Thursday, April 12, 2018

कहानी: अरबी बाज़ार
मूल- जेम्स जॉयस
अनुवाद- उपमा ऋचा


उपमा ऋचा 

 

उपमा 'ऋचा'
शिक्षा- एम् ए, एम् एड, डिप्लोमा इन टीचिंग इंग्लिश एज़ सेकिंड
लैंग्वेज़. डिप्लोमा इन कम्प्यूटर हार्डवेयर एन्ड नेटवर्किंग.
पिछले एक दशक से लेखन क्षेत्र में सक्रिय। कविता कहानी और आलेखों का विभिन्न
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
मैक्सिम गोर्की के उपन्यास 'द लाइफ़ ऑफ़
मत्वेया कोझेम्याकिन' एवम् 'कन्फेशन' के अलावा माइकल एडवर्ड की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया' व मैक्सिम गोर्की की संस्मरणात्मक किताब 'लिट्रेरी पोर्ट्रेट' का अनुवाद और इंदिरा गांधी विषयक एक मौलिक पुस्तक
प्रकाशनाधीन।
सम्प्रति-स्वतंत्र पत्रकार एवम् अनुवादक


कहानी 
अरबी बाज़ार 

नॉर्थ रिचमंड स्ट्रीट अमूमन शांत रहती थी। सिवाय उस एक घंटे के जब क्रिश्चियन ब्रदर्स स्कूल की छुट्टी होती। इस अंधी गली के आख़िरी छोर पर एक दो मंजिला मकान अकेला खड़ा हुआ था। अपने पड़ौसियों से अलग-थलग... गली के दूसरे मकान अपने अभिजात्य के प्रति जागरूक थे और अपने रंगहीन चेहरों से एक-दूसरे को ताकते रहते थे।
हमारे घर के पिछले ड्राइंग रूम में कभी एक किराएदार की मौत हुई थी, जो पादरी था। लंबे समय से बंद होने के कारण सारे कमरों में एक घुटी हुई सी हवा डोलती थी। रसोई घर के पीछे बना कचरा घर बेकार कागजात से अटा पड़ा था। इन कागज़ात में मुझे कुछ मुड़ी-तुड़ी किताबें मिलीं। घर के पीछे के घने बाग के बीच में एक सेब का पेड़ था और कुछ उलझी हुई झाड़ियां थीं। सर्दियों में हम रात का खाना दिन छिपने से पहले ही खा लिया करते थे। खाने के बाद जब हम गली में निकलते तो घरों पर उदासी छाई होती। हमारे ऊपर पल-पल रंग बदलता बनफ़्शा आसमान होता और नीचे सड़क की बत्तियाँ, जो अपने धूमिल उजालों को उठाए रहतीं। ठंडी हवा हम पर हमला करतीं, पर हम तब तक खेलते रहते जब तक हमारे शरीर सुर्ख न हो जाएं। हमारी आवाजें ख़ामोश सड़क में गूँजती रहतीं। हमारे खेल अंधेरी गलियों से होकर हमें घरों के पीछे ले जाते। कॉटेज के पीछे भागते हुए हम पिछले दरवाजों से होकर अस्तबल की गंध से भरे एक घने बगीचे में पहुंच जाते, जहां गाड़ीवान घोड़े को सहला रहा होता या उसके बाल संवार रहा होता। जिससे घोड़े की साज़ पर लगे बक्कल टकरा जाते और फिज़ा में एक संगीत गूंजने लगता।
जब हम लौटते,  तो रसोईघरों की खिड़कियां गली को रोशनी से भर चुकी होतीं। इसी वक़्त मंगन की बहन उसे बुलाने के लिए दरवाजे तक आती और हम उसे सावधानी से ताकने लगते। अधखुले दरवाजे से छनकर आती रोशनी में उसका वजूद बड़े मानीखेज ढ़ंग से नुमाया हो रहा होता। उसके हिलने से उसका लिबास सिहर जाता और उसके बालों की मुलायम लटें इधर-उधर बिखर जातीं। हर सुबह मैं फर्श पर लेटा उसके दरवाजे की ओर देखता रहता। हां मगर एतिहातन पर्दे को इतना खींच लेता कि मैं दिखाई न दूं। जब वह दरवाजे पर आती, तो मेरा दिल उछल पड़ता। मैं हॉल में दौड़ जाता और किताबें उठाकर उसके पीछे चलने लगता। साथ चलते हुए उसकी सांवली काया  हमेशा मेरी आँखों की जद में रहती थी और जब हम उस बिंदु पर पहुंचते जहां से हमारे रास्ते अलग होते थे, मैं चाल तेज करके आगे बढ़ जाता ताकि उसके ओझल होने की कसक आंखों में जमा न हो।




सुबह दर सुबह यही होता रहा। मैंने कुछ शब्दों को छोड़कर, उससे कभी कोई बात नहीं की थी। फिर भी उसका नाम पागलपन बनकर मेरे ख़ून में दौड़ता था। उसकी छवि उन जगहों पर भी मेरे साथ रहती, जो प्रेम के लिहाज़ से सबसे ख़राब समझी जाती हैं। शनिवार की शाम को मेरी चाची बाजार सामान खरीदने जाती थीं और थैले उठाने के लिए मुझे उनके साथ जाना पड़ता था। हम पियक्कड़ों और भिखारिनों से भरी चमचमाती सड़कों पर चलते। मजदूरों की गलियों, दुकानों पर काम करने वाले लड़कों के तीखे फिकरों और नाकसुरे सड़कछाप गवैयों के बीच से होकर गुजरते। गवैये ओडोनो रॉसा के गीत गा रहे होते या देश की दुश्वारियों के गीत... यह शोर मेरे मन के एक कोने को ही छू पाता था। मैं सोचता रहता था कि मैं बुराइयों की इस भीड़ में से अपने प्रेम को सुरक्षित निकालकर ले जा रहा हूं। उसका नाम मेरे होठों पर उन अनजान दुआओं और प्रार्थनाओं के बीच भी छलक आता था, जिन्हें मैं ख़ुद समझ नहीं पाता था। मेरी आंखें अक्सर आंसुओं से भरी होतीं। (मैं नहीं बता सकता कि क्यों) कभी-कभी एक सैलाब सा उमड़कर मेरे दिल में जमा हो जाता। मैं अपने भविष्य के बारे में कम सोचता था। मैं नहीं जानता था कि कभी उससे बात करूंगा या नहीं और अगर मैंने उससे बात की, तो मैं उसे अपने भ्रमित भावों के बारे में कैसे बताउंगा? लेकिन मेरा शरीर एक सितार के जैसा हो चला था, जो उसके शब्दों और इशारों से बज उठता था जैसे उंगलियों से सितार के तार...
एक शाम मैं पीछे वाले ड्राइंगरूम में गया, जिसमें पादरी की मौत हुई थी। यह बरसात की अंधेरी शाम थी और घर में कोई आवाज न थी। टूटी हुई खिड़की में से मैं बारिश का धरती पर टकराना सुन रहा था। बूंदों की नोक मिट्टी में खेल रही थीं। कुछ दूर कोई लैंप या खिड़की चमक रही थी। मैं शुक्रगुजार था कि मैं बहुत कम देख सकता था। मेरी इंद्रियां ख़ुद को छिपाए रखना चाहती थीं। मुझे लग रहा था कि वे फिसल पड़ेंगी। मैंने अपनी हथेलियों को दबाया, और न जाने कितनी बार बुदबुदाया, प्यार, प्यार और प्यार...

आखिर वो दिन आया जब उसने ख़ुद मुझसे बात की। उस वक़्त मैं रेलिंग पर अकेला था। उसने मुझसे पूछा कि मैं अरबी बाजार जा सकता हूं क्या? मेरी समझ में नहीं आया कि हां कहूं या न।
'तुम ख़ुद क्यों नहीं चली जातीं?'  मैंने यूं ही पूछ लिया।
उसने अपना चांदी का कंगन उतारते हुए कहा, 'मैं नहीं जा सकती क्योंकि इस हफ़्ते मेरे कान्वेंट में रिट्रीट है। रेलिंग की एक कील थामे हुए उसने अपना सिर मेरी ओर झुकाया। हमारे दरवाज़े से आती रोशनी उसकी गोरी गर्दन पर पड़ रही थी, जिससे उसकी बिखरी लटें और रेलिंग पर रखा हाथ जगमगा उठा था। ये रोशनी उसकी पोशाक पर फैल रही थी। वह इतनी सहज मुद्रा में खड़ी थी कि उसके पेटीकोट की सफेद झालर भी चमक रही थी।  
उसने कहा, 'आपके लिए जाना आसान होगा।'






मैंने कहा,  'अगर मैं जाउंगा तो तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ लाऊंगा।'
उस शाम के बाद अनगिनत बेवकूफ़ियां सोते-जागते मेरे ख़यालों को घेरे रहतीं! मैं जब भी पढ़ने बैठता, रात को अपने कमरे में या दिन में कक्षा में, तो उसकी छवि मेरे और मेरी किताब के पन्नों के बीच आ जाती। 'अरबी...' इस शब्द के तमाम अक्षर मुझे सन्नाटों में आवाज़ देते, जिसमें मेरी आत्मा डूबती जाती और मेरे ऊपर एक पूर्वी जादू हावी होने लगता।

शनिवार की रात को मैंने बाजार जाने की इज़ाजत मांगी। मेरी चाची हैरान से पूछा कि कहीं इसमें कोई राज तो छिपा नहीं? कक्षा में भी मुझे तमाम सवालों के जवाब देने पड़े। मैंने अपने गुरु जी के चेहरे को कोमल से कठोर होते देखा। उन्हें भी लगा कि मैं आलस फैला रहा हूं। मैं अपने भटकते विचारों को एक साथ आवाज़ नहीं दे सकता था। मुझमें जीवन के गंभीर काम के लिए कोई धैर्य नहीं था, जो अब मेरे और मेरी इच्छा के बीच खड़ा था और मुझे बच्चों के खेल जैसा लग रहा था। भद्दे और एकरस खेल जैसा... शनिवार की सुबह मैंने अपने चाचा को याद दिलाया कि मैं शाम को बाजार जाना चाहता हूं। अल्मारी में अपनी टोपी के लिए ब्रश खोजते हुए उन्होंने जवाब दिया, 'हां बच्चे मुझे पता है।'
क्योंकि वह हॉल में थे, मैं सामने वाले दरवाजे की ओर नहीं जा सकता था लिहाज़ा खिड़की पर खड़ा रहा। मैं घर से खराब मन से निकला और धीरे-धीरे स्कूल की तरफ चल दिया। हवा बड़ी निर्मम और रूखी थी और पहले से ही डरे मन में शंका जगा रही थी। जब मैं रात का खाना खाने घर आया, चाचा घर पर नहीं थे। जाने में अभी बहुत वक़्त था। मैं थोड़ी देर घड़ी को घूरता रहा और जब उसकी टिकटिक मुझे परेशान करने लगी, मैं कमरे से बाहर निकल आया। सीढ़ी चढ़कर मैं छत पर पहुंचा। खाली, ठंडे, अंधेरे और उदास कमरों ने मुझे मुक्त कर दिया और मैं इस कमरे से उस कमरे तक गाते हुए डोलने लगा। सामने की खिड़की से मैंने देखा कि नीचे सड़क पर मेरे साथी खेल रहे हैं। उनकी चिल्लाहटें बहुत धीमी और अस्पष्ट होकर मुझ तक आ रही थीं। ठंडे शीशे पर सिर झुकाकर मैं उस अंधेरे घर को देख रहा था, जहां वो रहती थी। मैं वहां घंटे भर खड़ा रहा। मुझे अपनी कल्पना में बसी सांवली छवि- घुमावदार गर्दन पर लहराते हुए बाल, रेलिंग पर रखे हाथ और पोशाक की झालर- के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।  जब मैं नीचे आया तो देखा कि बूढ़ी और बातूनी मिसेज मर्सर अलाव के पास बैठी थीं। चाय-टेबल पर मुझे उनकी बातों को सहन करना पड़ा। खाना एक घंटे से भी ज़्यादा देर तक चला, लेकिन चाचा अभी तक नहीं आए थे। आख़िर मिसेज़ मर्सर जाने के लिए उठ खड़ी हुईं क्योंकि आठ बजे के बाद उन्हें बाहर रहना पसंद नहीं था और रात की हवा उनकी सेहत के लिए खराब थी। उनके जाने के बाद मैं कमरे में चहल कदमी करने लगा।

चाची ने कहा, 'मुझे डर लग रहा है। भगवान के लिए तुम बाजार मत जाओ।'
नौ बजे मैंने हॉल के दरवाज़े पर चाचा की आहट सुनी। मैंने उन्हें खुद से बात करते सुना और अल्मारी को हिलने की आवाज़ को भी, जिस पर वे अपने ओवरकोट का वजन डाल रहे थे। जब खाना खा रहे थे, मैंने उनसे बाजार में जाने के लिए पैसे मांगे जो कि वे भूल गए थे।
उन्होंने कहा, 'लोग बिस्तर पर अपनी पहली नींद ले रहे हैं और तुम...'
मैं बिल्कुल भी मुस्कराया।  
चाची ने हुलसकर कहा, 'पैसे क्यों दे नहीं देते उसे? पहले ही बेचारे को काफी देर हो गई है।'
चाचा बोले, 'हां भईअगर बच्चे खेलेंगे नहीं, बस काम में लगे रहेंगे तो बिगड़ नहीं जाएंगे।' और मुझसे दूसरी बार पूछा कि 'मैं कहाँ जा रहा हूं?'
मैंने भी उन्हें दूसरी बार बताया, 'मुझे अरबी जाना है।'  जब मैं रसोईघर से निकला उस वक्त वे चाची को कोई कविता सुना रहे थे।








बकिंघम स्ट्रीट से स्टेशन की ओर जाते हुए मैं अपने हाथ में पैसों को कसकर दबाए रहा। सड़क पर खरीदारों की भीड़ और रोशनी मुझे मेरी यात्रा का उद्देश्य याद करा रही थी। मैंने एक सुनसान ट्रेन की तीसरी श्रेणी में अपनी सीट ली। एक असहनीय विलंब के बाद ट्रेन धीरे-धीरे स्टेशन से चली और उजड़े घरों व चमकती नदी के ऊपर आगे बढ़ी। वेस्टलैंड रो स्टेशन पर लोगों की एक भीड़ दरवाजे में घुसपैठ मचा रही थी, लेकिन गेटकीपर यह कहकर उन्हें वापस लौटा रहा था कि यह ट्रेन ख़ासतौर पर बाजार के लिए है। मैं डिब्बे में अकेला रह गया। कुछ ही देर बाद मेरे सामने एक बड़ी सी इमारत थी जिसपर एक जादुई नाम चमक रहा था- 'अरबी बाज़ार'
मुझे डर था कि बाजार बंद न हो जाए, इसीलिए हड़बड़ाहट में थके हुए से आदमी के हाथ में बतौर प्रवेश शुल्क एक शिलिंग थमा दिया। अगले ही पल मैं एक बड़े हॉल में था, जिसका बड़ा हिस्सा अंधेरे में डूबा हुआ था। लगभग सभी स्टाल बंद थे और चर्च जैसी शांति फैली हुई थी। मैं घबराहट में बाजार के बीचोंबीच चला आया। इक्का-दुक्का लोग उन स्टालों पर जमा थे, जो अभी तक खुले हुए थे। मैं सिक्कों की आवाज़ें सुन रहा था। मुझे बहुत मुश्किल से याद आया कि मैं यहां क्यों आया हूं?  मैं एक स्टाल पर गया, वहां चीनी मिट्टी के बरतन, फूलदान और टी-सेट देखे। स्टॉल पर एक युवती, दो युवकों के साथहंस-हंसकर बात कर रही थी।
उसने मुझसे पूछा, कुछ खरीदना है क्या?'
उसका स्वर उत्साहजनक नहीं था।  उसने जैसे किसी काम की तरह मुझसे पूछ लिया था। मैंने बड़ी हरसत से मर्तबानों की ओर देखा, जो पहरेदारों की तरह अंधेरे में कुड़कुड़ाए हुए खड़े थे और कहा, 'नहीं, धन्यवाद।'
युवती वापस अपने दोस्तों की ओर मुड़ गई। एक या दो बार उसने पलटकर मुझे देखा। मैं उसकी दुकान के आगे बेमकसद खड़ा था, लेकिन यह दिखाते हुए कि मुझे उसके समान में दिलचस्पी है। फिर मैं धीरे धीरे बाजार के बीच में चला आया। मेरी जेब में रखे छह रुपयों में से दो रुपए खिसक चुके थे। तभी गैलरी के एक छोर से आती एक आवाज सुनाई दी कि बत्तियां बंद होने वाली हैं।
बाज़ार पूरी तरह से अंधेरे में डूब गया।  उस अंधेरे में चीज़ों को घूरते हुए मैंने ख़ुद को ऐसे प्राणी के रूप में पाया जो पता नहीं किस भाव से संचालित होकर यहां चला आया था। सब तरफ अंधेरा था केवल मेरी आंखें दुख और गुस्से से जल रही थीं।


लेखक परिचय-
आयरलैण्ड के रचनाकार जेम्स जॉयस (1882-1941) ने सिर्फ कहानियां ही नहीं लिखीं, उपन्यास भी लिखे और साहित्य को यूलिसिसजैसे महाग्रन्थ दिया।
1914 में प्रकाशित यह कहानी जेम्स जॉयस की बेहतरीन कहानियों में शुमार है।  


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