रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है साहित्य की बात समूह से अलकनंदा साने की कविताये |आज की कविताओं के प्रस्तोता है समूह के सह एडमिन श्री शरद कोकास |मुख्य एडमिन श्री ब्रज श्रीवास्तव |कविताओं पर समूह में पाठको की त्वरित प्रतिक्रियाए भी यहाँ सलग्न है |
🔴🔴🔴परिचय
🔷साकीबा के मित्रों के लिए आज प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध कवयित्री अलकनंदा साने की कविताएँ
🔷अलकनंदा जी दो विषयों में स्नातकोत्तर हैं सम्प्रति भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत हैं तथा इंदौर में निवास करती हैं . वे हिंदी - मराठी में समान रूप से लेखन एवं इस क्षेत्र में लगभग ४५ वर्षों से सक्रीय हैं
🔷हिंदी मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ ,रिपोतार्ज,आलेख, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लिए साक्षात्कार प्रकाशित हैं
तथा भारतीय स्टेट बैंक, इंदौर के मुखपत्र ''आकलन'' का सम्पादन उन्होंने किया है .
🔷प्रसिद्द सामाजिक संस्था ''एकलव्य''की भोपाल से प्रकाशित बालपत्रिका ''चकमक'' के लिए,एक लम्बे समय तक नियमित मराठी से हिंदी अनुवाद कार्य भी किया है साथ ही पुणे के समकालीन प्रकाशन के लिए , एक निश्चित अवधि हेतु सम्पादन का कार्य किया है
🔷 वे एक अच्छी अनुवादक भी हैं तथा उन्होंने मराठी के नामचीन कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है जो गगनांचल,साक्षात्कार , अक्षर शिल्पी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है
🔷 उनके स्वयं के दो मराठी एवं एक हिंदी काव्य संकलन प्रकाशित हैं
🔷अ.भा.मराठी साहित्य सम्मलेन सहित मराठी के अनेक महत्वपूर्ण मंचों से उन्होंने कविता पाठ भी किया है .
🔷उन्हें विकलांग सेवा हेतु राज्य स्तरीय सम्मान भी प्राप्त हुआ है तथा मध्यप्रदेश की पहली मैदानी महिला पत्रकार होने का गौरव उन्हें प्राप्त है ।.
: 🔵🔵🔵
अलकनंदा साने की चार कविताएँ
1⃣
यूँ तो अपराधी कई थे,
पर हमेशा और बड़ी तादाद में
चींटियाँ ही मारी गईं
वे रात के अँधेरे में चुपचाप
करते थे हमला
चींटियाँ घूमती थी
दिन के उजाले में
झुण्ड की झुण्ड बेख़ौफ़
अपराध करते हुए देखी गईं चींटियाँ
और सजा उन्हें ही मिली
बाकी निर्दोष छूट गए
संदेह का लाभ लेकर....!!!
🔹🔹🔹🔹
2⃣
भले चूल्हे की तेज आंच पर
मैं उबलती रहूँ दाल की तरह
या बिलकुल मद्धिम आंच पर
बार-बार हिलाई जाती रहूँ
कुरकुरे करेले या भिन्डी की तरह
मुझे मंजूर है !!!
पर मुझे माइक्रोवेव में पकते पकवान - सा मत समझो
कि सेट कर दिया टायमर
और देखते रहे
मेरा पकना
निर्लिप्त भाव-से
दूर खड़े होकर
किसी पंचतारांकित होटल के शेफ की तरह !!!
🔹🔹🔹🔹🔹
3⃣
धीरे-धीरे मैं उम्र-दराज हो गई
कांच की चूड़ियों के टुकड़े,इमली के बीज
उठकर दौड़ पड़ने का माद्दा
बेवजह खिलखिलाना,रूठना और मनवाना
कितनी सारी थी पूँजी चुक गई
कीमती जेवर-कपड़ों से भरी अलमारियां,
सेफ की चाबियाँ और जमीनों के पंजीयन ने
बदल दिए आल्हाद के आयाम
हँसी, अब आने के पहले वजह पूछती है
टप-टप बहने को आतुर आंसू,
सूख जाते हैं अन्दर ही अन्दर
मैं कहीं खो गई,सिर्फ छाया रह गई
धीरे-धीरे मैं उम्र-दराज हो गई
🔹🔹🔹🔹🔹
4⃣
हाथों में मुंह छिपाकर
खिल-खिलाकर हँसनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
अब लड़कियां खूब जोर से हँसती है
गर्दन ऊँची कर, एक दूसरे के हाथ पर
ताली मारकर हँसती हैं
जो बाहर नहीं आ पाई
वो थीं क्या खिल-खिलाकर हँसनेवाली लड़कियां ?
या उनकी हँसी को दबा दिया गया , बहुत दिनों तक
इसलिए अब उत्सव मनाती-सी हँसती हैं लड़कियां ?
अब लड़कियां रम जाती हैं कहीं भी
सहज दिखाई देती हैं वे कहीं भी
किसी की ओर देखकर लजानेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
यूँ ही अपने आँचल को सम्हालनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
पैरों से जमीन को कुरेदनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
या उनको जोर देकर बताया गया
कि मौसम चाहे कैसा भी हो
पल्लू लिपटा होना चाहिए पूरी देह पर
और सिर भी रखना है ढांपकर
इसलिए उन्होंने छोड़ दिया
बात-बेबात लजाना ,
आँचल को उंगली पर लपेटना और
बार-बार संभालना ?
शाम को मां के साथ रसोई में
इधर का बर्तन उधर करती
लड़कियां गईं कहाँ ?
मां से लड़ियाती,
मां की साड़ी पहनकर पूरे घर में इतराती
लड़कियां गईं कहाँ ?
चौराहे पर मोमबत्ती जलाती लडकी का चेहरा
तुलसी चौरे पर दीपक रखती लडकी-सा मासूम नहीं दिखता
भोली लडकी जैसी मासूम दिखनेवाली लड़कियां गईं कहाँ ?
▪कविता: अलकनंदा साने ▪
🔸 प्रस्तुति: शरद कोकास 🔸
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प्रतिक्रियायें
Padma Ji: ताई की कवितायेँ कविता नही नश्तर की तरह मन में चुभती हुई उतरती चली जाती हैं। नारी के मनोभावों का प्रतीक और बिम्बात्मक वर्णन बहुत प्रभावी है।
चीटियाँ घूमती थीं
दिन के उजाले में
झुण्ड की झुण्ड बेख़ौफ़
इन पंक्तियों के माध्यम ई समाज के बदलाव को इंगित करती हैं तो नारी सशक्तिकरण को अभिव्यक्त करती उनकी पंक्तियाँ मन में उबाल ले आती हैं
मुझे माइक्रोवेव में पकते
पकवान सा मत समझो
कहकर नारी का शोषण करने वालों को सावधान भी कर देती हैं
समाज में हुए परिवर्तन के साथ लड़कियों में भी आये स्वाभाविक परिवर्तन को भी बताया है।
अर्थवत्ता और गुणवत्ता से भरपूर अच्छी कविताओं के लिए ताई को बधाइयाँ
💐
शरद जी को धन्यवाद
Braj Ji: कब से मन रहा ताई की कविताएँ पढ़ने का. सीखा बहुत कुछ आज. ये कविताएँ भेदक हैं और अनोखे शिल्प में ढली.
अपर्णा: परिपक्व गंभीर कविताएँ अलकनंदा मैम की। एक ठहराव और गहराई से रचे जीवन दर्शन की कविताएँ हैं ये।
शुक्रिया शरद जी 🙏🏽
Chandrashekhar Ji: अलकनंदा जी की कवितायेँ....
"ना कहीं से कम,ना कहीं से ज्यादा... लबालब हैं अपने में"
उन्हें प्रणाम और बधाई।
Anita Karnetkar: भोली लड़की जैसी मासूम दिखने वाली लडकियां गई कहाॅ? बेहद सामयिक और विचारणीय प्रश्न, जो पिछले दो दशकों से संपूर्ण समाज की चिंता का विषय बना हुआ है ।पैर से जमीन कुदेरना,यूँ हीअपने ऑंचलको सम्हालना,माँ की साड़ी पहनकर पूरे घर में घूमने जैसी कियाओं को रचनाकार ने बड़ी सूक्ष्मता से पकडा है। सच तो यह है कि हमारे संस्कार पोषक पारिवारिक वातावरण में किशोरी से युवती बनती लड़की के बहुत ही स
Anita Karnetkar: सुंदर भाव पूरी कविता को अद्भुत सौंदर्य प्रदान करते है। बदलाव एवं समय की मांग के नाम पर आज की युवतियों का पहनावे मे परिवर्तन जायज मान भी लिया जाएपर विद्रोह के नाम पर स्त्री सुलभ लज्जा का त्याग एक अपूरणीय सामाजिक क्षति है ।
अपर्णा: वो स्वभाविक ही नहीं मेरी समझ से। आप उन्हें जूडो सिखाओ और उम्मीद करो कि उनकी बॉडी लैंग्वेज नहीं बदलेगी.. असंभव है। भारत और ऐसे ही अन्य पारंपरिक सोच वाले देशों में तो फिर भी लड़कियाँ एक संतुलन साध लेती हैं।
Rajendr Shivastav Ji: अलकनंदा जी की कविताएँ उनके स्वभाव अनुरूप सहज व मुखर लगती हैं ।कहीं कोई दुराव-भटकाव नहीं।शब्द जाल से मुक्त,सीधे हृदयंगम होती है।
मन की बात करती कविताओं को हम तक पहुँचाने के लिये शरद जी धन्यवाद ।
ताई ,बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद ।
प्रवेश सोनी :धन्यवाद शरद जी
आज ताई की कविताओं से साकीबा गुलजार है ।
मुझे ताई की कविताओं का इन्तजार रहता है । इनके प्रतिक ,बिम्ब सरल होते हुए भी भाषाई शिल्प के साथ विशेष बन जाते है ।मारी जाती है चींटिया ...जो दिन में निकलती है ।अपने कर्म से प्रतिबद्ध चींटिया दिन में निकलती है बेख़ौफ़ और मारी जाती है ।अपराधी अँधेरे के संदेह के लाभ में आज़ाद है हमेशा ।अँधेरे और उजाले का प्रतिक गढ़ कर बड़ी सुंदर सी कविता ,जिसमें कोई विस्तृत वर्णन नही फिर भी गहन विस्तार समेटे हुए है ।यही तो कमाल है ताई की कलम का ।
पंचतारांकित होटल ...ताई शब्दों का उपयोग आपकी पारखी नज़र से कई बार गुजरता होगा ,तभी आप ऐसे शब्द उपयोग करती है ।साधारण कवि तो सीधे से इंग्लिश हिंदी खिचड़ी बना कर फाइव स्टार होटल लिख देता ।सलाम
उम्र दराज होना ,जिम्मेदारियो को वहां करना ।काँच कीचुड़ियों के टुकड़े इमली के बीज कब उम्र का दामन छोड़ कर पकड़ लेते है जेवर, कपड़ो की अलमारियों की चाबियाँ ।
क्या इनमे ख़ुशी नही होती ,होती है पर बदली बदली ।
हंसी बेवजह नही आती क्योंकि उम्रदराज़ हो जाती है वो भी ।
लड़कियों के जीवन का बदलाव बहुत सुहाया हालाँकि कविता बार बार उस लड़की को तलाश रही है जो दबी दबी हंसी से शर्म का आँचल ओढ़े अकेली अपने सपनो से बतियाती रहती थी ।वो लड़की अब अंतरिक्ष में उड़ रही है अपने सपनों के साथ ।
शुभकामनाएं ताई
🙏💐💐💐💐
Meena Sharma Sakiba: अलकनन्दा साने ,यानि कि ताई की कविताएँ कविताओं के गढ़ में किसी खूबसूरत इमारत की तरह ..गम्भीर किन्तु सरल भाषा के साथ कविता का हाथ कलम के साथ लिये बढ़ती चींटियों को डर नहीं कि वे निर्दोष हैं ,किन्यु छल प्रपंच भरी दुनियाँ में मक्कारी की जीत और बेकसूर का सजा पाना आज के समय का बेबाक चित्र !
छोटी -छोटी कविताएँ और बड़े साल कि,मुझे माइक्रोवेव में पकते पकवान सा मत समझो/कि देखते रहे मेरा पकना,निर्लिप्त भाव से.......
( बिना दो-दो हाथ किये परास्त नहीं कर सकते )
बढ़ती उम्र की सीमाओं के घेरेकैसा बदलाव ले आते हैं,
,,मैं कहीं खो गई,सिर्फ छाया रह गई
धीरे-धीरे मैं उम्र दराज हो गई.
पीड़ा के स्वर मुखर हैं !
आधुनिकता के साथ आये बदलाव को इंगित करती कविता सहज ही आकर्षित करती उन लड़कियों को याद करती हैं और उस स्वप्न की तरह वर्णन ...उन लड़कियों के रूप-रंग आचरण का.जो मोहित करता है आज भी कवियत्री का मन.....उनकी सुधियों के झरोखे मन मोहते हैं !
सरल ,सुन्दर कथ्य के साथ कसा हुआ शिल्प प्रतीकों के माध्यम से खूब निखरा है...बधाई ताई एक सुन्दर वातावरण जेहन में उतारने के लिये. उत्तम प्रस्तुति हेतु शरद जी का आभार 🙏
Sanjiv. sahity Ki Baat: ताई जी कविताएं अपनी बनक में बहुत खूबसूरत हैं । सधी हुई भाषा, मंजा हुआ शिल्प, गढी गई कविता परन्तु कुछ है जो न होने का अहसास करा रहा है।
Manjusha Man: बहुत बहुत सुन्दर कविताएं हैं अलकनन्दा ताई की। सीधे मन को छूती हुई कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
Aanand Krishn Ji: आप पूरा नाम आचार्य दिनेश नंदन तिवारी लिखते हैं न ? ऐसा याद आता है कि आपसे मिला हूँ ।
Bhavna Sinha Sakiba: ताई को जन्म दिन की ढेरों बधाईयां/ शुभकामनाएँ। 🎂 🎈 आपकी सभी कविताएँ अद्भुत ,अनुपम है
और बेहद मुखर भी।
कहां गई हाथों में मुंह छिपा कर हंसने वाली लड़कियाँ तो बेमिसाल है। सभी कविताएँ सामयिक और विचारणीय ।
Saksena Madhu: ताई को जन्मदिन की पुनः बधाई
ताई मेरी प्रिय कवयित्री हैं ।उन्ही कीकई कविताएँ हूबहू याद नहीं पर भाव बहुत सारे याद हैं ।
उनकी कविताएँ घर से निकल कर समाज देश और दुनिया से जुड़ जाती है ।चींटी से बात शुरू करके एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करती ये कविता सूक्ष्म से विराट की और ले जाती हैं ।कटाक्ष करती ये कविता सोच की दिशा को मोड़ देती है।
।दूसरी कविता ..... संघर्ष की बात करती है पर कठपुतली बन कर नहीं ।अपने अस्तित्व को बनाये रखकर जीवन के हर संघर्ष में साथ की बात करती है ।
तीसरी कविता .".मैं कही खो गई सिर्फ छाया रह गई " कह कर पूरे जीवन की पीड़ा ,संधर्ष ,सोच और समझ रख दी हो मानो ....जीवन के परिवर्तन को जीवन्त कर दिया ..
भोली जैसी मासूम लडकिया इसलिए नहीं की उनके भोलेपन ने ही छला है ।अपने भोलेपन का चोला उतार कर फेंकने का वक़्त आ गया ...अब वो भी जियेगीं बिंदास ...और मैं इसके समर्थ में हूँ ।
ताई की कविताएँ सरल बातो से गूढ़ बात तक पहुंच कर चमत्कार करती है ।
उनकी दो कविताये " ठीक हूँ मैं "
और "बेटा धीरे " मेरी प्रिय कविताएँ है ।
बधाई और शुभकामनाएं ।
आभार शरद जी ।
Mani Mohan Ji: ताई की कविताई पर क्या लिखुँ ..पहले भी पढ़ा है उन्हें , हर बार उनकी कविता चौंकाती है - अपने कथ्य , नए नए प्रतीक और भाषिक ताजगी से ...पुनः बधाई ।
💐
Dinesh Mishra Ji: आदरणीय ताई
जन्मदिन की एक बार और मुबारकबाद, आप जैसी पारंपरिक और विदुषी महिला को जितनी बार मुबारकबाद दी जाए कम है।
आपकी कवितायें तीनों अच्छी लगीं, पहली कविता हमे जैसे हाथ पकड़कर सोच की नई दिशा की और ले जाने का अहसास कराती है, दूसरी कविता यक़ीनन अनूठी है, जिसमे स्त्री अपने प्रति होने वाले चतुराई से भरे शोषण और दुर्व्यवहार करने वाले और इसके मज़े लेने वालों लोगों के ख़िलाफ़ एक परचम है, एक प्रतिशोध है जो आवश्यक है।
तीसरी कविता एक पारंपरिक महिला के आज के प्रदर्शन और दिखावे का पर्दाफ़ाश करती हुई कवितायें हैं, जो अपने उस गुज़रे कल को याद करती हैं, जो निश्छल और निष्पाप थे।
कुल मिलाकर अच्छी सोच से भरपूर कविताएं आज पढ़ने मिली।
Ravindra Swapnil: साने में आपकी कवियन अच्छी लगीं। बेहद मार्मिक। अपने आसपास को ईमानदारी से लिखा। लेकिन पंचतरंकित होटल थोड़ा भरी है।
HarGovind Maithil Ji Sakiba: ताई की कविताओं पर टिप्पणी करना मेरे लिए सूरज को दिया दिखाने के समान है ।यह तो ताई के शिल्प कौशल का कमाल है कि जो उनकी कविताओं के अर्थ, भाव और संवेदना को सघन, संप्रेषणीय और प्रभावी बनाता है ।
आ. ताई और शरद जी का आभार ।
डॉ दिनेश जी ताई को जन्म दिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाईयांएँ 💐🎂 🎈 आपकी सभी कविताएँ सामयिक और विचरणीय हैं । कोई भी कह सकता है ये शिल्पगत अद्भुत ,अनुपम
और कथ्यगत बेहद मुखर कविताएँ हैं ।
कहां गई हाथों में मुंह छिपा कर हंसने वाली लड़कियाँ और धीरे धीरे मैं उम्रदराज हो गई बेमिसाल है। वैसे सभी कविताएँ अच्छी लगीं । ताई का अनुभव उनके लेखन में साफ झलकता है ।
Komal Somrwaal: ताई की कवितायें अद्भुत.. ऐसा लगा मानो समकालीन श्रेष्ठ्म कवियों में से एक की रचनाएँ पढ़ रही हूँ। शब्द सीमित है मेरे शब्दकोश में प्रशंसा के किन्तु पाठक के ह्रदय से सीधा संवाद करती कवितायें👌🏻👌🏻👌🏻
Suren: अंतिम कविता (चौथी)अलकनंदा जी की पर एक पाठकीय प्रतिक्रिया दर्ज करना चाहूंगा कि इस कविता का मोटिव पाठक के समक्ष किस भांति उतरेगा ..
* क्या वह (मोटिव) उस लड़की की स्मृति का नोस्टाल्जिया होगा जो तुलसी चौरा पर दीपक रखती हुई मासूम दिखती है । ऐसी ही लड़की संभवतः सती माता के चौरे पर भी अर्चना करती हुई मासूमियत प्रक्षेपित करेगी ।
* इस नोस्टाल्जिया की वर्थ क्या होनी चाहिए या क्या है ...इसका परिशीलन आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि कविता के अंत तक आते आते कवि उस मासूमियत पर फ़िदा प्रतीत होता है
* अगर ये मासूमियत के प्रति ये आग्रह पित्रसत्तात्मक नही है तो कविता के पुनर्पाठ में क्यों उभर रहा है ।
* कवि अपने मोटिव में हो सकता है स्पष्ट हो पर पाठक तक न पहुँच पा रहा हो ,क्या ये मसला सिर्फ संप्रेषणीयता का ही है या कवि की विचारधारा का या कुछ और ?
अलकनंदा जी के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी । 💐💐
Aalknanda Sane Tai: धन्यवाद संजीव जी, वह "कुछ" पाठक को ढूंढना है ।
धन्यवाद मंजूषा ,भावना, मधु जी
धन्यवाद मणि जी, इन दिनों आप दुर्लभ हो गए हैं ।
दिनेश जी आपने बहुत विस्तार से लिखा, अच्छा लगा, लेकिन आज मेरी 4 कविताएं हैं ।
धन्यवाद, रविन्द्र जी ! हिंदी के शब्द अक्सर हम कठिन या भारी कहकर प्रयोग में नहीं लाते और इसी वजह से वे प्रचलित नहीं हो पाते ।
हरगोंविद जी, धन्यवाद । मैं आप सभी की तरह हूं, आप ही के बीच की हूं । सूरज तो बहुत दूर होता है ।
धन्यवाद ,आभा जी ! कम शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है ।
सभी का एक बार फिर धन्यवाद, आभार । 🙏
अपर्णा, सुरेन जी, मोहन जी, पीयूष से निष्पक्ष प्रतिक्रिया की उम्मीद थी ।
आजकल डॉक्टर को कुछ कहती हूं तो वह हर बार एक ही बात कहते हैं -- अब उम्र के हिसाब से यह तो होगा । सबके द्वारा सिर्फ तारीफ की वजह भी मैं यही मानती हूं वर्ना कुछ कमी तो निकलती ।
Anita manda :ताई की सभी कविताएँ बेहद अच्छी लगी, पर उम्रदराज वाली बेहद बेहद अच्छी लगी
अपर्णा: पहली नज़र में चारों कविताओं के बारे में एक कॉमन बात जो उभरती है वह है इनका हाशिए के स्वर की कविता होना। चाहे चींटी के प्रतीक में आम इन्सान हो, आम घरेलु महिला हो, उम्रदराज़ होने की अनुभूति हो या स्मृति की यवनिका से झांकती लजालू मासूम कन्या हो।
इन सभी कविताओं का स्वर कवि की सिग्नेचर शैली में ही है। निःसंकोच और स्पष्ट रूप से अपनी बात कहती हुई।
पहली कविता एक तंज़ मिश्रित व्यथा पर ख़त्म होती है जब शक्ति रसूख के बल पर बड़े अपराधी बच निकलते हैं और एक आम इंसान के लिए वही कानून बेड़ियाँ ले आती है। संदेह का लाभ उठाकर... बहुत सही चोट है लचर व्यवस्था पर।
दूसरी कविता के तेवर बहुत अलग से हैं। यहाँ दोहरा विमर्श है। इसकी स्त्री साफ जानती है कि वो मैनिप्यूलेट हो रही है। ये awareness भी पहली सीढ़ी बन सकती है उसके evolution में। पर यहाँ भी वह चाह रही है संलग्नता, जुड़ाव। ये बहुत रोचक चरित्र या दशा है। यहाँ तनिक सा स्टॉकहोम सिंड्रोम तनिक सा क्रोध तनिक सी खीज भी है जो इसे एक वास्तविक चरित्र बना रही। ये अक्सर कथा में होता है। कविता अधिकतर एक आदर्श स्थिती के आस-पास रहना चाहती है। this woman is clearly a work in progress..
तीसरी कविता विशिष्ट है अपने विषय के लिए। इस थमते, रुकते, चुप पड़ते स्वर को कविताओं का विषय बनते कम देखा है। बहुत ग्रेसफुली इसे निभाया है आपने। बस एक पाठक का आग्रह समझें कि अंतिम पंक्तियों की निराशा तोड़ एक ओजस्वी स्वर उभरे। जहाँ जीवन उम्र की सीमाओं को नई परिभाषा दे।
चौथी कविता नॉस्टैलजिया का उत्सव मना रही। अब न वो लड़कियाँ रहीं न वैसी लाज से दोहरी पड़ती दुल्हनें। वो सौंदर्य अनूठा था। पर उस में उनकी जीवन भर का marginalisation छुपा था। कविता निश्पक्छता से ये संतुलन बनाए चलती है जो एकदम से अंतिम पंक्तियों में बिखर सा जाता है। यहाँ नॉस्टैलजिया भारी पड़ती सी दिखती है।
आपकी साफ़गोई को सलाम मैम। रचनाकर्म के लिए मेरी शुभकामनाएँ। प्रणाम। 🙏🏽
Dr Dipti Johri Sakiba: अलकनंदा जी की अच्छी कवितायेँ जैसा की ब्रज जी ने कहा कि कवितायेँ भेदक है और अनोखे शिल्प में ढली हैं एक ऐसा शिल्प जो पाठकीयता का मित्र है ।
चौथी कविता ....कहाँ गयी वो लड़कियां!
ये प्रश्न है या एक उच्छ्वास ....इसी में समस्त स्त्री अस्मिता के संघर्ष गुंथे हुए है । इस छुई मुई सी लड़की का स्वप्न बनाये रखने बल्कि उसको एक सामाजिक आदर्श का व्यामोह बनाये रखने में समस्त पितृसत्तात्मकता प्रारम्भ से जुटी है।
यदि ये नास्टेल्जिया भी हो तो ये आग्रह स्त्री छवि के अधीनता के मानकीकरण की दिशा में है .....इस कविता में उस नास्टेल्जिया के प्रति झुकाव तो स्पष्ट दृष्टिगोचर हो ही रहा है। ये मुझे एक पाठक के तौर पर अपने पाठ में प्रतीत हुआ ।
अलकनंदा जी को शुभकानाएं 🙏🏼
Aalknanda Sane Tai: सुरेन जी आपकी पाठकीय उत्सुकता का क्रमवार परिशीलन ---
१. क्या वह (मोटिव) उस लड़की की स्मृति का नोस्टाल्जिया होगा जो तुलसी चौरा पर दीपक रखती हुई मासूम दिखती है । ऐसी ही लड़की संभवतः सती माता के चौरे पर भी अर्चना करती हुई मासूमियत प्रक्षेपित करेगी ।
मैं किसी परम्परा या रूढ़ी का समर्थन नहीं कर रही हूँ.इसे नोस्ल्टेजिया कहा जा सकता है, लेकिन कुल कविता में मैं यह कहना चाहती हूँ कि लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, बढ़ गईं हैं. अच्छा ही लगता है,लेकिन उनकी मासूमियत कहीं खो गईं है.एक रूक्षता, कठोरता उनके चेहरे पर दिखाई देती है.जो उनको आधुनिक समाज की देन है.
२.इस नोस्टाल्जिया की वर्थ क्या होनी चाहिए या क्या है ...इसका परिशीलन आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि कविता के अंत तक आते आते कवि उस मासूमियत पर फ़िदा प्रतीत होता है
बिलकुल होना चाहिए. इस कविता के परे न सिर्फ लड़कियों में बल्कि हरेक में मासूमियत होना चाहिए.उसीसे व्यक्तित्व में सरलता, निच्छलता आती है.ऐसा मेरा दॄढ विश्वास है.
३ अगर ये मासूमियत के प्रति ये आग्रह पित्रसत्तात्मक नही है तो कविता के पुनर्पाठ में क्यों उभर रहा है ।
ये पितृसत्ता के विरोध में ही है.पुरूष सत्ता और पुरूष तथा पुरूष के समर्थन की मानसिकता ने उनकी मासूमियत छीन ली है.
४.कवि अपने मोटिव में हो सकता है स्पष्ट हो पर पाठक तक न पहुँच पा रहा हो ,क्या ये मसला सिर्फ संप्रेषणीयता का ही है या कवि की विचारधारा का या कुछ और ?
विचारधारा तो मेरी जो है , सो है.कोई उससे सहमत हो सकता है अन्य कोई नहीं भी हो सकता.पाठक तक न पहुँच पाने के कई कारण हो सकते हैं, उनमें से एक स्वयं उसकी समझ भी हो सकती है.
Suren: अच्छी टीप .. मार्जिनेलाईजेशन का और स्टॉकहोम सिंड्रोम को युक्तियुक्त तरह से उपयोग किया ,..
Suren: जी अलकनंदा जी , सतीमाता के चौरे पर भी वही मासूमियत प्रक्षेपित होती हो जैसा की तुलसी चौरे वाली मासूमियत से अपेक्षित है तो वह भी उसी नॉस्टेलजिया के तहत संरक्षित किये जाने योग्य पाएंगे क्या हम
मासूमियत होनी चाहिए या बची रहनी चाहिए ,ये अच्छी बात है पर किस कीमत पर ? या यूँ कह किे उन्ही प्रतीकों से जो अपनी संरचना में पितृसत्ता वादी है ?
पित्रसत्ता के विरोध में है या हो सकती है ..ये प्रकट भी या परिलक्षित भी होना चाहिए और संप्रेषित भी .... यहाँ नही हो रहा क्योंकि जो प्रतीक कविता में लिए गए वे अपनी संरचना या क्रोड में पित्रसत्ता वादि है ।
Aalknanda Sane Tai: अपर्णा, चौथी कविता के बारे में तो मैंने सुरेन जी के लिए जो लिखा है, वही जवाब है. तीसरी कविता की थोड़ी पृष्ठभूमि बताती हूँ. हँसी तो मुझे अब भी बहुत आती है,पर पहले मेरा गुस्सा भी तेज था.वह अब कम हो गया है.इस पर एक बार परिवार में बात चली. क्योंकि उम्र के लिहाज से हँसी तो कई बार दबाना ही पड़ती है,पर गुस्सा भी कम हुआ तो सब कहने लगे --तू बहुत बदल गई.कुनबे की बहुओं को तो विश्वास ही नहीं होता कि मेरा गुस्सा कभी तेज हुआ करता था. अत: अंतिम पंक्ति उसीका प्रतिबिम्ब है.बदलने की कोशिश करुँगी. विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
Aalknanda Sane Tai: मैं सामान्यतया मराठी कविताएं अलग और हिंदी अलग लिखती हूँ.क्योंकि दोनों भाषाओँ में विचार आते हैं.लेकिन ये कविता मेरी मूल मराठी कविता का अनुवाद है.मराठी कविता न केवल बेहद पसंद की जाती है, बल्कि इसी वर्ष पुणे में हुए अ. भा. मराठी साहित्य सम्मेलन में करीब ५० हजार लोगों ने खड़े होकर इस कविता को सलामी दी और लगभग हर कवि सम्मेलन में इसकी फरमाइश होती है.यह सब जाननेवाले एक कवि मित्र ने हिंदी अनुवाद की सलाह दी . हो सकता है अनुवाद की वजह से कुछ गड़बड़ी हो और हिंदी पाठक तक वह सम्प्रेषित नहीं हो पा रही हो.
Ajay Shreevstav Ji Sakiba: अलकनंदा जी
आप की उम्दा कविताओं के लिए हार्दिक बधाई ..
एक गीत है योगेश का ...
रजनीगंधा फूल तुम्हारे ...
इस गीत में एक लाइन है
कितना सुख है बंधन में ...
ये है सिंड्रोम
अर्थात जब शोषित , शोषक से अपना सम्बन्धीकरण कर ले या कहे वो उस शोषण को भी एन्जॉय करने लगे या कहे उस शोषण से स्वयं का तदात्मिकरन कर ले या उस में ही अपना हेडोनिजम ढूंढ ले या अपने मूल्यों को उसी दिशा में प्रतिस्थापित कर दे
अपर्णा: Stockholm syndrome एक घटना की वजह से गढ़ी गई जब एक लड़की को अपने ही अपहरणकर्ता से सम्मोहन के हद तक प्रेम हो गया था और वो अपने परिजनों के विरुद्ध उसका साथ दे रही थी। उसकी उस मानसिकता को ये नाम दिया गया।
🔴🔴🔴परिचय
🔷साकीबा के मित्रों के लिए आज प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध कवयित्री अलकनंदा साने की कविताएँ
🔷अलकनंदा जी दो विषयों में स्नातकोत्तर हैं सम्प्रति भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत हैं तथा इंदौर में निवास करती हैं . वे हिंदी - मराठी में समान रूप से लेखन एवं इस क्षेत्र में लगभग ४५ वर्षों से सक्रीय हैं
🔷हिंदी मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ ,रिपोतार्ज,आलेख, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लिए साक्षात्कार प्रकाशित हैं
तथा भारतीय स्टेट बैंक, इंदौर के मुखपत्र ''आकलन'' का सम्पादन उन्होंने किया है .
🔷प्रसिद्द सामाजिक संस्था ''एकलव्य''की भोपाल से प्रकाशित बालपत्रिका ''चकमक'' के लिए,एक लम्बे समय तक नियमित मराठी से हिंदी अनुवाद कार्य भी किया है साथ ही पुणे के समकालीन प्रकाशन के लिए , एक निश्चित अवधि हेतु सम्पादन का कार्य किया है
🔷 वे एक अच्छी अनुवादक भी हैं तथा उन्होंने मराठी के नामचीन कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है जो गगनांचल,साक्षात्कार , अक्षर शिल्पी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है
🔷 उनके स्वयं के दो मराठी एवं एक हिंदी काव्य संकलन प्रकाशित हैं
🔷अ.भा.मराठी साहित्य सम्मलेन सहित मराठी के अनेक महत्वपूर्ण मंचों से उन्होंने कविता पाठ भी किया है .
🔷उन्हें विकलांग सेवा हेतु राज्य स्तरीय सम्मान भी प्राप्त हुआ है तथा मध्यप्रदेश की पहली मैदानी महिला पत्रकार होने का गौरव उन्हें प्राप्त है ।.
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अलकनंदा साने की चार कविताएँ
1⃣
यूँ तो अपराधी कई थे,
पर हमेशा और बड़ी तादाद में
चींटियाँ ही मारी गईं
वे रात के अँधेरे में चुपचाप
करते थे हमला
चींटियाँ घूमती थी
दिन के उजाले में
झुण्ड की झुण्ड बेख़ौफ़
अपराध करते हुए देखी गईं चींटियाँ
और सजा उन्हें ही मिली
बाकी निर्दोष छूट गए
संदेह का लाभ लेकर....!!!
🔹🔹🔹🔹
2⃣
भले चूल्हे की तेज आंच पर
मैं उबलती रहूँ दाल की तरह
या बिलकुल मद्धिम आंच पर
बार-बार हिलाई जाती रहूँ
कुरकुरे करेले या भिन्डी की तरह
मुझे मंजूर है !!!
पर मुझे माइक्रोवेव में पकते पकवान - सा मत समझो
कि सेट कर दिया टायमर
और देखते रहे
मेरा पकना
निर्लिप्त भाव-से
दूर खड़े होकर
किसी पंचतारांकित होटल के शेफ की तरह !!!
🔹🔹🔹🔹🔹
3⃣
धीरे-धीरे मैं उम्र-दराज हो गई
कांच की चूड़ियों के टुकड़े,इमली के बीज
उठकर दौड़ पड़ने का माद्दा
बेवजह खिलखिलाना,रूठना और मनवाना
कितनी सारी थी पूँजी चुक गई
कीमती जेवर-कपड़ों से भरी अलमारियां,
सेफ की चाबियाँ और जमीनों के पंजीयन ने
बदल दिए आल्हाद के आयाम
हँसी, अब आने के पहले वजह पूछती है
टप-टप बहने को आतुर आंसू,
सूख जाते हैं अन्दर ही अन्दर
मैं कहीं खो गई,सिर्फ छाया रह गई
धीरे-धीरे मैं उम्र-दराज हो गई
🔹🔹🔹🔹🔹
4⃣
हाथों में मुंह छिपाकर
खिल-खिलाकर हँसनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
अब लड़कियां खूब जोर से हँसती है
गर्दन ऊँची कर, एक दूसरे के हाथ पर
ताली मारकर हँसती हैं
जो बाहर नहीं आ पाई
वो थीं क्या खिल-खिलाकर हँसनेवाली लड़कियां ?
या उनकी हँसी को दबा दिया गया , बहुत दिनों तक
इसलिए अब उत्सव मनाती-सी हँसती हैं लड़कियां ?
अब लड़कियां रम जाती हैं कहीं भी
सहज दिखाई देती हैं वे कहीं भी
किसी की ओर देखकर लजानेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
यूँ ही अपने आँचल को सम्हालनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
पैरों से जमीन को कुरेदनेवाली लड़कियां कहाँ गईं ?
या उनको जोर देकर बताया गया
कि मौसम चाहे कैसा भी हो
पल्लू लिपटा होना चाहिए पूरी देह पर
और सिर भी रखना है ढांपकर
इसलिए उन्होंने छोड़ दिया
बात-बेबात लजाना ,
आँचल को उंगली पर लपेटना और
बार-बार संभालना ?
शाम को मां के साथ रसोई में
इधर का बर्तन उधर करती
लड़कियां गईं कहाँ ?
मां से लड़ियाती,
मां की साड़ी पहनकर पूरे घर में इतराती
लड़कियां गईं कहाँ ?
चौराहे पर मोमबत्ती जलाती लडकी का चेहरा
तुलसी चौरे पर दीपक रखती लडकी-सा मासूम नहीं दिखता
भोली लडकी जैसी मासूम दिखनेवाली लड़कियां गईं कहाँ ?
▪कविता: अलकनंदा साने ▪
🔸 प्रस्तुति: शरद कोकास 🔸
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प्रतिक्रियायें
Padma Ji: ताई की कवितायेँ कविता नही नश्तर की तरह मन में चुभती हुई उतरती चली जाती हैं। नारी के मनोभावों का प्रतीक और बिम्बात्मक वर्णन बहुत प्रभावी है।
चीटियाँ घूमती थीं
दिन के उजाले में
झुण्ड की झुण्ड बेख़ौफ़
इन पंक्तियों के माध्यम ई समाज के बदलाव को इंगित करती हैं तो नारी सशक्तिकरण को अभिव्यक्त करती उनकी पंक्तियाँ मन में उबाल ले आती हैं
मुझे माइक्रोवेव में पकते
पकवान सा मत समझो
कहकर नारी का शोषण करने वालों को सावधान भी कर देती हैं
समाज में हुए परिवर्तन के साथ लड़कियों में भी आये स्वाभाविक परिवर्तन को भी बताया है।
अर्थवत्ता और गुणवत्ता से भरपूर अच्छी कविताओं के लिए ताई को बधाइयाँ
💐
शरद जी को धन्यवाद
Braj Ji: कब से मन रहा ताई की कविताएँ पढ़ने का. सीखा बहुत कुछ आज. ये कविताएँ भेदक हैं और अनोखे शिल्प में ढली.
अपर्णा: परिपक्व गंभीर कविताएँ अलकनंदा मैम की। एक ठहराव और गहराई से रचे जीवन दर्शन की कविताएँ हैं ये।
शुक्रिया शरद जी 🙏🏽
Chandrashekhar Ji: अलकनंदा जी की कवितायेँ....
"ना कहीं से कम,ना कहीं से ज्यादा... लबालब हैं अपने में"
उन्हें प्रणाम और बधाई।
Anita Karnetkar: भोली लड़की जैसी मासूम दिखने वाली लडकियां गई कहाॅ? बेहद सामयिक और विचारणीय प्रश्न, जो पिछले दो दशकों से संपूर्ण समाज की चिंता का विषय बना हुआ है ।पैर से जमीन कुदेरना,यूँ हीअपने ऑंचलको सम्हालना,माँ की साड़ी पहनकर पूरे घर में घूमने जैसी कियाओं को रचनाकार ने बड़ी सूक्ष्मता से पकडा है। सच तो यह है कि हमारे संस्कार पोषक पारिवारिक वातावरण में किशोरी से युवती बनती लड़की के बहुत ही स
Anita Karnetkar: सुंदर भाव पूरी कविता को अद्भुत सौंदर्य प्रदान करते है। बदलाव एवं समय की मांग के नाम पर आज की युवतियों का पहनावे मे परिवर्तन जायज मान भी लिया जाएपर विद्रोह के नाम पर स्त्री सुलभ लज्जा का त्याग एक अपूरणीय सामाजिक क्षति है ।
अपर्णा: वो स्वभाविक ही नहीं मेरी समझ से। आप उन्हें जूडो सिखाओ और उम्मीद करो कि उनकी बॉडी लैंग्वेज नहीं बदलेगी.. असंभव है। भारत और ऐसे ही अन्य पारंपरिक सोच वाले देशों में तो फिर भी लड़कियाँ एक संतुलन साध लेती हैं।
Rajendr Shivastav Ji: अलकनंदा जी की कविताएँ उनके स्वभाव अनुरूप सहज व मुखर लगती हैं ।कहीं कोई दुराव-भटकाव नहीं।शब्द जाल से मुक्त,सीधे हृदयंगम होती है।
मन की बात करती कविताओं को हम तक पहुँचाने के लिये शरद जी धन्यवाद ।
ताई ,बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद ।
प्रवेश सोनी :धन्यवाद शरद जी
आज ताई की कविताओं से साकीबा गुलजार है ।
मुझे ताई की कविताओं का इन्तजार रहता है । इनके प्रतिक ,बिम्ब सरल होते हुए भी भाषाई शिल्प के साथ विशेष बन जाते है ।मारी जाती है चींटिया ...जो दिन में निकलती है ।अपने कर्म से प्रतिबद्ध चींटिया दिन में निकलती है बेख़ौफ़ और मारी जाती है ।अपराधी अँधेरे के संदेह के लाभ में आज़ाद है हमेशा ।अँधेरे और उजाले का प्रतिक गढ़ कर बड़ी सुंदर सी कविता ,जिसमें कोई विस्तृत वर्णन नही फिर भी गहन विस्तार समेटे हुए है ।यही तो कमाल है ताई की कलम का ।
पंचतारांकित होटल ...ताई शब्दों का उपयोग आपकी पारखी नज़र से कई बार गुजरता होगा ,तभी आप ऐसे शब्द उपयोग करती है ।साधारण कवि तो सीधे से इंग्लिश हिंदी खिचड़ी बना कर फाइव स्टार होटल लिख देता ।सलाम
उम्र दराज होना ,जिम्मेदारियो को वहां करना ।काँच कीचुड़ियों के टुकड़े इमली के बीज कब उम्र का दामन छोड़ कर पकड़ लेते है जेवर, कपड़ो की अलमारियों की चाबियाँ ।
क्या इनमे ख़ुशी नही होती ,होती है पर बदली बदली ।
हंसी बेवजह नही आती क्योंकि उम्रदराज़ हो जाती है वो भी ।
लड़कियों के जीवन का बदलाव बहुत सुहाया हालाँकि कविता बार बार उस लड़की को तलाश रही है जो दबी दबी हंसी से शर्म का आँचल ओढ़े अकेली अपने सपनो से बतियाती रहती थी ।वो लड़की अब अंतरिक्ष में उड़ रही है अपने सपनों के साथ ।
शुभकामनाएं ताई
🙏💐💐💐💐
Meena Sharma Sakiba: अलकनन्दा साने ,यानि कि ताई की कविताएँ कविताओं के गढ़ में किसी खूबसूरत इमारत की तरह ..गम्भीर किन्तु सरल भाषा के साथ कविता का हाथ कलम के साथ लिये बढ़ती चींटियों को डर नहीं कि वे निर्दोष हैं ,किन्यु छल प्रपंच भरी दुनियाँ में मक्कारी की जीत और बेकसूर का सजा पाना आज के समय का बेबाक चित्र !
छोटी -छोटी कविताएँ और बड़े साल कि,मुझे माइक्रोवेव में पकते पकवान सा मत समझो/कि देखते रहे मेरा पकना,निर्लिप्त भाव से.......
( बिना दो-दो हाथ किये परास्त नहीं कर सकते )
बढ़ती उम्र की सीमाओं के घेरेकैसा बदलाव ले आते हैं,
,,मैं कहीं खो गई,सिर्फ छाया रह गई
धीरे-धीरे मैं उम्र दराज हो गई.
पीड़ा के स्वर मुखर हैं !
आधुनिकता के साथ आये बदलाव को इंगित करती कविता सहज ही आकर्षित करती उन लड़कियों को याद करती हैं और उस स्वप्न की तरह वर्णन ...उन लड़कियों के रूप-रंग आचरण का.जो मोहित करता है आज भी कवियत्री का मन.....उनकी सुधियों के झरोखे मन मोहते हैं !
सरल ,सुन्दर कथ्य के साथ कसा हुआ शिल्प प्रतीकों के माध्यम से खूब निखरा है...बधाई ताई एक सुन्दर वातावरण जेहन में उतारने के लिये. उत्तम प्रस्तुति हेतु शरद जी का आभार 🙏
Sanjiv. sahity Ki Baat: ताई जी कविताएं अपनी बनक में बहुत खूबसूरत हैं । सधी हुई भाषा, मंजा हुआ शिल्प, गढी गई कविता परन्तु कुछ है जो न होने का अहसास करा रहा है।
Manjusha Man: बहुत बहुत सुन्दर कविताएं हैं अलकनन्दा ताई की। सीधे मन को छूती हुई कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
Aanand Krishn Ji: आप पूरा नाम आचार्य दिनेश नंदन तिवारी लिखते हैं न ? ऐसा याद आता है कि आपसे मिला हूँ ।
Bhavna Sinha Sakiba: ताई को जन्म दिन की ढेरों बधाईयां/ शुभकामनाएँ। 🎂 🎈 आपकी सभी कविताएँ अद्भुत ,अनुपम है
और बेहद मुखर भी।
कहां गई हाथों में मुंह छिपा कर हंसने वाली लड़कियाँ तो बेमिसाल है। सभी कविताएँ सामयिक और विचारणीय ।
Saksena Madhu: ताई को जन्मदिन की पुनः बधाई
ताई मेरी प्रिय कवयित्री हैं ।उन्ही कीकई कविताएँ हूबहू याद नहीं पर भाव बहुत सारे याद हैं ।
उनकी कविताएँ घर से निकल कर समाज देश और दुनिया से जुड़ जाती है ।चींटी से बात शुरू करके एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करती ये कविता सूक्ष्म से विराट की और ले जाती हैं ।कटाक्ष करती ये कविता सोच की दिशा को मोड़ देती है।
।दूसरी कविता ..... संघर्ष की बात करती है पर कठपुतली बन कर नहीं ।अपने अस्तित्व को बनाये रखकर जीवन के हर संघर्ष में साथ की बात करती है ।
तीसरी कविता .".मैं कही खो गई सिर्फ छाया रह गई " कह कर पूरे जीवन की पीड़ा ,संधर्ष ,सोच और समझ रख दी हो मानो ....जीवन के परिवर्तन को जीवन्त कर दिया ..
भोली जैसी मासूम लडकिया इसलिए नहीं की उनके भोलेपन ने ही छला है ।अपने भोलेपन का चोला उतार कर फेंकने का वक़्त आ गया ...अब वो भी जियेगीं बिंदास ...और मैं इसके समर्थ में हूँ ।
ताई की कविताएँ सरल बातो से गूढ़ बात तक पहुंच कर चमत्कार करती है ।
उनकी दो कविताये " ठीक हूँ मैं "
और "बेटा धीरे " मेरी प्रिय कविताएँ है ।
बधाई और शुभकामनाएं ।
आभार शरद जी ।
Mani Mohan Ji: ताई की कविताई पर क्या लिखुँ ..पहले भी पढ़ा है उन्हें , हर बार उनकी कविता चौंकाती है - अपने कथ्य , नए नए प्रतीक और भाषिक ताजगी से ...पुनः बधाई ।
💐
Dinesh Mishra Ji: आदरणीय ताई
जन्मदिन की एक बार और मुबारकबाद, आप जैसी पारंपरिक और विदुषी महिला को जितनी बार मुबारकबाद दी जाए कम है।
आपकी कवितायें तीनों अच्छी लगीं, पहली कविता हमे जैसे हाथ पकड़कर सोच की नई दिशा की और ले जाने का अहसास कराती है, दूसरी कविता यक़ीनन अनूठी है, जिसमे स्त्री अपने प्रति होने वाले चतुराई से भरे शोषण और दुर्व्यवहार करने वाले और इसके मज़े लेने वालों लोगों के ख़िलाफ़ एक परचम है, एक प्रतिशोध है जो आवश्यक है।
तीसरी कविता एक पारंपरिक महिला के आज के प्रदर्शन और दिखावे का पर्दाफ़ाश करती हुई कवितायें हैं, जो अपने उस गुज़रे कल को याद करती हैं, जो निश्छल और निष्पाप थे।
कुल मिलाकर अच्छी सोच से भरपूर कविताएं आज पढ़ने मिली।
Ravindra Swapnil: साने में आपकी कवियन अच्छी लगीं। बेहद मार्मिक। अपने आसपास को ईमानदारी से लिखा। लेकिन पंचतरंकित होटल थोड़ा भरी है।
HarGovind Maithil Ji Sakiba: ताई की कविताओं पर टिप्पणी करना मेरे लिए सूरज को दिया दिखाने के समान है ।यह तो ताई के शिल्प कौशल का कमाल है कि जो उनकी कविताओं के अर्थ, भाव और संवेदना को सघन, संप्रेषणीय और प्रभावी बनाता है ।
आ. ताई और शरद जी का आभार ।
डॉ दिनेश जी ताई को जन्म दिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाईयांएँ 💐🎂 🎈 आपकी सभी कविताएँ सामयिक और विचरणीय हैं । कोई भी कह सकता है ये शिल्पगत अद्भुत ,अनुपम
और कथ्यगत बेहद मुखर कविताएँ हैं ।
कहां गई हाथों में मुंह छिपा कर हंसने वाली लड़कियाँ और धीरे धीरे मैं उम्रदराज हो गई बेमिसाल है। वैसे सभी कविताएँ अच्छी लगीं । ताई का अनुभव उनके लेखन में साफ झलकता है ।
Komal Somrwaal: ताई की कवितायें अद्भुत.. ऐसा लगा मानो समकालीन श्रेष्ठ्म कवियों में से एक की रचनाएँ पढ़ रही हूँ। शब्द सीमित है मेरे शब्दकोश में प्रशंसा के किन्तु पाठक के ह्रदय से सीधा संवाद करती कवितायें👌🏻👌🏻👌🏻
Suren: अंतिम कविता (चौथी)अलकनंदा जी की पर एक पाठकीय प्रतिक्रिया दर्ज करना चाहूंगा कि इस कविता का मोटिव पाठक के समक्ष किस भांति उतरेगा ..
* क्या वह (मोटिव) उस लड़की की स्मृति का नोस्टाल्जिया होगा जो तुलसी चौरा पर दीपक रखती हुई मासूम दिखती है । ऐसी ही लड़की संभवतः सती माता के चौरे पर भी अर्चना करती हुई मासूमियत प्रक्षेपित करेगी ।
* इस नोस्टाल्जिया की वर्थ क्या होनी चाहिए या क्या है ...इसका परिशीलन आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि कविता के अंत तक आते आते कवि उस मासूमियत पर फ़िदा प्रतीत होता है
* अगर ये मासूमियत के प्रति ये आग्रह पित्रसत्तात्मक नही है तो कविता के पुनर्पाठ में क्यों उभर रहा है ।
* कवि अपने मोटिव में हो सकता है स्पष्ट हो पर पाठक तक न पहुँच पा रहा हो ,क्या ये मसला सिर्फ संप्रेषणीयता का ही है या कवि की विचारधारा का या कुछ और ?
अलकनंदा जी के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी । 💐💐
Aalknanda Sane Tai: धन्यवाद संजीव जी, वह "कुछ" पाठक को ढूंढना है ।
धन्यवाद मंजूषा ,भावना, मधु जी
धन्यवाद मणि जी, इन दिनों आप दुर्लभ हो गए हैं ।
दिनेश जी आपने बहुत विस्तार से लिखा, अच्छा लगा, लेकिन आज मेरी 4 कविताएं हैं ।
धन्यवाद, रविन्द्र जी ! हिंदी के शब्द अक्सर हम कठिन या भारी कहकर प्रयोग में नहीं लाते और इसी वजह से वे प्रचलित नहीं हो पाते ।
हरगोंविद जी, धन्यवाद । मैं आप सभी की तरह हूं, आप ही के बीच की हूं । सूरज तो बहुत दूर होता है ।
धन्यवाद ,आभा जी ! कम शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है ।
सभी का एक बार फिर धन्यवाद, आभार । 🙏
अपर्णा, सुरेन जी, मोहन जी, पीयूष से निष्पक्ष प्रतिक्रिया की उम्मीद थी ।
आजकल डॉक्टर को कुछ कहती हूं तो वह हर बार एक ही बात कहते हैं -- अब उम्र के हिसाब से यह तो होगा । सबके द्वारा सिर्फ तारीफ की वजह भी मैं यही मानती हूं वर्ना कुछ कमी तो निकलती ।
Anita manda :ताई की सभी कविताएँ बेहद अच्छी लगी, पर उम्रदराज वाली बेहद बेहद अच्छी लगी
अपर्णा: पहली नज़र में चारों कविताओं के बारे में एक कॉमन बात जो उभरती है वह है इनका हाशिए के स्वर की कविता होना। चाहे चींटी के प्रतीक में आम इन्सान हो, आम घरेलु महिला हो, उम्रदराज़ होने की अनुभूति हो या स्मृति की यवनिका से झांकती लजालू मासूम कन्या हो।
इन सभी कविताओं का स्वर कवि की सिग्नेचर शैली में ही है। निःसंकोच और स्पष्ट रूप से अपनी बात कहती हुई।
पहली कविता एक तंज़ मिश्रित व्यथा पर ख़त्म होती है जब शक्ति रसूख के बल पर बड़े अपराधी बच निकलते हैं और एक आम इंसान के लिए वही कानून बेड़ियाँ ले आती है। संदेह का लाभ उठाकर... बहुत सही चोट है लचर व्यवस्था पर।
दूसरी कविता के तेवर बहुत अलग से हैं। यहाँ दोहरा विमर्श है। इसकी स्त्री साफ जानती है कि वो मैनिप्यूलेट हो रही है। ये awareness भी पहली सीढ़ी बन सकती है उसके evolution में। पर यहाँ भी वह चाह रही है संलग्नता, जुड़ाव। ये बहुत रोचक चरित्र या दशा है। यहाँ तनिक सा स्टॉकहोम सिंड्रोम तनिक सा क्रोध तनिक सी खीज भी है जो इसे एक वास्तविक चरित्र बना रही। ये अक्सर कथा में होता है। कविता अधिकतर एक आदर्श स्थिती के आस-पास रहना चाहती है। this woman is clearly a work in progress..
तीसरी कविता विशिष्ट है अपने विषय के लिए। इस थमते, रुकते, चुप पड़ते स्वर को कविताओं का विषय बनते कम देखा है। बहुत ग्रेसफुली इसे निभाया है आपने। बस एक पाठक का आग्रह समझें कि अंतिम पंक्तियों की निराशा तोड़ एक ओजस्वी स्वर उभरे। जहाँ जीवन उम्र की सीमाओं को नई परिभाषा दे।
चौथी कविता नॉस्टैलजिया का उत्सव मना रही। अब न वो लड़कियाँ रहीं न वैसी लाज से दोहरी पड़ती दुल्हनें। वो सौंदर्य अनूठा था। पर उस में उनकी जीवन भर का marginalisation छुपा था। कविता निश्पक्छता से ये संतुलन बनाए चलती है जो एकदम से अंतिम पंक्तियों में बिखर सा जाता है। यहाँ नॉस्टैलजिया भारी पड़ती सी दिखती है।
आपकी साफ़गोई को सलाम मैम। रचनाकर्म के लिए मेरी शुभकामनाएँ। प्रणाम। 🙏🏽
Dr Dipti Johri Sakiba: अलकनंदा जी की अच्छी कवितायेँ जैसा की ब्रज जी ने कहा कि कवितायेँ भेदक है और अनोखे शिल्प में ढली हैं एक ऐसा शिल्प जो पाठकीयता का मित्र है ।
चौथी कविता ....कहाँ गयी वो लड़कियां!
ये प्रश्न है या एक उच्छ्वास ....इसी में समस्त स्त्री अस्मिता के संघर्ष गुंथे हुए है । इस छुई मुई सी लड़की का स्वप्न बनाये रखने बल्कि उसको एक सामाजिक आदर्श का व्यामोह बनाये रखने में समस्त पितृसत्तात्मकता प्रारम्भ से जुटी है।
यदि ये नास्टेल्जिया भी हो तो ये आग्रह स्त्री छवि के अधीनता के मानकीकरण की दिशा में है .....इस कविता में उस नास्टेल्जिया के प्रति झुकाव तो स्पष्ट दृष्टिगोचर हो ही रहा है। ये मुझे एक पाठक के तौर पर अपने पाठ में प्रतीत हुआ ।
अलकनंदा जी को शुभकानाएं 🙏🏼
Aalknanda Sane Tai: सुरेन जी आपकी पाठकीय उत्सुकता का क्रमवार परिशीलन ---
१. क्या वह (मोटिव) उस लड़की की स्मृति का नोस्टाल्जिया होगा जो तुलसी चौरा पर दीपक रखती हुई मासूम दिखती है । ऐसी ही लड़की संभवतः सती माता के चौरे पर भी अर्चना करती हुई मासूमियत प्रक्षेपित करेगी ।
मैं किसी परम्परा या रूढ़ी का समर्थन नहीं कर रही हूँ.इसे नोस्ल्टेजिया कहा जा सकता है, लेकिन कुल कविता में मैं यह कहना चाहती हूँ कि लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, बढ़ गईं हैं. अच्छा ही लगता है,लेकिन उनकी मासूमियत कहीं खो गईं है.एक रूक्षता, कठोरता उनके चेहरे पर दिखाई देती है.जो उनको आधुनिक समाज की देन है.
२.इस नोस्टाल्जिया की वर्थ क्या होनी चाहिए या क्या है ...इसका परिशीलन आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि कविता के अंत तक आते आते कवि उस मासूमियत पर फ़िदा प्रतीत होता है
बिलकुल होना चाहिए. इस कविता के परे न सिर्फ लड़कियों में बल्कि हरेक में मासूमियत होना चाहिए.उसीसे व्यक्तित्व में सरलता, निच्छलता आती है.ऐसा मेरा दॄढ विश्वास है.
३ अगर ये मासूमियत के प्रति ये आग्रह पित्रसत्तात्मक नही है तो कविता के पुनर्पाठ में क्यों उभर रहा है ।
ये पितृसत्ता के विरोध में ही है.पुरूष सत्ता और पुरूष तथा पुरूष के समर्थन की मानसिकता ने उनकी मासूमियत छीन ली है.
४.कवि अपने मोटिव में हो सकता है स्पष्ट हो पर पाठक तक न पहुँच पा रहा हो ,क्या ये मसला सिर्फ संप्रेषणीयता का ही है या कवि की विचारधारा का या कुछ और ?
विचारधारा तो मेरी जो है , सो है.कोई उससे सहमत हो सकता है अन्य कोई नहीं भी हो सकता.पाठक तक न पहुँच पाने के कई कारण हो सकते हैं, उनमें से एक स्वयं उसकी समझ भी हो सकती है.
Suren: अच्छी टीप .. मार्जिनेलाईजेशन का और स्टॉकहोम सिंड्रोम को युक्तियुक्त तरह से उपयोग किया ,..
Suren: जी अलकनंदा जी , सतीमाता के चौरे पर भी वही मासूमियत प्रक्षेपित होती हो जैसा की तुलसी चौरे वाली मासूमियत से अपेक्षित है तो वह भी उसी नॉस्टेलजिया के तहत संरक्षित किये जाने योग्य पाएंगे क्या हम
मासूमियत होनी चाहिए या बची रहनी चाहिए ,ये अच्छी बात है पर किस कीमत पर ? या यूँ कह किे उन्ही प्रतीकों से जो अपनी संरचना में पितृसत्ता वादी है ?
पित्रसत्ता के विरोध में है या हो सकती है ..ये प्रकट भी या परिलक्षित भी होना चाहिए और संप्रेषित भी .... यहाँ नही हो रहा क्योंकि जो प्रतीक कविता में लिए गए वे अपनी संरचना या क्रोड में पित्रसत्ता वादि है ।
Aalknanda Sane Tai: अपर्णा, चौथी कविता के बारे में तो मैंने सुरेन जी के लिए जो लिखा है, वही जवाब है. तीसरी कविता की थोड़ी पृष्ठभूमि बताती हूँ. हँसी तो मुझे अब भी बहुत आती है,पर पहले मेरा गुस्सा भी तेज था.वह अब कम हो गया है.इस पर एक बार परिवार में बात चली. क्योंकि उम्र के लिहाज से हँसी तो कई बार दबाना ही पड़ती है,पर गुस्सा भी कम हुआ तो सब कहने लगे --तू बहुत बदल गई.कुनबे की बहुओं को तो विश्वास ही नहीं होता कि मेरा गुस्सा कभी तेज हुआ करता था. अत: अंतिम पंक्ति उसीका प्रतिबिम्ब है.बदलने की कोशिश करुँगी. विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
Aalknanda Sane Tai: मैं सामान्यतया मराठी कविताएं अलग और हिंदी अलग लिखती हूँ.क्योंकि दोनों भाषाओँ में विचार आते हैं.लेकिन ये कविता मेरी मूल मराठी कविता का अनुवाद है.मराठी कविता न केवल बेहद पसंद की जाती है, बल्कि इसी वर्ष पुणे में हुए अ. भा. मराठी साहित्य सम्मेलन में करीब ५० हजार लोगों ने खड़े होकर इस कविता को सलामी दी और लगभग हर कवि सम्मेलन में इसकी फरमाइश होती है.यह सब जाननेवाले एक कवि मित्र ने हिंदी अनुवाद की सलाह दी . हो सकता है अनुवाद की वजह से कुछ गड़बड़ी हो और हिंदी पाठक तक वह सम्प्रेषित नहीं हो पा रही हो.
Ajay Shreevstav Ji Sakiba: अलकनंदा जी
आप की उम्दा कविताओं के लिए हार्दिक बधाई ..
एक गीत है योगेश का ...
रजनीगंधा फूल तुम्हारे ...
इस गीत में एक लाइन है
कितना सुख है बंधन में ...
ये है सिंड्रोम
अर्थात जब शोषित , शोषक से अपना सम्बन्धीकरण कर ले या कहे वो उस शोषण को भी एन्जॉय करने लगे या कहे उस शोषण से स्वयं का तदात्मिकरन कर ले या उस में ही अपना हेडोनिजम ढूंढ ले या अपने मूल्यों को उसी दिशा में प्रतिस्थापित कर दे
अपर्णा: Stockholm syndrome एक घटना की वजह से गढ़ी गई जब एक लड़की को अपने ही अपहरणकर्ता से सम्मोहन के हद तक प्रेम हो गया था और वो अपने परिजनों के विरुद्ध उसका साथ दे रही थी। उसकी उस मानसिकता को ये नाम दिया गया।
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