चुभन से...
रात रात हिम्मत जुटाता
पर हर सुबह फिर घबरा जाता,
मेरी भी जिद थी
मंजिल पाने की,
कुछ कर दिखाने की,
दूर तक जाने की,
साहस चाहिए था मन को
बस पहले कदम के लिए
देर थी तो बस
पहला कदम उठाने की...
मैंने धकेल दिया मन को
इस जीवन की कंटीली राहों पर
अब बरबस चलना था
ये चला
जा पहुंचा अपनी मंजिल तक
उस एक पहले कदम के सहारे।
मंजूषा मन
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१५....
संकोच उगता है
चंपा का फूल बन
महकता है सिरहाने रात भर
दरख़्त पर बंधी हवा में
पत्तियां नींद में झूमती हैं
जाने किस तारे को लुभाने के लिए
कर गलबहियां ठिठोली करती हैं
एक कुत्ता जागता है सोता है
कभी उनींदा, मुंह को खोल
उकता कर पत्तियों की ठिठोली से
दो कदम आगे बढ़
एक सुर निकालता है
शायद उसी तारे को देख
वो सुर पत्तियों को बेसुरा
और उचटाने को काफी है
पत्तियों की ठिठोली एकाएक बन्द देख
कुत्ता दो कदम फिर पीछे जा
चंपा को निहार, लोट लगा
मुंह ज़मीं पर टिका,
आँख बंद कर लेता है
चंपा और तेज़ महकती है
... सुरेन ( 20 / 3 / 17 )
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16.....दबे पाँव पँजों के बल
कल रात उलटे कदम चल
अतीत में देखा था मैंने तुम्हें
मेरी स्याह रात के कैनवास पर
इन्द्रधनुष की परिकल्पना कर
वाटर कलर से सात रंगों को भरते
कच्ची पेन्सिल से बनाये गए
वीरान रेगिस्तान के स्केचों में
वो तुम ही तो थे जो चुपके से
छोड़ आते थे उनमें मुँह अँधेरे
सफ़ेद खरगोश, लाल गाजरें पकड़े
बरसाती शाम को
खिड़की से सर टिका
रो रही थी जिस दिन मैं
अधूरे सपने को थामे
तुम नजर आये मुझे आसमां में
बिजलियों की सीढ़ियाँ चढ़ते
और झटका के अपनी तर्जनी
तोड़ा डाला था तुमने
मेरी मन्नत मुकम्मल करने वाला
वो चमचमाता तारा
भयावह सपने जो कर देते थे
तरबतर पसीने से अक्सर
आधी रात को मुझे
मैंने देखा है तुम्हें
चाँदनी को कागज में तान
और उसके हवाई जहाज को
मेरे सपनों में उड़ाते हुए
सर्द शामों को मेरे ठिठुरते कन्धों पे
ओढ़ाया था तुमने अपनी यादों का ब्लेज़र
वो अब चिथड़े-चिथड़े हो चुका है
बिखरे है जिसके टुकड़े यहाँ वहाँ
अतीत से वर्तमान के रास्ते पर
ठोकर से पाँवों में जन्मे जख्म
अब झाँकने लगे है मोजों से
छोटे छोटे छेद कर के
देख रहे है वो इसमें से
जीवन में फैले अन्धकार को
दो तारों को टकराकर
जलाते है फ़्लैशलाइट
इस रोशनी में भी पढ़ लेती हूँ
धुँधले पीले पन्ने वसीयत के
जो तुम मेरे नाम छोड़ गये हो
दो गज़ यादों की ज़मीं
मुट्ठी भर सपनों की राख
और कुछ किरचे टूटे वायदों केे..
-कोमल सोमरवाल
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17.....मेरी कविता
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उत्तराखण्ड की
खूबसूरत वादियां
जहाँ गुनगुनाती हैं
खामोशियाँ
हरे भरे पर्वतों के मध्य
बने हैं रहस्यमय पथ
जिन पर चले जा रहे हैं
हम अनवरत
कदम दर कदम रखते हुए
ये वही रास्ते हैं
जिन पर चलकर
पांडवों ने किया था
जीवन का अंतिम सफ़र
आदि गुरु शंकराचार्य के
पदचिह्न भी तो
यहीं हैं अंकित
जो स्वयं थे
शिव के साक्षात अवतार
आज भी गूंजती है
उनकी वेदांत दुन्दुभि की
झंकार
इसी पथ के
धूलकणों और
पत्थरों ने
चट्टानों और लताओं ने
इन सब के वार्तालाप के
आनन्द और क्लान्ति की
निश्वासों को
न सिर्फ़ सुना था
बल्कि जिया भी था
तभी इन पर चलते चलते
जय केदारनाथ
जय बद्री विशाल
कहने भर से
हो जाता है कायम
आत्मीयता का
एक अटूट रिश्ता
सफ़र की कड़ी धूप
भले ही हम पर करे आघात
या दिल दहला दे
घनघोर बरसात
पर यही जयघोष
इन दुर्गम रास्तों को
फतह करने का
बन जाता है संकल्प
और सहारा
और हमारा आसपास
देता है हमे एक
ऐसा विश्वास और
हमारे क़दमों को एक ताक़त
जिससे हमारे संस्कारों को
मिलती है नई ऊर्जा
आस्थाओं को मिलता है
एक मजबूत आधार
तभी होता है ये अहसास
की ऊँची नीची ढलानों
और उबड़ खाबड़ रास्तों से
गुजरने वाली ये यात्रा
लंबी हो या छोटी
पर अकेले होकर भी
हम नहीं होते हैं अकेले
कोई तो है
जो हर पल संभालता है हमे
दुलारता है और ले आता है
हमे अपने घर
तब लेते हैं हम सुखद विराम
हमारे इसी विश्वास
इसी शक्ति को
प्रणाम प्रणाम प्रणाम।
*दिनेश मिश्र
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१८.......गृहप्रवेश
मुझे याद है
गृहप्रवेश की रस्म में
कुमकुम
में डुबाकर
लिए गए थे
मेरे..
सात कदमों
के निशां….
गर्व से दीप्त
हो उठी थी
उस क्षण.…
बरसों बीत गए
कदमों में
मोटी बेड़ियाँ
लग गईं….
लेकिन,
गृहलक्ष्मी
होने का
एहसास…
अब भी
बन्द है
तुम्हारी
तिजोरी में..…
वर्षा…..
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१९......मुहिम
एक नई मुहिम पर है
वो ,
बड़ी बड़ी गाड़ियां
आगे पीछे
हाथ में झाड़ू लिए
कैमरे के फ्लैश चमक रहे है
उनकी ही और
नारे भी गुंजित है
उनके नाम से
कुछ साथियों का हुजूम भी
हर समय साथ
सत्तासीन योग्य घोषित हुए है अब
छवि उनकी बनी है अभी अभी
स्वच्छ
क्या हुआँ जो पहले
कीच लिथड़ा था उनके कदमो से
अब तो तन और मन से
जुटे है वो
स्वच्छता अभियान में ।
प्रवेश सोनी
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20...........
मन की रेत पर
ये जो निशान बने हैं ताजे
कोई गुजरा है अभी
रेत से होकर
इंद्रधनुष उड़ा मन के आकाश में
लहरें पीछा करती लपकीं हमारी ओर
तो दूर तक बनते गए
स्मृतियों के सुंदर फूल
लौटते जल से डब-डबाए
कदमों के निशान
जैसे आंसू खिलखिलाती आँखों में
फिर गीली होने लगी है मिठ्ठी निशानों को भरने लगा है मीठा समुद्र।
ब्रजेश कानूनगो
21........कदमों में हैं...
खिल अनार कहा मैंने
जब एक सिंहासन ने सुनी
घुँघरू की आवाज़
जिसे आदत थी
ज़िल्ले इलाही, बादशाह-ए-हिंद सुनने की
वो नहीं झेल पाया एक कनीज़ की अदा
चट् से चटक गया उसका पहला पाया
वो चीन्हता था तलवारों की खनक
भाँप लेता था सारे षड्यंत्र
देख लेता था संधियों में छिपी टूट
रानियाँ जीत में मिली थाल थी
हारे हुए हाथियों की पीठ पर बैठ कर आती थी
और अपनी आँचल धर देती थी मूंठ पर
उनके जिम्मे था सत्ता के सीने पर उगे
बाल सहलाने का काम
एक दासी की पलकें सत्ता के सीने पर उगे
बालों से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली थी
और उसकी चुनरी उड़ने के लिए ज्यादा
स्वतंत्र थी रानियों के हिज़ाब से
ठुमरी लड़ी तलवारों से
कथक ने मात दी भालों को
ता था थैंया, ता था थैंया
भारी पड़ गया
आगे बढ़ो और अल्लाह हो अकबर के उद्घोष पर
अनारकली के अलाप में
ज्यादा इतिहास है तबकात-ए-अकबरी से
एक दीवार के भीतर से आते
इस अलाप को सुनो
दीने-ए-इलाही की क़ब्र
इस दीवार के क़दमों में है
अखिलेश
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22.....पहला क़दम
उबड़-खाबड़ काँटों भरे रास्ते
मीलों दूरियाँ
पहाड़ों की चोटियाँ
गहरी नदियाँ
विराट समुंदर
कुछ भी न रोकेगा तुम्हें
मुझ तक आने में
बस एक पहला क़दम उठाना होगा
पूरे मन से
जैसे उठाया था
घुटनों चलते हुए
अनायास ही एक दिन
काँपते हुए
रोमांच से भर
और जीत लिया था डर
जैसे आशिक उठाता है
महबूब की गली के लिए
बेसाख़्ता क़दम
जैसे दुल्हन आती है
आलता लगे पैरों से
कामनाओं की झाँझर बाँधे
दहलीज़ के भीतर
जैसे माँएँ चलती हैं
बच्चों की हर पुकार पर
फूलों पर ठहरी ओस में
मेरे आँसुओं की नमी
हवाओं में घुली
साँसों की रागिनी
सब तो बुला रहे हैं तुम्हें
फिर तुम क्यों नहीं उठाते-
पहला क़दम।
अनिता
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23...✍ख्वाब
अच्छा सुनो
एक एक कर खोलना
सारे तोहफ़े
सबसे पहले छोटे वाला
फिर उससे बड़ा
अच्छा सुनो
वो गोल सबसे अखीर में
तुम्हे कसम मेरी
सबसे छोटे में क्या निकला
अच्छा सुनो
तुम खुद ही बताते रहो
इत्ती देर
इतने में तो मैं सारे तोहफ़े खोल देती
बताओ न क्या निकला
बताओ न...
बताओ भी...
कुछ बोलो ...
कहाँ गए...
बस यही बात मुझे नहीं सुहाती मुझसे बात मत करियो
....
अचानक कदमों की आहट में टूट गई नींद
खाली बिस्तर पर थी किताब
उसमें कुछ सूखे फूल
हां...यह ख्वाब ही था
हां...यह ख्वाब ही रहा
✍ जतिन
===================================================
24....
धरती की कोख मे,
हुई आहट ,
उस वक्त .............,
होलै से ममता नेे दी किवाड़ पर दस्तक
नव सृजन ने रूप धरा,
नौ माह की यात्रा कर
इठलाये आँचल तले नन्हे कदम
पल पल सुख संघर्ष के साक्षी रहे कदम.........,
पर ये क्या?
विधाता ने लिखा भाग्य कुछ और
काल का कहर टूटेगा
असमय चारो और
छूटा साथ बिसूरती रही धरा
पर........
बचाई उम्मीद की नमी
और
स्मृतियों में सहेजे चेहरें में
पा लिया सूरज का उजास
राखी तिवारी
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सुबह
आज एक असीम सुखद अहसास
की अनुभूति हो रही थी उसे ।
पहले भी जंगले में से छनकर
आती हुई स्वच्छ
वायु से साँस लेती थी वह
मगर खुले आसमान में बहती
त्रिविध वयार में साँस लेने की
बात ही कुछ और थी ।
उसे इससे पहले भी
नरम - नरम घास और पत्तियाँ
मिलती थी खाने को
चहारदीवारी के भीतर
लेकिन, स्वयं तोड़कर खाना
घास - पत्तियाँ
देता था
अपना एक अलग ही आनंद
इस सुखद अहसास में
पता ही नहीं चला
शाम होने का
जब लौटने लगे
दूसरे पशु पक्षी
अपने -अपने बसेरों में
तब तय किया उसने
पीछे न हटाने का
अपने बढ़े हुए कदम
यद्यपि
इधर वापस बुला रही थी
अब्बू की बिगुल और
सीटी की आवाज
और उधर अँधेरे में सामने ही
दिखाई दे रहा था भेड़िया
अपने लाल -लाल होंठो पर फेरते हुए
नीली -नीली जीभ
फंसा हुआ देखकर शिकार
रात गहरा चुकी थी और
वापस लौट चुके थे
अब्बू होकर निराश
लेकिन ,भेड़िया अब
तैयार हो चुका था पूरी तरह
हमले के लिए अपने शिकार पर
यह अच्छी तरह जानते हुए भी
कि अभी तक कोई बकरी
जीत नहीं सकी किसी भेड़िये से
लेकिन,
यह मुकाबला जरूरी है सोचकर
पैंतरा बदलते हुए उसने अचानक
हमला बोल दिया अपने
दुश्मन पर ।
चकरा गया भेड़िया
अचानक हुए इस हमले से
बावजूद अपना पूरा जोर लगाकर
करते हुए मुकाबला रात भर
जब उसे लगने लगा मुश्किल पार पाना
बकरी से तब
वह भाग खड़ा हुआ छोड़कर मैदान
देखकर बकरी के बुलंद हौसले
पास ही पेड़ पर बैठी
एक चिड़िया ,जो
देख रही थी रात भर से
इस पूरी लड़ाई को
बोली अब सुबह होने वाली है
तब कलरव करने लगी
मिलकर सभी चिड़ये खुशी से
मानो गा कर यशोगान
मना रहीं हों जश्न
बकरी के इस अदम्य साहस का ।।
हरगोविंद मैंथिल
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कदम एक काव्यात्मक शब्द है, यही वजह है कि हमारे साकीबा के कवि सदस्यों ने लरज के कुछ नया सिरजा, दरअसल एक शब्द अपने साथ कल्पनाओं का लाबो लश्कर ले कर चलता है मगर यह तभी संभव है जब हमारा कवि मन जाग रहा हो, यहां पेश किया गया यह वितान देखा जाय तो कई अलग अलग काव्य बिम्बों को सहेजता हुआ एक ही विराट को नुमायां करता है, इस स्तंभ की यही विशेषता है |अपर्णा अनेकवर्णा के साथ अनेक कवि साथी अपने हिस्से का सृजन यहां समर्पित करते हैं और इस खुशबू को दूर तक ले जाने में ब्लागर प्रवेश सोनी की भी विनम्र कोशिश है....
ReplyDeleteधन्यवाद ब्रज जी
Deleteकदम एक काव्यात्मक शब्द है, यही वजह है कि हमारे साकीबा के कवि सदस्यों ने लरज के कुछ नया सिरजा, दरअसल एक शब्द अपने साथ कल्पनाओं का लाबो लश्कर ले कर चलता है मगर यह तभी संभव है जब हमारा कवि मन जाग रहा हो, यहां पेश किया गया यह वितान देखा जाय तो कई अलग अलग काव्य बिम्बों को सहेजता हुआ एक ही विराट को नुमायां करता है, इस स्तंभ की यही विशेषता है |अपर्णा अनेकवर्णा के साथ अनेक कवि साथी अपने हिस्से का सृजन यहां समर्पित करते हैं और इस खुशबू को दूर तक ले जाने में ब्लागर प्रवेश सोनी की भी विनम्र कोशिश है....
ReplyDelete