Friday, August 26, 2016

प्रकृति की संरचना के समय न जाने क्या और कैसे एक चूक हुई कि मनुष्य के ही हमशक्ल को मनुष्य से इतर और हेय जीवन मिला, जिन्हें किन्नर, हीजड़ा, और न जाने क्या क्या कहा जाता है, जो अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं. जो ताली बजा बजा कर लोगों की खुशियों में शामिल होते हैं, और खाते कमाते हैं, पर हर पल जीते जीते मरते हैं, क्योंकि वहां जिल्लत से ज्यादा कुछ नहीं.इस थर्ड जेंडर के बारे में हम तब ज्यादा सोचने को मजबूर होते हैं जब पढ़ते हैं, दीप्ति कुशवाह की कविता...निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे. यह कविता पहल  १०३ अंक में प्रकाशित हो चुकी  है | 
इस कविता को वाट्सअप के साहित्यिक समूह "साहित्य की बात "पर लगाया गया , जिसके एडमिन ब्रज श्रीवास्तव जी  है |कविता पर सभी पाठको ने विस्तृत  चर्चा करते हुए अपने अपने तथ्य गत विचार रखे 
रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है कविता और उस पर पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियाये .....|
परिचय :----
दीप्ति कुशवाह

ए- 204, पंचायतन 
आर. पी. टी. एस. मार्ग 
लक्ष्मीनगर 
नागपुर (प.)
440-022 
लोककला में प्रचुर लेखन                         
एक काव्य संग्रह - आशाएँ हैं आयुध                         
एक कला पुस्तक- मोतियन चौक पुराओ
09922822699
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 आज हम कुछ विशेष पेश कर रहे हैं, हमारे समूह की प्रतिभासंपन्न कवि, कलाकार, दीप्ति कुशवाह की अभिव्यंजना के आयाम सदैव मेरा ध्यान खींचते हैं, उनके पास संवेदित भाषा है जो
कविता में बैठकर तो और जादू करती है और हम चकित होते रहते हैं. 

आप सभी ज़रूर चकित होंगे आज भी जब पढ़ेंगे, उनकी लंबी कविता "निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे." जी हाँ इस कविता ने जहाँ उन बाशिंदों के लिए अपने जज़्बात दिये हैं, वहीं स्वयं दीप्ति भी पहल जैसी पत्रिका में इस कविता को प्रकाशित पाकर, और दीप्त हुई हैं. 

तो प्रस्तुत है आज यही कविता. 
इसे पढ़िये जरूर, अपने लिए, 
और कुछ कहिये जरूर औरों के लिए, दीप्ति कुशवाह के लिए. 
*ब्रज श्रीवास्तव. 


 🍿🍿                      
 || निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे ||


अपनी ही देह कारा है इनके लिए 
चिपका है माथे पर
प्रकृति की अक्षम्य भूल का कलंक
कोई दोष नहीं जिसमें इनका

कुल-परम्परा के
यशोगान से भरे धर्मग्रंथों में
इनकी कोई पहचान नहीं
बस नाम में एक झूठी गरिमा
किसी धनुर्धारी या सुदर्शनचक्रधारी के नाम से 
जुड़ने के बाद
जो दिखाती है
किसी दैवीय परम्परा से सम्बन्ध

कलियुग में राज करने का वरदान भी
लिखा हुआ है
वहीं कहीं पीले पन्नों पर
और भोग रहे हैं
वर्तमान का शाप ये बेखबर  

सुदूर अतीत की पीठ तक मिलते हैं
बूची ज़िन्दगियों के प्रमाण
मिस्त्र, बेबीलोन, मोहनजोदड़ो....
अपने इतिहास में 
दबाए हुए हैं तह-दर-तह
नपुंसक आहों के निशान 

'नपुंसक' शब्द एक गाली की तरह उभरता है
जिसमे छवि कौंधती है हरम की
जहाँ वे राजाओं के लिए
रनिवासों की रखवाली में
आश्वस्ति का प्रमाणपत्र थे
इनका उभयलिंगी व्यक्तित्व
मुफीद था गुप्तचरी के लिए
ख़त्म हुए राजा, ख़त्म हुए हरम
ये बचे रहे
वस्तु बन गए शरम की

जन्म लेते ही
परिवार के लिए बन जाते हैं अबूझ प्रश्नचिन्ह
जगहँसाई का सबब
बलैयाँ नहीं ली जातीं
इन किलकारियों की  
जो माँ के आँचल में उदासीनता
पिता के हृदय में कटुता घोलती हैं
गुलाबी या आसमानी कोई रंग नहीं  होता
नाथ वाले इन अनाथों के लिए
बचपन में मिला नाम भी
साथ नहीं निभाता दूर तक  
दुबारा नामकरण के साथ
हिस्सा बन जाते हैं
द्वंद्व से भरे विरूप संसार का
नकली उरोजों और स्त्रैण पोशाकों के साथ 
फूहड़ कोशिशें करते हैं
सम्पूर्ण स्त्री दिखने की 

पुंसत्व का त्याग एक बड़ा सवाल है

प्रकृति सौंपती है इन्हें
जीवन के सफ़र के लिए
धूप, हवा, पानी और अनाज की वही रसद
जो हम सबके हिस्से में है
संवेदनाओं में बख्शती है
एक सी तासीर
नर-मादा की किमया में डूबे हम
रहते ग़ाफिल
कि हमारी फ़िक्र का एक टुकड़ा
कम कर सकता है 
कापुरुषों के जीवनयापन की यंत्रणाएँ
बढ़ा सकता है 
विरोधाभासों के विरोध की हिम्मत   


यहाँ घोषणापत्रों में लुभावने वादे हैं
विकास की परिभाषाओं में
प्रदान की जा रही सुविधाएँ और आरक्षण
किसी भी शारीरिक कमी से पीड़ित लोगों को
वहीं इस अवयव विशेष के अविकास के लिए
सहानुभूति भी नहीं है किसी के पास
कोई दंड तय नहीं
उनके लिए जो दुत्कारते हैं इन्हें
बरसाते हैं बहिष्कार के चाबुक  
कोई दरवाजा नहीं खुलता इन पर
न मानव का, न मानवाधिकार का
यौनिक पहचान की बंद भूलभुलैया में
स्वाहा हो जाने के लिए शापित है
इनका प्रच्छन्न सामाजिक जीवन

कटु और मधुर स्मृतियों के
धागों को तोड़ कर
इन्हें निकल जाना होता है
अंतहीन रास्ते पर
जहाँ नहीं होते माँ-पिता की ममता के पेड़
भाई-बहन के नेह की लताएँ नहीं होतीं
उस दुनिया में
आगे बढ़ते इन क़दमों की किस्मत में
नहीं लिखी होती कभी घरवापसी

ये बंजर मरुभूमि हैं
कोई बीज नहीं डाला जाता आजीवन जिस पर
आर्द्रता भी नसीब नहीं होती प्रेम की
उपेक्षा के थपेड़े झेलते हुए
बस मेड़ पर ठहर जाता जीवन

“हर पुरुष में होती है एक स्त्री
हर स्त्री में होता है एक पुरुष”
यह कहने वाले ज्ञानी भी नहीं बता पाते
दर्शन की किस दहलीज पर
होगी सुनवाई 
मनु के इन वंशजों की

स्त्री की देह में पुरुष का मस्तिष्क
या पुरुष की देह में स्त्री का !
डोलते पेंडुलम सा मन लिये
वे आपकी ख़ुशियों में
अपनी खुशियाँ तलाशते हैं
शफ़ा उड़ेलते हैं अपनी दुआओं की
ताकि आपका सुख दो का पहाड़ा पढ़ सके   
बदले में दुराग्रह का प्रसाद ले कर
लौट जाते हैं अपनी निर्वीर्य दुनिया में
किसी नये संग्राम के स्याह दस्तावेज पर
करने के लिए हस्ताक्षर
इनके आकाश की सीमा बस इनकी आँखों तक
किसी रहस्यमय संसार के बाशिंदों जैसे  
अपने वंश की अंतिम इकाई
ये अर्धनारीश्वर

थकी उत्पीड़ित नींद के दौरान  
भूले-भटके आने वाले सपनों में शायद
आता होगा कोई राजकुमार
सफेद घोड़े पर हो कर सवार
या कोई परी करती होगी इंतज़ार
हथेली पर भौंह का बाल रख
क्या माँगते होंगे वे !
या उड़ा दिया करते होंगे उसे
बिना कुछ माँगे
उस कृपण-कठोर दाता को
दुविधा से उबारने के लिए


अपनी सुप्त यौन इच्छाओं में
पहुँचना चाहते होंगे वे भी
पर्वत के शिखर तक
उतरना घाटी की गहराइयों में
किसी हरहराती नदी में
दूर तक बह जाने का आनंद
उनके मन को  भी सहलाता होगा
उनका हित दाखिल नहीं होता
किसी की परवाह में  
बलात्  सुख नोंचने वाले हैं बहुतेरे
पत्र निकाल कर फेंक दिए जाने वाले
लिफाफों सी है नियति इनकी

भले आक्रान्ता नज़र आते हों
ये अपने व्यवहार में
छुपाए होते हैं अपने अन्दर
अपने वंश को अपने साथ
ख़त्म होते देखने का डर
ठीक ठीक तर्ज़ुमा कर पाना कठिन है
इनके बेसुरेपन का  
ये भोगी हुई तल्खियाँ हैं उनकी
जिन्होंने अंतस की मिठास हर ली है
तालियों की कर्कश गूँज में छुपी हुई हैं  
एकान्त की शोकान्तिकाएँ
निर्लज्जपन दिखाकर ढांक लेते हैं  
अपूर्ण इच्छाओं का सामूहिक रुदन

हारमोनों की
जटिल-कुटिल दगाबाज़ी में फँसे तृतीयलिंगी
सही पदार्थ नहीं हैं
नोबेल के लिए
चिकित्सीय हलकों में किसी सुगबुगाहट का
बायस ये नहीं
साहित्यिक विमर्श की कोई धारा भी
छूते हुए नहीं निकलती इनको
बाज़ार में चलने वाले सिक्के भी ये नहीं

शस्त्र और शास्त्रों में उलझे लोग
जो हर मनुष्य को उपयोग की वस्तु समझते हैं
इन्हें उपकरण में नहीं बदल पाए हैं अभी
इसलिए इनकी मौत की खबर
अखबार के किसी कोने में नहीं छप रही
नहीं छप रहा
कि कुछ लाशें ज़मींदोज़ की जा रही हैं
गड्ढों में सीधी खड़ी करके
थूकी जा रही है जिन पर जुगुप्सा  
अपनी ही बिरादरी द्वारा
चप्पलों से पीटी जा रही हैं
इस आस में
कि फिर कभी इस योनि में न लौटें

समय के समन्दर में
झंझावातों के बीच
बिना नाविक, बिना पतवार
भटकती हैं जो नौकाएँ
डगमगाती और झकोले खाती
अंततः कहाँ जाती हैं
कौन जानता है

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*प्रतिक्रियाएं *                                              
प्रवेश सोनी :--- दीप्ती बधाई ,कल इस विषय पर पदमा की कहानी पढ़ी आज कविता ।
 एक एक शब्द इनके जीवन के पट खोल रहे है । जितने विस्तार से तुमने इस कविता  में इनके जीवन को रचा है ,कोशिश करती हूँ वैसे ही विस्तार से लिखने की ।
शुभकामनाएं
💐💐💐💐💐💐💐💐                      
                     
   
 Saksena Madhu: उफ्फ्फ ..दीप्ती
कल पद्मा की कहानी पढ़ी उससे उबरी नहीं और आज फिर •• जीवन खींच दिया आपने ।ये विशेष वर्ग की गाथा .. उस कष्ट की में भागीदारी निभाते है जिसके लिए इनका कोई दोष नहीं ।दोष तो परिवार  समाज और सरकार का है ।इनको हमारी तरह हर अधिकार मिलना ही चाहिए । बहुत खूब लिखा ।
आभार ब्रज जी ।                      
ब्रजेश कानूनगो : दीप्ति को बहुत बधाई।ऐसी कविताओं के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है।दीप्ति ने यह दिखाया और कविता को मुकम्मल किया।बहुत बधाई।                      
 Mukesh Nema Ji: दीप्ति की मार्मिक ! विचारणीय कविता ! इन उपेक्षित रहस्यमयी जीवों के लिये बहुत कम कहा सुना गया है ! दीप्ति की यह कविता एक अच्छा प्रयास है ! बेहतरीन !                      
ब्रज श्रीवास्तव : धन्यवाद, आप लोग कविता और उसकी रचना प्रक्रिया पर चर्चा कर रहे हैं.                      
 Suren: महत्वपूर्ण कविता दीप्ति कुशवाह जी की । इस विषय को लेकर लिखना ,कविता ... वाकई दुरूह रहा होगा कवि के लिए भी ।
प्रायः अभिधा में कही गयी इस कविता का मोड साहनुभूति के एंगिल  से न होकर उभय लिंगी की अवस्तिथि  को पाठक के समक्ष पेश इस भांति करना है कि पाठक अचकचा जाये .... ये बात इस कविता को विशिष्टता भी देती है और कई  पुनर्पाठ में  कई आयाम भी खोलने को उत्सुक दिखती है ।

एक बात...  जो पॉइंट आउट करना संभवतः दुरुस्त हो कि  उभयलिंगी या ट्रांस जेंडर टर्म जब हम उपयोग करते है तो प्रचलित जेंडर स्त्री और पुरुष से परे के जेंडर को मार्क करते है परंतु इस कविता में कवि पितृसत्ता के व्यमोह से नही निकल पा रहा और वह निर्वीर्य जैसे शब्द या इसी को प्रोपेगेट करती अन्य काव्य पंक्तियां रचता है ...जो कविता की वैचारिकी को थोड़ा क्षीण करता प्रतीत होता है ।  ऐसा न भी हो ...इसलिए संभवतः शब्द का उपयोग किया ।  अभिधा में जब काव्य उतरे तो उसका विचार ताकत के साथ प्रवर्तनीय भी हो  तो पाठक के  मन पर भी इम्पैक्ट गहराता है ।

शेष टिपण्णी की कोशिश शाम तक करता हूँ , दो तीन पाठ और करके कि  शायद कविता और  खुले

अंततः कवि को बहुत शुभ कामनाएं महत्वपूर्ण कविता हमारे समक्ष लाने के लिए ।  💐💐💐💐                      

अरुणेश शुक्ल : Deepti ji ki achhi kavita.third sex par in dino samaaj aur sahitya dono me bahas shuru hui hai.Pradeep saurabh ka upnyas teesri taali bhi bahut maarmik hai.is visay par                      
[03:54, 8/25/2016] +91 74703 34648: Lambi kavita hone ke baavjood yah kavita aur intencity wa vistaar ki maang krti.khaskr economic n political angel ke sath Jo inke samoohon ko apradhi me tabdeel kar dekhta.
                    
 Sharad Kokas Ji: दीप्ति कुशवाह की यह कविता निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे पहल 103 में प्रकाशित हुई है । यह कविता किन्नरों की दुनिया के एक अप्रकाशित  पक्ष को प्रस्तुत करती है जिस पर सामान्यतः आम लोगों का ध्यान नहीं जाता ।
 कविता की शुरुआत करते हुए कवि ने ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों के साथ देश काल में उनकी स्थिति के ब्यौरे  प्रस्तुत किए हैं ।
अतीत से लेकर वर्तमान तक शासक और आम जनता के बीच स्थापित उनकी छवि को विभिन्न-विभिन्न और प्रतीकों और बिम्बो के माध्यम से उतारा है इस उपेक्षित समाज के रीति रिवाजों के उल्लेख के साथ  साथ वे सामाजिक संदर्भ में स्थितियों का विश्लेषण भी करती हैं जुगुप्सा अथवा सहानभूति के भाव से परे स्थितप्रज्ञ होकर वह उनकी दुनिया के कुछ ऐसे चित्र भी प्रस्तुत करती हैं जो सार्वजनिक नहीं होते हुए भी अब तक व्याख्या से परे माने गए ।

यह एक गंभीर कविता है जो किन्नरों के प्रति  व्यवहार के विषय में पारम्परिक तरीकों से अलहदा सोचने को बाध्य करती है ।                      
 Ghanshym Das Ji Sakiba: "निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे" दीप्ति कुशवाह जी की इस रचना को पहले शब्द जो मुहँ से निकले लाजवाब । उस वर्ग के लिये इतनी शानदार रचना , जो सदैव से सामाजिक , शासकीय तथा व्यक्तिगत हर स्तर पर उपेक्षित रहा है । इस रचना के माध्यम से कवि ने उनकी दुश्वारियों के साथ साथ मौत के बाद दुबारा इस योनि में जन्म न ले इस कारण उनके साथ किये जाने वाले व्यवहार ने उस वर्ग की अपने जीवन के प्रति तथा उन लोगों के प्रति सदियों से किये जा रहे व्यवहार की दुर्व्यवहार की  अमिट छाप को स्पष्ट देखा जा सकता है । पाठकीय दृष्टिकोण से अविस्मरणीय रचना । दीप्ति कुशवाह जी को बहुत बहुत बधाई व ब्रज जी को इतनी शानदार रचना पोस्ट करने के लिये बहुत बहुत आभार 💐💐🙏🙏                      
                   
                     
 Aanand Krishn Ji: फ्रेंच भाषा के व्याकरण में इस थर्ड जेंडर का अस्तित्व नहीं है । कुछ और भाषाओं में भी हो ।                      
 अपर्णा: और कुछ पुरातन नेटिव अमेरिकन कबीले पाँच जेंडर मानते थे!!!                      
Suren: भैया आनंद जी ,गायब हो जाना हर भाषा में है ,इसका ये मतलब नही की आप इतने लंबे वक्त के लिए गायब हो जाये । 😊😊💐                      
 Meena Sharma Sakiba: बचपन से अब तक नाचते . अपने लिये एक दूसरी दुनियाँ बसाने
की कोशिश करते वे ..अपने हक के लिए लड़ते..जीतते, शबनम मौसी की तरह और झपट्टा मारते
अपने हक के लिये चील की तरह
ये इसी समाज के कायदे कानून ने सिखाया है...आज दीप्ति जी की कविता की खुलती गिरहों ने बयाँ किया.
जाना कि ये तल्खियाँ कहाँ से उतरीं ज़ुबान और व्यवहार में भी...
*बिना नाविक बिना पतवार की जगह
बिना नाविक,बेपतवार भी ठीक लगता.
 *वस्तु बन गये शर्म की/ वस्तु बन गये लज्जा की...मुझे ज्यादा बेहतर
लगा,क्योंकि रूप रंग जब नारी का
तब लज्जा ज्यादा सटीक,मेरी समझ से.
शाब्दिक अर्थ ही प्रतिध्वनित होते
हैं, समय के समन्दर में.
दर्शन की किस दहलीज पर
होगी सुनवाई
मनु के इन वंशजों की..
 र्म पर आघात करती पंक्तियाँ.
एक लम्बी व सामाजिक सरोकारों से युक्त कविता के लिए बधाई दीप्ति जी !
प्रस्तुति के लिए ब्रज जी का
 आभार !                      
       
 Aanand Krishn Ji: अपर्णा जी, ये रोचक बात बताई आपने                      
अपर्णा: जी। लिंक ढूंढ रही हूँ। उस समाज की सोच का विस्तार और सहजता दोंनो विस्मित करता है।                      
                                       
 Mukesh Kumar Sinha: कविता पढ़ते हुए बहुत कुछ जान गया किन्नरो के लिए
गहन आलेख समेटे हुए  
                  
Jeevan S Rajak Ji Sakiba: Deepti ji ki bahut hi achhi Kavita
Vastvikta ka khubsurat aur marmik chitran
Bahut badhai Deepti ji  
                  
 Aanand Krishn Ji: दीप्ति दीदी की कविता पढ़ कर बस यही सोच रहा हूँ की दुनिया कितनी स्वार्थी और निर्मम है । केवल बहुसंख्य he और she के बारे में मानवीय संवेदनाएं हैं । थर्ड जेंडर यदि है भी तो उसे it कह कर पशुओं और निर्जीव चीज़ों के लिए निर्धारित करके संवेदना से परे कर दिया । ये भाषाओं की बहुत बड़ी असफलता है जहाँ किन्नरों  के लिए कोई सर्वनाम, कोई संबोधन, कोई क्रियारूप और कोई संवेदनशील अभिव्यक्ति नहीं है ।                    
अनीता कार्नेटकर: दीप्ती जी की बेहद संवेदनशील रचना,  आदि काल से  समाज  के इस  वर्ग  की पीड़ा  चिन्ही ही नही  गई ।इनके जीवन के मूलभूत प्रश्नों पर आज भी एक उदासीनता और चुप्पी  का माहौल है, अपनो की उपेक्षा  एवं समाज के तिरस्कार को  अपनी  नियति मान कर जीवन काटते इस वर्ग के एक  एक मनोभाव और विडम्बना ओं पर दीप्ति  जी  की नज़र गई है, ऐसी वैचारिक कविता के लिए रचनाकार एवं साकीबा का धन्यवाद                      
Aanand Krishn Ji: अपर्णा जी ने पुराने अमेरिकन नेटिव कबीलों की भाषा में 5 जेंडर होने की बात बता कर भाषाओं की असमर्थता की पीड़ा को कुछ कम किया है । यदि उन भाषाओं में ये जेंडर होगा तो निश्चित ही उनके प्रति सम्मानजनक व संवेदनशील अभिव्यक्तियाँ भी होंगी ।                      
                     
ब्रज श्रीवास्तव : धन्यवाद सोनी जी, जीवन जी, मीना जी, मुकेश नेमा जी, सुरेन, आनंद, प्रवेश, मधु, अनिता, विनीता, अपर्णा, और अरूणेश कि विचार व्यक्त किए आप सबने.                      
डॉ दिनेश  जी : आदरेय मंच प्रणाम इतनी अच्छी और सार्थक चर्चा होती है कि क्या बोलें ये याद ही नहीं आता पर आदरेय भाई अविनाश तिवारी जी की बात से मै सहमत हूं "बिना नाम की टीप"वाली से ।आप सबकी सूचना के लिये बता दूं कि दिल्ली से "मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच.संचालित होता है उसका एक ही नियम अनूठा है कि रचनाकार न अपनी रचना पढेगा ना सुनेगा,इसका मै भी सदस्य/संयोजक जबलपुर हूं और श्री तिवारी सर भ़ी इसमें पारदर्शिता और गोपनीयता भी बरती जाती है ✍🏻🍁।

सूरज प्रकाश  सर : आमतौर पर किसी भी whatsapp ग्रुप में जाकर बेशक रचनाएं पढ़ता हूं लेकिन टिप्पणी नहीं कर पाता। आज दीप्ति कुशवाह की कविता पढ़कर रहा नहीं जा रहा है। बेशक इस विषय पर उपन्यास बहुत पढे हैं लेकिन लंबी कविता आज पूरी मार्मिकता और ईमानदारी के साथ  लिखी गई है। मन में कई बातों  है अब होने लगा है सच हम ईश्वर के बारे में ईश्वर के बारे में कितना कम जानते हैं और कितना कम बात करना चाहते हैं दीप्ति को बधाई कविता के जरिए उठाया और बहस का मुद्दा बनाया

Dipti Kushwaha: गुणीजनों के बीच है कविता, यह बात ख़ुशी देती है, तसल्ली भी ।
आपकी टिप्पणियों से हौसला मिलेगा और बेहतर करने का सबक भी।
मैं आभारी हूँ, पूरे मन से ।                        
स्मिता तिवारी : Holi.Diwali.savan.shadi.bachche ke janam hone par.train  main kinnaron dwara bakhsheesh mangi jane par.......lagta hai .In becharon ka bhi haq hai....astitva  hai...lekin Susri Deeptiji ki rachana ne hila diya- bahut khoob Deepti ji👌🏻👏🏽  
                   
 Chandrashekhar Ji: दीप्ति जी की कविता पढ़ते हुए लंबी लगी ही नहीं,ऐसा लगा की जल्दी क्यों ख़त्म कर दी,और लिखती जातीं....
जिन पर शायद ही कभी कविता लिखी गयी हो उन मनुष्यों पर इतनी प्रभावशाली कविता के लिए बहुत बधाई।
मतदाता सूची में पुरुष/महिला/अन्य के रूप में मतदाताओं का विवरण किन्नरों के हित मे उम्मीद जगाता है.. विगत वर्षों में कुछ चुनाव भी जीते हैं इन्होंने। इस विषय को भी कविता में शामिल किया सकता है.. लंबी कविता में शायद परिवर्धन की गुंजाईश होती है...
पुनः बधाई दीप्ति जी।                      
Rajendr Shivastav Ji: ऐसा नहीं कि इस विषय पर लिखा न गया हो।कविता -कहानी रूपक आदि बहुत  पढ़ने को मिला,किन्तु दीप्ति जी ने अलग दृष्टिकोण से अपनी  बात कही है ।
कहन भी बहुत प्रभावी।
"........एकांत की शोकांतिकाएँ" ।
"......लिफाफों सी है इनकी नियति" ।
आह कहें या वाह ,पाठक क्या कहे?
यह तय है पाठक बङी देर और दूर तक इस कविता को ले कर
चलेगा ।कभी  सोचेगा इन पतवार विहीन भटकती नौकाओं के बिषय में तो कभी  बह जायेगा कविता के कहन में।
दीप्ति जी बहुत धन्यवाद ।                      
Saksena Madhu: हमारे यहां महाभारत काल में किन्नरों को उल्लेखित किया है ।वृहनला और शिखण्डी के रूप में ... ।त्रेता वे सतयुग में ई का उल्लेख नही                      
 Ravindra Swapnil: दीप्ती जी की कविता को लेकर में कुछ देर पहले तक आलोचकीय हमला करने की एक झोल वाली जगह तलाश रहा था।
इस चक्कर में कविता को दो बार पढ़ ने की म्हणत करना पढ़ी । ऐसी कोई जगह नहीं मिली । एक सुगठित कविता को अनावश्यक छेड़ा भी नहीं किया जा सकता।

कविता बहुत ही गठित है। एक नया विषय है। जीवन के एक पक्ष पर पूरी विविधता से विस्तार से पकड़ती है साधती है।

कविता में कही अनावश्यक शब्दों का इतेमाल नहीं किया है। मुझे लगता है दीप्ती जी ने म्हणत की है, पहले खुद पढ़ी फिर पाठकों को सौंपी है।

बधाई देने से पहले अंत की शिकायत की जा सकती है। वे अंत को और अधिक संगत बना सकती है। अभी उसे कविता की उसी त्वरा के साथ कर सकती हैं।                      


 Avinash Tivari Sir: दीप्ति कुशवाहा जी की कविता निर्वीय दुनिया के बाशिंदे उभयलिंगियों को चित्रित करती एक सारगर्भित रचना है।प्रकृति की अक्षम्य भूल का कलंक भोगती शापित पीढी अपने जीवन भर उपहास और उपेक्षा का दंश झेले हिजड़े किन्नर छक्के जैसे नामों से पुकारी जातिे हैं ।समाज में सम्मान से जीने लायक सब कुछ होता है इनके पास हाथ पैर बल बुध्दि विवेक फिर भी समाज की उपेक्षा के शिकार का पुरुष ,बृहन्नला बन कर यंत्रणा भोगने को विवश ।विकलांगों दिव्यांगों के लिये तो समाज कितना सोचता है क्योंकि परिवार समाज में रहते हैं और इनहें जन्मते ही दूध की मक्खी की तरह घर से बाहर फैंक दिया जाता है और उसके साथ ही फिंक जाती हैं संवेदनाऐ उत्तरदायित्व और अपनेपन का बोध ।यह सही कहा है कि हर पुरुष में एक स्त्री होती है और हर स्त्री मे एक पुरुष तभी तो हम ईश्वर के अर्धनारीश्वर स्वरूप को पूजते हैं ।दीप्ति जी ने इस अनसुलझे उपेक्षित विषय को उठाकर अच्छा प्रयास किया  है वक्त आ गया है यह एक ज्वलंत मुद्दा बने विकलांगों की तरह इन्हे समाज परिवार मे अन्य सदस्यों की तरह घर परिवार संस्था मे स्वीकार करे।तभी इनको शिक्षा व्यवसाय सम्पत्ति का अधिकार समाज मे बराबरी की हिस्सेदारी मिलेगी।क्योंकि समाज ओर परिवार के सहारे के बिना कुछ भी संभव नहीं है।देश विदेश मे ऐसे कई उदाहरण है जहाँ ये लीक से हट कर काम करने मे सफल हुए हैं एक दो तो विधायक मेयर तक बने हैं।यह कविता सशक्त आवाज बने ऐसी उम्मीद रखते हैं।कविता अच्छी सुगठित उद्देश्यपूर्ण है।इस विषय पर लगातार सकारात्मक लेखन आवश्यक है और उससे भी ज्यादा आवश्यक है हमारी आपकी और समाज की स्वीकारोक्ति सकारात्मक पहल ।पुनः बहुत बहुत बधाई दीप्तिजी ब्रज जी।।                      
 Dipti Kushwaha: यह अपनत्व कीमती है... बेशकीमती !
🙏🙏                      
                     
Manjusha Man: दीप्ति जी की कविता बहुत ही मार्मिक है। हृदय को छू गयी। लम्बी कविता एक पल के लिए भी लम्बी नहीं लगी। एक एक पंक्ति महत्वपूर्ण है, एक शब्द भी बे-मतलब नहीं। बधाई दीप्ति जी
सन 2001-2002 में केयर-इंडिया नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था में काम करते हुए जबलपुर की कंजर बस्ती नामक क्षेत्र में इनके साथ स्वास्थ्य सुधार पर काम करते हुए उभ्यलिंगियों के साथ गहरे जुड़ने पर जो पाया दीप्ति जी की कविता में वही सब मिला। गहरा अवसाद, निराशा, अलगाव जो इन्हें देखकर कभी नज़र नहीं आता। वे अनुभव ताजा हो आये।    
                   
 Arti Tivari: दीप्ती की ये कविता,.जब पहली बार पढ़ी तो,मुग्ध हुई थी,.दूसरे पाठ में चमत्कृत,और आज फिर से एक बार और पढ़कर एक तृप्ति सी हुई,..ऐसे विषय पर लिखना एक पीड़ा से एक ऐसी पीड़ा से गुज़रना है,.जिसे व्यक्त करना बहुत मुश्किल है।
ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भों में इस कविता के तार बहुत बारीक़ बुनावट में गूंथकर दीप्ती ने इनके अनकहे पहलू बहुत मार्मिकता से बयान किये हैं।
कलयुग में राज करने का वरदान एकदम सटीक है इस पैरा में
पुंसत्व का त्याग एक बड़ा सवाल है "बहुत अच्छी पंक्ति है
और व्यंजना में न होते हुए भी"शब्दों के ध्वन्यात्मक तथा आंतरिक अर्थों का बहुत सुंदर समन्वय इस कविता में देखने को मिलता है।
इस कविता में दीप्ती ने जन्म से मृत्यु तक के सभी आयामों को,हर पड़ाव को समेटा है,.और इसे पूरी गरिमा दी है,.इस कविता का धरातल बौद्धिक होते हुए भी मानवीय संवेदनाओं से लबरेज़ है,और यही इसकी विशेषता भी है। हम ऐसा सोचते हैं तो क्यों?और हमें क्या सोचना चाहिए थर्ड जेंडर के लिए,..कितने स्वार्थी हैं हम ,.हमे हमारी हर ख़ुशी में,इनकी उपस्थिति चाहिए,.इनकी दुआयें चाहिए,,इनके पैर और इनकी ढोलक की थाप हमारे आँगन में गूंजनी चाहिए,.बहुत शुभ होती है ऐसे मांगलिक अवसरों पर इनकी उपस्तिथि,..किन्तु हमारे जीवन में नही,माता पिता भाई बहन भी इनसे दूर रहना चाहते हैं,.इनकी छाया भी नही पड़ने देना चाहते,अपने घर की दहलीज़ पे उफ्फ ..
और इनकी मिट्टी तो मिट्टी में मिलकर भी सिर्फ घृणा ही पाती है,.प्रकृति की कितनी निष्ठुर सजा है ये,पूरा जीवन कितनी आकाँक्षाओं को बोते होंगे ये अपनी आँखों की नम ज़मीन पर,.और कभी भी अंकुर न फूटते देख कितने निराश भी,..क्या यही नियति है? इस सभ्य समाज में एक निर्दोष (थर्डजेंडर)  की,..भला इनका क्या कसूर होता है इस विकृति के साथ जन्मने में किन्तु,.गृहत्याग ही इनका हासिल है,.उपेक्षा ही इनकी कमाई है,और घृणित समझे जाना ही इनका जीवन😭😭
इस पर गंभीरता से सबको सोचना चाहिए।
दीप्ती को बधाई इस अच्छी और विचारणीय कविता के लिए🍀🌸
ब्रज जी का आभार🙏

आभा दुबे : पहल 103 में निवीर्य कविता पढ़ने के बाद दीप्ती जी की इस कविता को कई बार पढ़ चुकी हूँ । जब भी पढ़ती हूँ एक बार मन में ये बात जरूर आती है कि ये कविता दीप्ती जी की सिग्नेचर कविता है और ये मैंने उनसे कहा भी है । तब तक तो  जरूर है जब तक कोई और मील का पत्थर रचना  दीप्ती जी नहीं लातीं । इस  विषय पर लिखनेवाले  सचमुच बिरले ही कवि या लेखक हैं या होंगे जिन्होंने 'थर्ड जेंडर' कहे जाने वाले इन लाेगाें की विडम्बना पर इतनी गहरी संवेदनशीलता एवं गम्भीरता से लिखा हाे ।जिन लोगों को देखकर आम और बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग भी अधिकांशतः   रेल के डिब्बे में  देखकर ,सीट पर बैठे अखबार के पीछे अपना मुँह छिपा लेने में ही भलाई समझते हैं ऐसे लोगों पर  ऐतिहासिक उद्धरणाें एवं मिथकाें की सटीक उपस्थिति से दीप्ती जी ने कविता को और भी खास बना दिया है.. दीप्ति जी काे हार्दिक बधाई.. यूँ ही लिखती रहें ।                        
ब्रज श्रीवास्तव : .
मैंने लिखा था न कि दीप्ति कुशवाह की अभिव्यंजना अलहदा है, कथ्य भी वह नये ही लेकर आतीं हैं, तो  अब तो वैसा देखा आप सब ने,,,,, मेरी एक कविता है किन्नर पर केंद्रित, उसमें मैं एक घटना की वजह से कुछ कह सका था. पर यहाँ तो तवील ब्यौरा है जिसमें भाषिक बर्ताव और सहअनूभूत ख़यालात  मौजूद हैं,

लंबी कविता का निर्वहन तब मुश्किल होता है जब उसमें कोई घटना न हो, घटना को लेकर लिखना अपेक्षाकृत आसान काम है, लेकिन यहां कहानी नुमा कविता नहीँ लिखी जा रही है इसलिये यह वाकई दुष्कर रहा कि किन्नर जीवन पर एक लंबी नज़्म लिखी जाती, दीप्ति यह कर सकीं हैं,| मैं सोच रहा हूँ कि कुछ मिले, जिसे मैं कमी कहूँ ;पर नही मिल रहा, इसलिये यह और अच्छी कविता है, दीप्ति कुशवाह पर कभी यह आरोप ज़रूर लगेगा कि वह ललित भाषा का इस्तेमाल करती हैं, पर उनको इसी भाषा की वजह से अलग पहचान भी मिलेगी क्योंकि यह छायावादी नकल नहीं, एक अर्जित की गई भाषा है,. |आलोचकीय विवेक वैसे भी हम में नहीं, पर सुरेन और अरुणेश में हैं, देखिए न उन्होंने कैसे 'निर्वीर्य' शब्द के चयन पर अंगुली रखी. कुल मिलाकर साकीबा के लिए एक अच्छी प्रस्तुति.
🍿🍿

'                        
 Padma Ji: दीप्ति कुशवाह जी की अच्छी कविता। अब जब कविता अच्छी है तो डुबकियाँ लगा लगाकर उसमे से गलतियाँ निकालने की कोशिश क्यों की जाए।

कर भी लें तो सीप और माणिक्य मोती के आलावा कुछ न मिलेगा। 😀

दीप्ति जी को बधाई
ब्रज जी को धन्यवाद।

Dr Mohan Nagar Sakiba: लंबी कविताओं में श्री विष्णु खरे जी की कविताएँ प्रवाह के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ मैं जो कब खत्म होती है पता ही नहीं चलता  ! कविताई के सौंदर्यशास्त्र में मुझे विजेन्द्र जी बेहतरीन लगते हैं और कथ्य के लिहाज से बहुत सी कविताओं में देवताले जी .. इस कविता में तीनों लेखकों की कविताओं वाली सफल खूबी के अलावा एक चौथी महत्वपूर्ण बात है इसकी मौलिकता  .. इस विषय पर इतनी महत्वपूर्ण और इतनी मुकम्मल कविता पहली बार पढ़ी मैंने  । पिछले साल " मोछु नटवा "पढ़ी थी और इस साल दीप्ति जी की ये अद्भुत रचना।

एक बहस अक्सर होती रहती है कुछ वरिष्ठ जनों से कि  - अब मौलिक नहीं लिखा जा रहा .. ये कविता अब रिफरेंस के लिए संरक्षित करता हूँ कि मौलिक लिखा रहा है .. लिखा जाता है अब भी  ।

Its an achievement to read such kind of poetry.. Awesome 👏                      
                     
Dr Mohan Nagar Sakiba: और भी बहुत कुछ पर फिलहाल तो पुर्नपाठ पुर्नपाठ .. इसे याद रह जाने तक पढ़ना है .. ऐसी कविताओं पर कोई प्रतिक्रिया भी बहुत छोटी लगती है .. एक आलेख तक  👏                      
                     
 Aalknanda Sane Tai: सुबह लिखने से चूक जाने पर शाम को ये संकट सामने आ जाता है कि अब क्या लिखें  और आज तो इस अद्भुत कविता पर ढेर सारा अद्भुत लिखा जा चुका है । यह कविता पहली बार पढी तब जैसी सिहरन हुई थी, वैसी ही हर बार होती है । रत्ती भर भी कम नहीं । दीप्ती की संवेदनशीलता को सलाम ।                      
                     
Sudhir Deshpande Ji: दीप्ति जी की कविता एक ऐसी दुनिया के पहलुओं को खोलती है, जिनके बारे में करूणा नही बल्कि अज्ञानतापरक दुर्भावनाएं भी समाज में प्रचलित है। सर्वथा उपेक्षित इस समुदाय में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार नही है, केवल सामाजिक उदासीनता के कारण। इस पीडा के साथ सहानुभूत होना उस जीवन के साथ दीप्ति कुशवाह ने अपनी लम्बी कविता के साथ जोडा है।                      
                   
 Ravindra Swapnil: कविता मार्मिक नहीं के सब्जेक्ट मार्मिक है।                      
Sudhir Deshpande Ji: अविनाशजी और आरती जी ने निर्वीय दुनिया के वाशिंदे कविता के हर पहलु की अच्छी पडताल की है। दीप्तिजी ने भी कविता में इस समुदाय के प्रति सम्पूर्ण मानवीय दृष्टिकोण. रखते हुए दुनिया के उनके प्रति दुर्व्यवहार और असंवेदनशीलता को रेखांकित किया है। दिन भर मित्रों ने काफी विस्तृत चर्चा की। लगभग कविता की सम्पूर्ण व्याख्या शरददा ने प्रस्तुत की है।                      
                     
 Sandhya: दीप्ति की कविता बहुत उद्वेलित करती है मन को छूती है अच्छी कविता💥                      
अरुणेश शुक्ल : Is kavita ka ek sankat yeh bhi hai ki third sex ko purush me reduse  kr k dekhti.ya yah soch hai ki yah purush hain.Jo ki stree  aachran hetu baadhya hain.BT biologically aisa  ni hai.                        
] Suren: अरुणेश भाई मैंने भी इसे इंगित किया 👍🏽                      
                     
अरुणेश शुक्ल : Ise  aur lamba  likha Jana chahiye jisme unke satta prapti ke antah sangharsh jabardasti third sex me shamil kiya Jana ya mrityu ke baad ki unki karunik rashme shaamil hon.sawal ye bi kya karan RHA ki shikhandi wa arjun jaiso  ka example bhi inhe  garima na dila ska.yah bade kaam to krte rhe  par WO bhi sexual discourse se guzarte hue patriarchy verses other sex me tabdeel ho gya jisme vijay patriarchy ki hui.ek epistemological bada  discourse hai.par achhi kavita ke liye deepti ko badhai to banti hai.haan ise  aur likhe wo

 Dr Dipti Johri Sakiba: स्त्री पुरुष की बाइनरी में देखने का आदी समाज ,जनसँख्या के इस एक प्रतिशत से भी कम को नजरअंदाज करने में ही सुविधा देखता है ।दरअसल समाज में अन्य लैंगिक रुझानों को भी अनदेखा ही किये जाने की प्रवृति है जिसमे गे,लेस्बियन भो शामिल है । फिर यहाँ तो प्रकृति से ही लैंगिकता निर्धारित नही है। समाज  प्रकृति प्रद्दत लिंग के अनुसार अपेक्षित लैंगिक रुझान एक व्यक्ति पर कंडिशन्ड करता है ,व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुसार खरा उतरना होता है जो व्यक्ति इतर रुझान रखते है वे समाज की मुख्य धारा में शामिल नही किये जाते है और इसके मूल में निश्चय ही समाज की व्यवस्थामूलक पितृसत्तात्मक शक्तियां कार्यशील होती है । उत्तराधुनिक नया ट्रेंड ही सभी बाइनरी को deconstruct करके हाशिये के लोगो को लाइमलाइट में लाने को उध्दत है इसी क्रम में ये सभी विमर्श relevant बने है स्त्री, दलित ,आदिवासी  ,इटर्लिंगी वगैरह ......यह कविता इन विमर्श की कड़ी में महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराती है ।इसके लिए कवयित्री को साधुवाद।    
कविता एकदम सही विवरणों के साथ अपने कहन में सफल है ,झकझोरती है बस थोड़ी और काव्यात्मकता हो सकने की सम्भावना जरूर है
विषय ही इतना उध्वेलित करने वाला है कि इस पर सहज ही मुझे कुछ दिन पूर्व पढ़ी अपर्णा अनेकवर्णा की किन्नर गाथा याद आ गयी . भावपूर्ण संवेदनशील कविता है
अपर्णा जी हो तो उसे भी लगाये उनसे अनुरोध है ।                      
 Sanjiv.jain: राजनीति ने जनता को जनसंख्या में बदल दिया। इससे डिगनिटी वस्तु से पहचानी जाने लगी। अनुपयोगी वस्तु को घर से बाहर कर दिया जाता है।
                   
अपर्णा: शुक्रिया दीप्ति! आपको वो कविता याद रही।
सबसे पहले टिप्पणी की बधाई लें। सटीक और संतुलित टिप्पणी है। 👏🏽👏🏽
आज दीप्ति जी की कविता का दिन है। फिर सही। 😊🙏🏽

Dr Mohan Nagar Sakiba: विषय से हटके एक बात। - इतनी उच्च स्तरीय रचना किसी भी लेखक के लिए एक अभिशाप सी भी होती है क्योंकि पाठक अपने अंतर में बहुत ऊँचा स्थान दे रखता है ऐसी एक रचना पर ही लेखक को .. फिर उसके बाद उस लेखक की जरा सी कमतर रचना भी सबसे पहले उसी पाठक को खलती है  । लेखक खुद भी जब नया लिखने बैठता है तो ऐसी रचना चुनौती सी सामने खड़ी हो जाती है कि इससे बेहतर लिख दिखाओ .. फिर बहुत अर्से तक कुछ नया लिखा नहीं जाता .. लिखा तो भी कमतर लगता है खुद को भी  .. मेरा व्यक्तिगत आंकलन है ये .. यदि किसी और के साथ ऐसा न हुआ / होता है तो इसे व्यक्तिगत वक्तव्य मानें। दीप्ति जी को पुनः बधाई                      
Dipti Kushwaha: मोहन जी, आपके पास बहुत गहरी दृष्टि है...सहमत हूँ मैं                      
Sanjiv. jain: दीप्ती जी आपकी कविता तो बेजोड है। मैं व्यस्तता के चलते विस्तार से लिख नहीं सका।                      
प्रवेश सोनी : दीप्ती सुबह स्वागत टीप लिखकर चुप हो गई सोचा था दिन में एक दो बार और पढ़कर विस्तार से लिखूंगी ।लेकिन सभी साथियों ने इतना लिख दिया की समझ ही नही आया की क्या बचा जिसे लिखूँ ।बहुत सारी नई जानकारियां भी हासिल हुई प्रतिक्रियाओं से ।एक बात और जो इनके जीवन के रस्मों रिवाजों के तहत बहुत पहले पता चली थी किसी शहर विशेष में इनका सामूहिक सम्मेलन होता है ।कहाँ और कब इसकी पूरी जानकारी नहीं है ।  इस सम्मेलन में भारत के सभी क्षेत्रों से ये इक्कट्ठे होते है और कोई विशेष रस्म निभाते है ।
सुना भर है ,ठोस सबूत नही है इस बात के ।किसी को इस बारे मैं जानकारी हो तो अवश्य चर्चा करें ।

किन्नरों के जीवन से जुडी हर बात आज अचम्भित कर रही है ।
एक बार और शुभकामनाएं प्रिय दीप्ती ।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

मणि मोहन जी :  साहित्यिक विमर्श की कोई धारा भी
छूते हुए नहीं निकलती इनको "

 प्रेमचंद गाँधी जी :  दीप्ती जी की यह  एक जेन्युइन कविता है और इस दौर में फैशन की तरह लिखी जा रहीं या महज सनसनी पैदा कर अपने नाम का झंडा गाड़ने के लिखी जा रहीं कविताओं के बीच एक अलग तरह की कविता के दृश्य में हमे प्रवेश करने और विचार करने को मजबूर करती है ।बहुत बधाई ।

अछूते विषय पर लिखना एक अलग बात है और उसे संवेदनाओं के घटाटोप में डूबते-उतरते और लथपथ होने के कगार पर नूह की नौका की तरह बचाकर ले आना एक अलग ही बात है।
भारतीय उपमहाद्वीप में किन्नरों के साथ जो सामाजिक व्यवहार किया जाता रहा है, उसे इतनी सघन काव्यात्मक संवेदनाओं के साथ एक आत्मालोचन और आत्म-प्रताड़ना के साथ काव्य रूप में देखना हमारे अपने ही जीवन की एक ऐसी निर्मम आलोचना है कि हमें अपने इतिहास से लेकर वर्तमान तक पर गहरा क्षोभ होता है कि हमने नैसर्गिक रूप से किंचित् भिन्न अपने ही समुदाय के साथ यह कितना बड़ा अपराध और अन्याय किया है।

सूरज प्रकाश सर : दीप्ति की कविता पढ़कर लगा कि हम इस वर्ग के प्रति कितना कम सोचते हैं। पूरे हिंदी साहित्य को खंगालने पर गिनती के पांच उपन्‍यास और चार ही फिल्में नजर आती हैं। दीप्ति को बधाई कि एक सशक्त कविता के जरिए हमें झकझोरा। ये काम सजग रचनाकार ही करते हैं

अरुणेश शुक्ल : Bhai ek baat hai jaise  stree  paida  ni hoti banayi jati  hai waise kinnar bhi.unki nirmiti bhi social construction hai                      
 Is shabd me value loading ki prakriya hme samajhni hogi.yah establish krna hoga ki WO jyada se jyada ek sexual decision bhar hai socio political n cultural division power construction hai                      
  Is tarah inki  nirmiti ek vrahattar power discourse ka hissa hai.jahan  inke share inke ango pr valueloading  kr  khaskar santaan  prapti ke sandarbh me apne paurush wa varchasva ko legitimise karti hai.santaan  prapti wa paida  karne ki power ko ek moolya ke roop me pratisthit krti.sexual pleasure yha mulya ni balki  santaan  prapti hai.yah ek wider power discourse hai Jo patriarchy ko majboot krta .in par baat krna is patriarchal varchasva ko todna hai.deepti ji isiliye badhai ki paatra hain baki kala sadhte sadhte sadhti hai  
                   
 Komal Somrwaal: बहुत ही प्रासंगिक रचना.. एक संवेदनशील मुद्दे पर प्रकाश ड़ाला। कितने गहरे भावों,वेदनाओं,अश्रुओं,दर्दों का यथार्थ चित्रण.. मेरे पास शब्द नहीं.. सिवाय अद्भुत के। आपकी लेखनी को नमन.. 👏🏼👏🏼                                            

हरगोविंद मैथिल किन्नरों की दुनिया एक अलग तरह की होती है, जिनके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है ।दीप्ति जी की लम्बी कविता उनके जीवन का विस्तृत और बहुत बारीकी से विवरण  प्रस्तुत करती है ।
किन्नरों को भी ससम्मान जीने का हक होना चाहिए ।समाज उनका मजाक न उड़ाये और न ही घृणा की दृष्टि से देखे, जबकि समाज के प्रति ऐसी  सम्मानित भावना उपरांत भी किन्नर, समाज में तिरस्कृत और बहिष्कृत है ।इनके आधे अधूरेपन की वजह से भले ही समाज इन्हे अपना अंग मानने से इंकार करता रहे, लेकिन वास्तविकता यही है कि ये समाज के अंग है ।दिव्यांग लोगों की तरह किन्नर भी लाचार है, जबकि इन्हे तिरस्कार व उपेक्षा की नहीं बल्कि प्यार और सम्मान देने की जरूरत है ।
बधाई दीप्ति जी, आभार ब्रज जी ।
विलम्ब के लिए क्षमा

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