Sunday, November 13, 2016

नदियों में बहता जल महज जल  नहीं एक संस्कृति है ,सदियों  की कहानियों  का साक्ष्य है ,निर्मल जल  के तरल में भी एक तरल भाव है जिसे महसूस कर उपन्यास जूण जातरा का सृजन किया कवि ,कथाकार ,उपन्यासकार ,व्यंगकार ,आलोचक ,समीक्षक ,अनुवादक श्री अतुल कनक ने |२०१२ में इस उपन्यास के लिए अतुल कनक जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया |

राजस्थानी भाषा से हिंदी में अनुवाद कर रचना प्रवेश पर प्रस्तुत किये ,उपन्यास के कुछ अंश प्रवेश सोनी ने 


नदी से पूछ कर देखो

नदी से पूछ कर देखो
करती है
घाट से आपस में
बहुत दिनों से ऐसी बातें
नदी
किया करती है इन दिनों
जाने कैसी –कैसी बातें
नदी के मन में क्या है ,
कैसी है उसकी पीड़ा
किसी दिन डूब कर देखो ...

प्यासा न रहे कोय
ऐसा वचन धारण किये हुए थी
कैसा लगता है
जब वचन टूटता है
यह जानने के लिए
नदी की तरह सूख कर देखों|


अतुल कनक 
जन्म 16फरवरी
कोटा ,राजस्थान 
शिक्षा- एम ए (हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास)
नौ पुस्तकें प्रकाशित
हिन्दी, अंग्रेजी, राजस्थानी में लेखन
13 साल की उम्र से कविसम्मेलनों में सक्रिय
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान और वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय के राजस्थानी पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल
साहित्य अकादमी सहित देश के कुछ पुरस्कार/ सम्मान


जूण जातरा


अपने पिता की अस्थि विसर्जन करते  समय नदियों से अपने मन को बांधकर लेखक ने उनके जीवन को अपने भीतर समेट लिया | जैसे नदी उनके  भीतर बह रही हो, जैसे कल कल करती लहरों के मीठे संगीत के साथ नदी के भीतर आर्तनाद करता दर्द बह रहा हो |नदियों का जल सदियों से धरा पर प्रहावित है उस प्रवाह में सभ्यता की जननी बन बह रही नदियां ,इतिहास की स्मृतियों को समेटे हुए |जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी कल कल करती लहरों  से ,मन में हिलोरे लेती नदियां सूख कर अब बेरंग उदास बेवा सी हो गई है | मानव सभ्यता और विकास की कहानी कहती यह नदिया मनुष्य और उसके आचरण का बखान करे तो  किससे ?उसके आसुओंकी नमी से अपने ह्रदय को भिगो कर लेखक ने लिखा  उपन्यास “जूण –जातरा “ |
यह उपन्यास राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ है और इस की विशेष बात यह है की यह सम्पूर्ण उपन्यास नदी के कथ्य में है |चम्बल नदी अपने कथन में देश विदेश की समस्त नदियों ,उनसे जुडी संस्कृति और कथा –कहानियों से जुड़े उनके सुख –दुःख  का बखान  करती है |

चंबल नदी की पीड़ा उसके ही शब्दों में

मैं चंबल हूं वहीं चंबल हूँ,चर्मण्यवती  जो विंध्याचल के आँगन से निकलकर यमुना जी में स्वयं को समर्पित कर देती हूँ।
लोग मुझे सदासलिला भी कहते हैं याने वह नदी जिसमें हमेशा पानी का प्रवाह बना रहे।लेकिन लोग कुछ भी कहें....पर मैं इसे समर्पण का ही प्रताप मानती हूं|
आप अपनी खुशी दूसरों के सुख में समा कर देखो आपके  अस्तित्व के अंश अंश पर ऐसा अमृत समा जाएगा  कि काल कितना भी विकराल हो जाए ,आपकी कीर्ति को छू भी नहीं सकता |आज आप सोच रहे होंगे कि बहती नदी को आज बात करने की फुर्सत कैसे मिल गई |नदी की नियति तो निरंतर बहना ही है| ठहरने का नाम तो मौत है जिंदगी प्यारी है तो लगातार भागते रहो |महानगर और इंसानों की तरह ,जिनको दम लेने की भी फुर्सत नहीं |लेकिन नदी और महानगर के लोगों की भागमभाग में बहुत फर्क है |नदी अपने भीतर का  नेह बांटने को बहती है ,और इंसान ज्यादा से ज्यादा पाने  के लिए भागता है |महानगर में भागते  इंसान को न अपने लिए समय है न  अपनों के लिए |पर नदियां तो अनजानों से भी खुलकर मिलती है |

नदी यदि अपना पराए का भेद करती तो उसके  स्पर्श मात्र से पाप मिटने की ताकत उसे नहीं मिलती |लेकिन पाप मिटाने की सामर्थ ही नदियों के लिए बहुत बड़ा श्राप बन गई |सरस्वती  नदी को शायद इसका भान हो गया था कि कलयुग में मनुष्य नदियों से ऐसा बुरा बर्ताव करेगा ,इसलिए ऐसी लुप्त हुई थी अपनी कोई निशानी भी पृथ्वी पर नहीं छोड़ी| वह सरस्वती थी उसे ही यह ज्ञान नहीं ,होता तो और किसे होता |
अन्य  नदियां ऐसी बड़भागी नहीं हो सकी |जब तक रही तब तक वेद मंत्रों की रचना की महत्ता बताती रही और जब दुनिया की नियत पर पाप की पणी चढ़ने लगी तो अपने को धरती के गर्भ में समा लिया |

नदिया अपने जल के साथ संस्कारों की घुट्टी भी देती है |सभ्यता  की जननी बन जाती है |चाहे इस राह पर उम्हे कितने ही कष्ट उठाने पडे |गंगापुत्र भीष्म वचनबद्ध होकर ताउम्र दुख दुविधाओं को झेलते रहे लेकिन वचन से कभी डिगे नहीं |यह गंगा मां के ही संस्कार थे उनमें |हालाँकि वो भी  कौनसी सुख से रही |आज कलयुग में गंगा ही ऐसे ऐसे मनुष्यों के पाप धोने के लिए बह रही है जिन पापों को यमराज भी अपने लेखों से नहीं मिटा सकता |

दहेज के लिए बहू को जला देना ,पराई बहन बेटियों की इज्जत का हरण करने में ज़रा भी न हिचकना , सत्ता में बने रहने के लिए मानवता को नीलाम कर देना ,धर्म की आड़ में भोले भाले नर-नारियों के विश्वास भरोसे से खेलना.. ऐसे पापों की गंदगी को कौन धो सकता है |जमाने के पाप धोने की धुन में गंगा मैली होती गई और सब ने उसकी इस दशा से आंखें मूंद ली |

यह कैसा रंग है जमाने पर मुझे गंगा मां की चिंता हो रही है| कावड  में माता पिता को यात्रा कराने वाले श्रवण कुमार और पिता के वचन की लाज  रखने की खातिर दर दर भटकने वाले राम की भूमि पर आज गंगा मां का किसी संतान को खयाल नहीं| पत्थर पत्थर पूज कर औलाद पाने वाले मां-बाप को आज औलादों से तिरस्कृत होना पड़ रहा है |तो  गंगा मां की कौन सुध ले |

नदियां तो सारे संसार को एक समान समझती है लेकिन मनुष्य ही मनुष्य होते हुए भी मनुष्य -मनुष्य में भेद करता आया है |जाति ,धर्म ,भाषा, प्रांत ,वर्ण  और देश में सब को बांट दिया| जल तो मनुष्य के जीवन का मोरमुकुट है.... ,आन है ..कोई कैसे अपनी ही आन पर पाँव रख उसे रोंध सकता है |लेकिन लगता है इस युग में सब अंधे हो गए है ,उन्हें अपने स्वार्थ के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं देता |आज यदि मनुष्य की आँख का पानी नहीं मरा होता तो ,नदियों के पानी के साथ ऐसा बुरा बर्ताव नहीं करता की उनकी आने वाली नस्लों के लिए पीने का शुद्ध पानी भी न बच सकें |

 एक दूसरे से बड़ा होने के जुनून की  कुभावना श्रेष्ठ नहीं बनाती है |बड़ा होने के लिए तो बड़प्पन होना जरूरी है सरल होना जरूरी है| पांडवों के राजसूय यज्ञ में विष्णु अवतारी कहे जाने वाले कृष्ण ने सभी मेहमानों केपाँव  धोने  की जिम्मेदारी ली ,जिसके चरणों की धूल से सारे पाप मिट जाते हैं वह अवतारी दूसरों के पाँव धुलाता है  ,यह कृष्ण की महानता और बड़प्पन था |

प्रेम की बात सब करते हैं लेकिन प्रेम की गहराई को कोई नहीं समझता |नदी के सुख-दुख की गहराई को समझने के लिए नदी की धारा के साथ बहना होता है| समय अपने  निशान बहती धारा पर छोड़ देता है |जिन्हें नदियाँ अपने गर्भ में समां लेती है | युगों में करवट लेते समय की काल कलवित होती कहानियों की साक्षी बनी नदियां अनवरत बह रही है |हिमालय के उतुंग से समुद्रतल में समा जाने की यात्रा में समेट रही है |

 हम नदियों ने मनुष्य के साथ रिश्ते को दुखी होकर भी निभाया |उसके कई कुकर्मों ने आंखों के आंसुओं को सुखा दिया |नर्मदा के आस-पास के गांव में आज भी ये रिवाज है कि बेटी के जन्म होने पर उसे मां बाप नर्मदा में बहा देते हैं| स्त्री और नदी की जीवन यात्रा एक समान होती है| हाड मॉस की मनुष्य योनि में भी स्त्री को सांस लेने की इजाजत नहीं दी |नन्हे से जीव को कोई कैसे पानी में डाल सकता है |मनुष्य तो निपट पत्थर ही हो गया है|जिस  नर्मदा के स्पर्श से पत्थर तक शिव  हो जाते हैं और यह मनुष्य पत्थर बना ऐसे पत्थरदिल सरीके कर्म करता रहा  |ओकारेश्वर में कंकर कंकर में शिव दिखाई देते हैं |मैंने कई बार नर्मदा जी का रोना सुना |मनुष्य के ऐसे कर्मों को देख कर हम नदियां रोये नहीं तो क्या करें| ऊपर से पाखंड देखो.हाथ जोड़कर कहते हैं .नर्बदा जी बच्ची को आप के सहारे छोड़ कर रहे हैं .आप पाल सको तो पाल लेना|

आग ,पानी, हवा, आकाश ,धरती पंचतत्व से बने शरीर को नदियों के वश में नहीं हो सकता पालना |पानी का स्वभाव तो पानी हो जाना है|रिवाजों और गरीबी के वशीभूत इन मूर्खों की बात तो समझ आती है, लेकिन सर्व सम्रद्ध परिवारों में जन्म से पहले की कोख में लड़कियों की हत्या कर देना किस प्रकार की तरक्की का बयान है |कैसा विकास है |यह लोग नहीं जानते मां के गर्भ में पलते जीव की हत्या से हम नदियों के शरीर के खून में से हीमोग्लोबिन का एक हिस्सा खत्म हो जाता है (लेखक की कल्पना का आधार )लोग यदि इस तरह लड़कियों को गर्भ में ही मारते रहेंगे तो हम सभी नदियों भी खून में लोहे की कमी से मर जाएगी |

हुबली से लेकर ह्वांग हो ही तक श्राप की इतनी कहानियां बिखरी पड़ी है की गिनती बीत जाएगी पर आंखों से बहने वाले आंसू नहीं बीतेंगे इन दर्द भरी कहानियों की वजह से |चीन की पीली नदी के उत्तर इलाके में मिनघुन प्रथा में जिंदा लड़की बहाने से भी खतरनाक रीत है |यह भी चीन के इस दौर में शुरू हुई थी जिस दौर को चीन के इतिहास का जोहाग युग कहा जाता है | उस समय यह चलन था कि कोई युवा पुरुष की मृत्यु बिना शादी के हो जाए तो उसी की हमउम्र लड़की को उसके साथ दफना देते थे |ताकि उस युवक को  अगले जन्म में सब सुख प्राप्त हो| मनुष्य की ऐसी करतूतों के डर से कौन  न पीला पड़ जाए| पीली नदी यों ही पीली नहीं पड़ी।

स्त्री जीवन सदैव संघर्षरत ही रहा |आम्रपाली की मुक्ति तथागत की वजह से हो गई वरना उसे नगरवधू बना दिया था | राजा भर्तहरी की कहानी यहाँ उलट है |यहाँ स्त्री ने ही धोखा दिया ,राजा भर्तहरी ने  अपनी किताब में लिखा है ....भगवती मानी जाने वाली गंगा स्वर्ग से उतरी तो शिवजी के माथे पर ,वहाँ से हिमालय पर और प्रथ्वी पर से होती हुई समुद्र में गिरी| एक बार गिरना शुरू हुआ तो गिरती ही चली गई |यह बात स्त्री पर भी चरितार्थ होती है|

विदेशी जमीन पर भी नदियों के दर्द कम नहीं है |इंग्लेंड में एक जगह है ‘डेवोम’ |उसके पास बिकलेघ  का किला है चौदहवीं सदी की बात है |बिकलेघ के किले पर कब्ज़ा करने की सोच ने सर अलेक्जेन्डर क्रोस ने केयोर घराने के बहुत लोगों को मौत के घाट उतार दिया |इनमे एक एक युवा की गर्दन उतार कर उसके शारीर को पास में बहती नदी में जिस जगह फेंका ,उस जगह आज भी २४ जून के दिन वो नदी लाल हो जाती है |इतनी सदियों पहले फेंके गए शारीर से आज भी नदी में रक्त बह रहा है |ऐसे अत्याचारों से नदी आज भी खून के आंसू बहा रही है |


और भी कई कहानियां जो बह रही है पूरी पृथ्वी पर नदियों की धाराओ के साथ ,जिन्हें इस उपन्यास में सहेजा है श्री अतुल कनक ने |


Wednesday, November 2, 2016

समकालीन कविता की प्रचलित शब्दावली में यदि कही किसी कवि की कविता में कोई शब्द आपको झटके से रोक कर अचम्भित कर दे तो वही ठहर जाने का मन होता है। उस शब्द के सृजन और कविता के अर्थ से पाठक अपने को आसानी से मुक्त नहीं कर पाता। कुछ ऐसे ही शब्द, प्रतिक और ताज़ा बिम्बों से तराशी कवितायें है युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव की, जिन्हें वाट्सअप के साहित्यिक समूह, साहित्य की बात पर श्री ब्रज श्रीवास्तव ने प्रस्तुत किया।

अखिलेश जी की कवितायेँ जीवन के राग विराग के साथ मानवता की पक्षधर कविता भी है। कविता के स्वर वर्तमान समय की विद्रूपताओं को भी ध्वनि देते है, और कहीं-कहीं वैज्ञानिक आधार भी बनते है। इन कविताओं में हताशा का बीहड़ है तो संघर्ष के साथ जीवन की जिजीविषा भी।

सम्भावना और ऊर्जा से भरे युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव की कवितायें है आज रचना प्रवेश पर

परिचय
नाम : अखिलेश श्रीवास्तव

जन्म तिथि :14.02.81 ,गोरखपुर
शिक्षा : हरकोर्ट बटलर टेक्नोलाजिकल इन्स्टीट्यूट  कानपुर से केमिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक की डिग्री ।

प्रकाशित कृति : साझा काव्य संकलन सम्भावना. काम मे 6-7 कविताएं संकलित । नेट पर से ही पंकज बिष्ट के संमयातर व हरमिन्दर के समय पत्रिका मे प्रकाशित। कुछ बडे आलोचकों ने कविताएं समीक्षाओ में कोट की ।आज तक एक भी कविता छपने के लिए नहीं भेजी ।अंतरजाल पर एक राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता मे प्रथम स्थान ।

अनुभव: हिंदयुग्म.काम  मे सक्रिय भूमिका व कुछ काव्य संग्रहो का प्रकाशन अनुभव ।

संप्रति: प्रतिष्ठित मल्टीनेशनल कंपनी मे वरिष्ठ प्रबंधक 

निवास: भरूच , गुजरात।
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1..|चांद पर पानी 

संरचना: असंघनित अणुओं के रूप में 
रंग: रंगहीन
सुगंध: गंधरहित
स्वाद: आंशिक क्षारीय
स्थान: चाँद के मस्तक के ठीक नीचे

वैज्ञानिको, मत चिल्लाओ 
यूरेका यूरेका
जो मिला है वो पानी नहीं है।

ढाई सौ टन का जो उपग्रह टकराया है सतह से
उसी से रुआँसा हो गया चाँद 
निकल पड़े है आँखों से आँसू।

आये दिन कोई न कोई
रपटईया आता चाँद को
देखो जरा
चाँद का मुँह टेढ़ा हो गया है।

जब तक बूढ़ा चाँद
कला के साथ रहता था
खुश था

विज्ञान के वादों में आकर
चाँद उलझ गया है
हजारों टन उपग्रहीय कचरे में 
कभी कभी तो बेचारा
मुँह भी नहीं देख पता
धरती का।

पिछले दिनों 
एक उपग्रह टकरा गया
सप्त ऋषियों से
जब वो जा रहे थे सुबह को बुलाने
चटक गया अगस्त ऋषि का कमंडल
लहूलुहान हो गए अत्री
और टांग तुड़वा बैठे है ऋषि गौतम
चिड़चिड़े हो गए सप्त ऋषि
क्रोध में बड़बड़ाते रहते हैं
और
बढ़ जाती है धरती पर सुनामियाँ।

उधर ग्राम भुसना में
परसु कहार
सुबह से इंतज़ार में है 
कि जुठारे ठाकुर कुएँ का पानी 
बना दे गंगा जल 
तो हमहू तर करे गला।

चाँद पर पानी मिलने की खबर से
कहार मगन है
पर कहारिन उतार देती है नशा 
'मिली पानी त
पहिले पिहे ब्रह्मण 
फिर पिहे ठाकुर 
औ जबले तोहार
लम्बर आई
ओरा जाई पानी।'

२...महंगाई- चीनी / दाल / चावल / गेहूँ

चीनी: 
पिता जी चिल्लाकर 
कर रहे हैं रामायण का पाठ 
बेटा बिना खाए गया है स्कूल 
छुटकी को दी गयी है नाम कटा 
घर बिठाने की धमकी 
माँ एकादसी के मौन व्रत में 
बड़बड़ाते हुए कर रही है 
बेगान-स्प्रे का छिड़काव 
हुआ क्या है? 
कुछ नहीं ... 
कल रात 
चिटियाँ ढो ले गयी हैं 
चीनी के तीन दाने 
रसोई से।

गेहूँ: 
तैतीस करोड़ देवताओ में 
अधिकांश को मिल गए हैं 
कमल व गुलाब के आसन 
पर लक्ष्मी तो लक्ष्मी है 
वो क्षीर सागर में लेटे 
सृष्टिपालक विष्णु के 
सिरहाने रखे 
गेहूँ की बालियों पर 
विराजमान हैं। 

चावल : 
आध्यात्मिक भारत बन गया है 
सोने की चिड़िया 
और चुग रहा है मोती 
पर छोटी गौरैया की 
टूटे चोच से रिस रहा है खून 
जूठी पर 
साफ़ से ज्यादा साफ़ 
थालियों में आज भी 
नहीं मिल पाया चाउर खुद्दी का 
इक भी दाना 
बेहतर होता 
अम्मा की नज़र बचा 
खा लेती 
नाली के किनारे के 
दो चार कीड़े। 

दाल :
बीमार बेटे को 
सुबह का नुख्सा और 
दोपहर का काढ़ा देने के बाद 
वो घोषित कर ही रहा होता है 
अपने को सफल पिता 
कि 
वैद्य का पर्चा डपट देता है उसे 
दो सौ की दिहाड़ी में कहाँ से लायेगा 
शाम को 
दाल का पानी

३....प्रेम
आओ मिल कर खोजें प्यार
लुप्त प्रजातियों की भाँति।
चाहो तो पूछ लो
अरगनी पर टँगे चाँद से
या फिर डाल दो इक मेल
मंगल को।
परिंदों,
किसी खुली खिड़की से घुस जाओ
आसमान के घर में
या फिर डाल्फिन से कहो
खोजे समुंदर के तलहट में
हो सकता है
टाइटॅनिक के नीचे दबा हो प्यार
वर्तमान और निकट भविष्य में भी
प्रेम इतना दुर्लभ है
कि आओ सब मिल कर
प्रेम को परमात्मा मान लाते हैं।
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नही।
अभी खबर आयी है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश से
पाए गये है दो लोग प्यार करते हुए
एक को गोली मारी गयी
दूसरे को काटा गया गडासे से
प्यार का खून पा
लहलहा गयी प्रधान की चुनावी फसल
पंच के फ़ैसले पर
उठा ले गये कुछ लोग प्रेमी की बहन को
खेत में
परमात्मा प्रेम का हश्र देख
बिला गये है जाने कहाँ
देख ले रे नकुला
जंघवा पर तिल।
हो हो हो
कै बरिस के होई
ए फ़ैसला त पंचे करिहे।
खी खी खी
सारे गाँव वाले खिखिया कर
हँस रहे थे पर
खेत शर्मिंदगी झेल नही पाए
सूखा गयी सरसों
किरा गये धान
सारे पत्ते गिरा कर
नंगी औंधी पड़ी है अरहर
गाँव के बीचो बीच
लड़की की तरह...

 ४...पिता 
वैदिक मंत्रोच्चार के बीच
जब चार आँखों ने मिल कर देखा
कोई एक सपना।

कुछ रक्ताभ शामों में
दो चेहरे खिलखिलाए होंगे
किसी  इक ही बात पर।

कुछ स्वर्णिम रातों में
जब दो देह बाँट रही होंगी
पसीने की खुशबू।

तभी सिर्फ़ प्रेम नामक रसायन से
पुरुष रच देता है कुछ ऐसा
जिसे हज़ारो वैज्ञानिक
सैकड़ों साल से
पूरे लाव-लश्कर से साथ
ढूँढ रहे है
चंद्रमा से मंगल तक।

अचानक किसी रात
शर्माती, सकुचाती
कोई देवी मना कर देती होगी
आलिंगन से
लज़ाई आँखे गड़ा देती होगी
पेट पर
और हाथ अपने आप
परे धकेल देते होंगे
पुरुष को
तब एक क्षण के लिए ही सही
उसे अहसास होता होगा
अपने ब्रह्मा होने का।

संभोग से समाधि के
सफ़र में
इक पड़ाव है
पिता।

*अखिलेश श्रीवास्तव *

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प्रतिक्रियाये 
Suren: अच्छी है कविताये , कहन का टटकापन और कहन की व्यग्रता में चाँद ,मंगल और विज्ञान के प्रयोग .....साथ ही मानवीय इच्छाओं ,दुर्बलताओं और तथ्यता का समावेशन काव्य को ताज़गी देता है ।
बढ़िया अखिलेश .…यूँ ही लौ ऊँची कर चलते रहो । 👍🏽

कविता विशेष पर शाम/रात तक लिखने की कोशिश करूंगा ।
 Mani Mohan mehta: बेहतरीन कविताएं ...सुबह के ताजे हवा के झोंके की तरह ...पहली कविता में चाँद पर पानी मिलने की खबर के बहाने सदियों से चली आ रही जाति प्रथा पर कटाक्ष किया गया है पर इस विषय पर  लिखी जा रही अन्य कविताओं से एकदम अलग और हट के ....नागर कविताओं में लोक का इस्तेमाल बहुत खूबसूरती से करते हैं अखिलेश .....

मंहगाई को लेकर सीरीज में उनकी कविताएं भी प्रभावित करती हैं ....इन कविताओं में मंहगाई को लेकर सिर्फ छाती पीटना नहीं है पर लोक जीवन के टटके बिम्बों ने इन कविताओं को सम्वेदना के स्तर पर सम्प्रेषणीय बनाया है ....

वैसे तो सभी कविताएं प्रभावी हैं पर पहली और तीसरी कविता मुझे ख़ास लगीं ।तीसरी कविता प्रेम खोजने जैसे सामान्य पद से शुरू होकर पच्छिमी उत्तर प्रदेश की एक भयावह खबर तक आती है और एक अंतिम पंक्तियों में जिस बर्बरता का जिक्र बिम्बों के माध्य्म से करती है यह अद्भुत है .....

( अखिलेश की इन कविताओं को पढ़कर आश्वस्त हूँ कि आने वाले दिनों में हिंदी कविता के परिद्रश्य में एक नया सितारा चमकने को तैयार बैठा है ....कवियों सावधान 😎😀
Anita Manda: बेबाक लेखन और शानदार तरीके से  बात को सलीके से रखने का हुनर
कवि को हार्दिक बधाई सशक्त अभिव्यक्ति की।

 Abha Bodhisatva: घर से लेकर समाज तक की कुरूतियों को अपने ढ़ग से रेखांकित किया है कवि ने ।चाँद पर पानी में उँच -नीच के भेदभाव और अपूर्णता -मार्मिकता को बड़े सहद ढंग से व्यक्त करता है -' ओरा जा ई पानी' अद्भुत ।
दाल ,चावल चीनी से मँहगाई को तौलते -घर को भी तौल देतें हैं सटीक और बेबाक । प्रेम का हश्र गाँव और समाज की छोटी मानसिकता को व्यक्त करते हुए ,पिता को अंतिम चार लाइनों में अपने ही अंदाज में पेश किया क्या खूब ।वैज्ञानिक छौक के साथ कवि अपने ढ़ंग स अपनी बात रख गए ....

शुभकामनाएँ अखिलेश जी को ।जल्दी में हूँ विदा
Jatin: चाँद का कचरा और जात का कचरा.  वक्त के साथ बढ़ता कचरा.शुक्र है वो चाँद के आँसू हैं वरना चाँद टीन टप्पर के बीच जात के कचरेे को भी रोता .बेहद खूबसूरत रचना.
त्योहारों के बीच एक तबका एेसा भी जाे दाल के पानी के लिए मोहताज.अच्छी रचना है।
मेरी पसंदीदा रचना प्रेम.हम इनसान इतनी तलहटी में जा पहुँचे हैं कि प्रेम जैसी
पवित्र भावना को छू पाना भी बस में नहीं. शुक्र है खेत शर्मिन्दा है. नग्न मानव शर्मिन्दा होने लायक शर्म भी नहीं बचा पाया।
पिता के पड़ाव को खूबसूरती से निभाया आपने.
अखिलेश जी आज सुबह आपका नाम पढ़ते ही साेचा था कि सभी टोटम आपको ब्याज समेत वापस करने का मौका मिला
है लेकिन प्रेम ने मेरा सारा मजाक छीन लिया। अति भावुक कर देने वाली रचना.एक उदासी भरी शाम के लिए शुक्रिया अखिलेश जी.
 Sayeed Ayub Delhi: बेहतरीन कविताएँ। कवि और प्रस्तुतकर्ता दोनों को बधाइयाँ। विस्तार से ऑफ़िस से निपट लूँ फिर आता हूँ
अपर्णा: 'कोई ताज़ा हवा चली है अभी..' बहुत दिनों बाद नए स्वर की कविता का आस्वाद मिला। आप तो कमाल लिखते हैं अखिलेश। शुक्रिया आपका। आपको और पढ़ने की इच्छा है। ढेरों शुभकामनाएँ!👍🏽😊
Sanjiv Jain : चाँद पर पानी की खोज में अरबों बर्बाद और जमीन पर पानी के लिए हाहाकार। जीवन में पानी प्यास से नहीं जात से और अब धंधे से संचालित हो रहा है जिसे कविता में संकेतित किया है। चाँद और पानी का संबंध सागर और ज्वार उठने से भी जुड़ा है। चाँद और पानी के बीच जिस संबंध को रेखांकित किया है वह कई संभावनाएँ पैदा करता है।
 Rajendr Shivastav: अखिलेश जी ,आज आपके इस रूप को निहारने का अवसर मिला।चकित होना स्वाभाविक है। अलग वअनूठी कविताएँ। कहन का अंदाज़ भी  मन को भा गया। बहुत गहरे तक प्रभाव छोङती है।
सामाजिक बिसंगति , व अभावों से जूझते जनमानस पर बोलती ,व्यथित करती कविताएँ । मोती जैसे चुनकर पिरोये लोक बोली के शब्द कविता के मर्म को आम जन तक पहुँचाने में सफल होंगे ।
चाँद के आँसू,
चीनी के तीन दाने
औंधी बिछी अरहर
नकुला
दाल का पानी
मात्र शब्द नहीं है।जो है उनके भावों को  शब्दों मेंव्यक्त करने की क्षमता मुझमें नहीं हैं।
सा की बा से जुङे रहने की सार्थकता  फिर परिलक्षित हुई है।
मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें।😊
 Uday Dholi: एकदम नये अंदाज़ की कविताएँ हैं ,अखिलेश जी मुबारक हो।💐💐
Sudhir Deshpande: अखिलेशजी की कविताओं का टटकापन भाया। अभी तक कवियों की यात्रा चीन रुस और सोमालिया तक होती रही पर अखिलेश चंद्रमा और मंगल की यात्रा करा रहे है। एक तीक्ष्ण काव्य बोध से सम्पृक्त कवि की कविताओं को पढकर दृष्टि संपन्नता का आभास भी होता है। पिता कविता इन सारी कविताओं मे प्रभावपूर्ण और प्रवाहपूर्ण हो गई है।
 Ghanshym Das soni: आज प्रस्तुत रचनायें अलग तरह की हैं "चाँद पर पानी" के माध्यम से कवि हमारे समाज की विसंगतियों की ओर इंगित कर रहा है आज के समय भी अनेक क्षेत्रों में सामाजिक भेदभाव दबंगों के चलते मौजूद है  चाँद हमारे मंहगाई -चीनी/दाल/चावल/गेंहूँ आवश्यक वस्तुओं के बढ़ती कीमतों पर अनोखे ढंग से चिंता व्यक्त की गई है "प्रेम" गुम हो गई चीजों की भांति खोजने के प्रयास पर बहुत सार्थक पंक्ति "हम दोनों को खोजते रहना चाहते हैं पाना नहीं"। रचनायें बहुत शानदार हैं श्री अखिलेश जी को बधाई व प्रस्तुतकर्ता ब्रज जी का आभार ।
 Sanjiv Jain : अच्छी हैं कवितायें । कुछ और मेहनत करें कंटेंट पर तो सोने पर सुहागा हो जायेगा। थोड़ी सा भाषा पर भी कुछ और पैनापन चाहिये।
जो हे उसमें कोई कमी नही लिखते  रहिये।

 Lakshmikant Kaluskar : अखिलेश जी आपकी ये ठेठ कविताएं और वह भी ठेठ भाषा में आपकी कवि रेंज को इतना व्यापक बना रही हैं कि उसके ओर-छोर नापना मुश्किल है.
'चाँद का मुंह टेढ़ा है 'और 'कला और बूढ़ा चाँद' का उपयोग बखूबी करते हुए पानी की अहमियत को तो बताया ही, साथ ही प्राकृतिक संपदा पर भी कैसे श्रेष्ठिवर्ग ने अपना पहला हक जमाया हुआ है य
 यह भी बड़े ठेठ लहजे में अंकित कर दिया है.
आपकी कविता धारदार तो है है,व्यापक दृष्टि का भी परिचय देती है.अगर कहूं अद्भुत कविताएं हैं तो बात पूरी होगी.जैसा मणिमोहन जी ने कहा,किसी बड़े कवि ने दरवाजा खटखटा दिया है हिंदी कविता के क्षेत्र में.बहुत बहुत बधाई इन विलक्षण कविताओं के लिये.
Shaahnaaz: बहुत बढ़िया और प्रभावशाली कविताएँ हैं चाँद पर पानी अलग स्वाद की कविता बेहतरीन कविता है । महंगाई की कविताएँ जिसमें लोक जीवन के बिम्बों का बहुत सुंदरता से इस्तेमाल हुआ है और बहुत मार्मिक कविता बन गई है ।
तीसरी कविता अद्भुत और ताज़गी लिए हुए है ।
समाजिक सरोकार की सम्प्रेषणीय कविताओं में सशक्त अभिव्यक्ति है अखिलेश की बहुत बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएँ ।💐
ब्रज जी धन्यवाद बहुत अच्छे कवि से परिचय के लिए । 🙏🏻
 Bhavna Sinha: कविता सर्वथा नूतन तरीके से लिखी गयी है अलग अलग विषयों को एक साथ जोड़ने और अलंकृत   करने में कविता समर्थ है। कवि को बहुत बहुत शुभकामनाएँ
💐💐
Madhu Saksena: अखिलेश की कविताओं पर क्या लिखूं ? ये अलग तरह की भाषा और विचार पर अपने विचार कहाँ से लाऊँ ? ये सब तो मैंने कविता के लिए सोचा ही नही था जो आज कविता में दिख गया ।
चाँद पर पानी ...... चाँद के रोने का अहसास हुआ कवि को ..फिर बूढ़ा भी हो गया चाँद ? फिर सप्त ऋषियों से टकरा गया उपग्रह .? फिर कूद कर आ गए ग्राम भुसना में परसु कहार के घर और पानी के छुआछुत का मामला ।लगा ...कितना अछलकुद कर रही  कविता ।कविता है या रिपोर्ट ?
पर बात में  दम है बात पानी से शुरू की और पानी पर ही खत्म ।बीच में दर्द की लकीरें ...गहरे तक अहसास हुआ ।प्यास लग आई ।आँख के पानी और पीने के पानी की कथा इति  श्री ।
मंहगाई ...चीनी ,गेहूं ,दाल  और चावल जैसी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति भी ना हो पाने की व्यथा ।सीधी बात कहीं नही  पर मजबूरी और व्यथा का सटीक चित्रण ।कवि पैनी नज़र रखते हैं ।
प्रेम .,.प्रेम की खोज  ज़ारी है ।खाप पंचायत और प्रेम के खिलाफ लोगो के बीच भी ।किस ज़मीन से उगी ये कविताएँ ? दुःख और खीज साथ साथ उपजती है ।विषय बदलती पर नट की तरह साधे रहती खुद को ।
पिता ...... ओशो याद आ गए ।अपने होने और अपने अस्तित्व को बनाये रखने का गर्व निहित होता है उस 'ना ' में ।अखिलेश की कविताएँ आसमान की सैर करती ,चाँद से बतियाती , सप्तऋषि का हाल जानती ज़मीन पर उतर कर पानी और महगाई की बात करती हुई बिलकुल अंतरंग होकर राज की बात भी बताती है। ये कूदती - फाँदती कवितायें पढ़ने में बाधा तो उतपन्न करती है पर फिर मुद्दे पर आकर राहत दे जाती है ।बधाई और शुभकामनाएं अखिलेश को ।
आभार एडमिन जी ।
 Manoj Jain Madhur: साकीबा----
के प्रबुद्ध मंच पर आज अखिलेश जी की चंद कविताएं पढ़ी,साथ ही
कविताओं पर ब्रज जी की संक्षिप्त टीप --
युवा हस्ताक्षर की पहली ही पस्तुति ने सभी को चौंका दिया--कवि के पास काव्य की अपनी अर्जित भाषा  मौलिकता है ,अनूठे और टटके बिम्ब हैं,
इसीलिये प्रस्तुत सभी कविताएं आपसे संवाद करती हैं और देरतक आपके साथ रहती हैं
और यही इन कविताओं की सार्थकता है --
फिलहाल कवि अखिलेश जी के उज्ज्वल भविष्य की कामना--
एडमिन ब्रज श्रीवास्तव जी का बहुत आभार इस सधी हुई प्रस्तुति के लिए।
 Vivek Nirala: टटके ताज़े बिम्बों से बनी भाषा को लेकर आए हुए इस संभावनाशील युवा कवि का स्वागत है। कवियों की बिरादरी में नवप्रवेशी इस कवि ने विज्ञान से लेकर जीवन-जगत में मनुष्य की रोज़मर्रा की ज़रूरतों और मुश्किलों तक के ओर-छोर परस्पर घंघोल दिए हैं। इस रसायन से यह केमिकल इंजीनियर कवि कविताओं का ऐसा विलयन बनाता है जिससे संतृप्त हो जाता है पाठक। मैं इस भिन्न प्रकार के कवि को बधाई भी देता हूँ और इसके माथे पर एक डिठौना भी धर देता हूँ कि इसे सर्वज्ञाता और सर्वसिद्ध समकालीन कवियों की नज़र न लगे। पुनः बधाई।
 Kavita Varma: चांद पर पानी कविता में जातिवाद पर करारा तंज किया गया है। मंहगाई कविता अपने आसपास के छोटे छोटे वाक्यों से उठा कर विस्तार पाती है और स्तब्ध कर देती है। प्रेम कविता के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं और पिता कविता पिता को अहसास में बदल देती है। सभी कविताएँ बेहद अच्छी और यादगार हैं। बधाई अखिलेश जी
 Pravesh soni: चाँद पर पानी ,
गज़ब कर दिया सच में भाई ।इस कविता में तो सबको टाँग दिया आपने लाइन से ।सप्त ऋषि भी, और धरती पर आये तो ठाकुरों को भी ।वैज्ञानिकों को तो शुरू में ही डपट दिया और हम बैचारे पाठक 😳😳😳
सच में बेहतरीन कविता है
इसके लिए हैट्स ऑफ
महँगाई
अच्छी है कविता पर कुछ अटक गया ,....चीनी के तीन दाने और बेगॉन स्प्रे
बात हज़म नही हुई भाई ।बेगॉन स्प्रे खरीदने में 2 किलो चीनी तो आसानी से आ जाती है ।
बाकि दाल चावल की गरीबी को पचा लिया क्योंकि उसके बिम्ब दिल में उतर गए ।😊

प्रेम ,कविता में प्रेम का दुर्लभ हो जाना सटीक लगा और अंत का तंज आँखों में एक सवाल छोड़ गया ..ऐसा है प्रेम का अंत तो उसे बिना खोजे ही कही छुपा रहने दो न ।

पिता ,कविता का कहन अद्भुद लगा ।
बधाई कवि आपके लिए अनंत शुभकामनाएं

HarGovind Maithil : चाँद पर पानी जहाँ एक ओर मानव विकास की बात करती है तो दूसरी ओर वर्ग भेद की चिंता को भी रेखांकित करती है ।
 सभी कवितायें सुन्दर बिम्बों से सुसज्जित और संप्रेषणीय ।
अखिलेश जी को बधाई और एडमिन जी का आभार ।
अलकनंदा साने :अखिलेश,  क्या कविताएं हैं , गजब!  मैं दुबारा यहाँ आई हूं और यह पहली बार हुआ है । पहली कविता विज्ञान से होते हुए सीधे सामाजिक परिस्थितियों पर तंज करती है  । अद्भुत । महंगाई में सबसे प्रभावी 'दाल' है । अरहर और लड़की का बिंब , मैं अंदर तक हिल गई । इन सबके बीच पिता चमकदार होते होते रह गई ।

ब्रज जी, रहम कीजिए दो/तीन दिन । कुछ भी लगाइए पर इतनी अच्छी कविताएं मत लगाइए । गुझिया, पपड़िया कब बनाएंगे ? महिलाओं पर अत्याचार है यह । 😀😀
Dinesh Mishra : अखिलेश जी
सारी कविताएँ बहुत अच्छी और सार्थक कविताऐं हैं।
चाँद पर पानी~ चाँद के बहाने से दिन रात होने वाले वैज्ञानिक शोध और प्रयोगों से भले ही बहुत कुछ हासिल हुआ हो, पर कुदरत ने जो खोया है, उसकी विस्तार से पड़ताल इस  रचना में की गई है, उपग्रहीय कचरे ने हमारी मान्यताओं के साथ साथ हमारे तारा मंडल तक को आहत किया है, कविता के आखिर में सामाजिक विषमता और पानी उपलब्ध होने की ख़ुशी पर भी चिन्ता की लकीरे उभरकर सामने आ रही है, की इसे पहले पियेगा कौन??
महंगाई ~ पूरी कविता पर्यावरण की फ़िक़्र में आकंठ डूबी हुई है, चिड़िया से लेकर पानी और पूरी कुदरत को लेकर सवाल उठा रही है।
प्रेम और पिता अंत की दो कवितायें बहुत सच्ची और अच्छी लगीं, चंद्रमा से मंगल तक प्रेम को खोजा जा रहा है, सब कुछ है सिवाय प्रेम के।
अखिलेश जी अनेकों बधाईया इस अनूठे नज़रिये और सच्ची कविताओं के लिए, प्रस्तुति के लिए भी धन्यवाद।
 Meena Sharma: अखिलेश जी  की सक्रियता, अल्हड़ संवाद , और कविताओं में यह गम्भीर लेखन में चाँद पर पानी को
वैग्यानिकों के विवरण से लेकर
अगस्त मुनि के कमंडल तक आकर बात करने वाले संभावनाशील कवि से आज एक नया परिचय हुआ !
मंहगाई के साथ चीनी की  एक अलग परिभाषा गढ़ते हुए दाल के पानी तक ठहरना बहुत मुश्किल है !
प्रेम को मिलकर खोजने से अगर मि जाता तो अखिलेश जी , ....
साहित्य की बात, ग्रुप सबसे पहले
आपके साथ चल पड़ता जहाँ आप ले जाते !
खेत खलिहानों के साथ, अरहर और लड़की का.औंधा बिछना ....
किस तरह ये बिंब उभरा होगा आपके
मन-मस्तिष्क में...आश्चचर्य चकित हूँ
पढ़कर ....!
पिता पर कुछ अलग से अर्थ भरी कविता पहली बार पढ़ी !
सामाजिक सरोकार और गहन चिंतन
उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ती सीढ़ियों की ओर एक इशारा
है और सब समझ रहे हैं !!
एक सशक्त कवि का स्वागत !!
बधाई अखिलेश जी !
आभार ब्रज जी !!
पूत के पाँव पालने में दिखाने के लिए !!.💐💐
 Suren: चौथी कविता के कहन ने विशेष आकर्षित किया । इस कविता की ओर शायद कम ध्यान गया ,इसलिए इसका जिक्र कम हुआ ।

तो , ..... पिता   , कविता पर कहना चाहूंगा की कवि यहाँ कहन की व्यग्रता से प्रेरित होकर कविता के अंत तक आते आते जो डीराइव(derive) करता है वो पाठक को एक क्षण को थोड़ा चमत्कृत सा करता है कि पिता जो उसकी उतपत्ति में उसकी माँ के साथ हिस्सेदार होता है वह उसके स्वयं के आने की सूचना भर से माँ को ब्रह्मा/सृजनकर्ता के भाव से भर देता है और यही सूचना जब माँ , पिता को आलिंगन से ना कह कर इंगित करती है तो पिता उस क्षण को काम/वासना से ऊपर उठ जाता है । ये पिता का काम से परे उठ जाना ,संतान हित में उसके सम्भोग से समाधि की यात्रा में एक पड़ाव की भांति कवि का निष्कर्ष के रूप में निगमित करना इसलिए इररेशनल प्रतीत हुआ कि जिस आचार्य रजनीश का  टर्म यहां एक निगमित निष्कर्ष के रुप में प्रयुक्त हुआ है वह इसको जब निगमित करते है या कहे जब वह सम्भोग से समाधि के बीच के परास के मध्य सम्भोगकर्ता के ओर्गास्म/कामोन्माद के क्षण पर साक्षी भाव के क्रमशः अभ्यास से आने वाले भाव के  रीक्रिएशन को उपलब्धि/तथाकथित समाधि  का दर्जा दे कर ,श्रोता को भ्रमित करते है...... जबकि कवित्त यहां भ्रम को निरूपित करे ,ऐसा कवि की मंशा तो नही लगती ।

तो इस कविता में पिता का माँ की उस ना से सम्भोग से समाधि के मध्य एक पड़ाव निष्कर्षित करने की मंशा कविता को जैसा ऊपर लिखा  इक क्षण को चमत्कृत बिंम्ब तो देती है पर उस क्षण के बाद बस भाषिक चमत्कार की स्फुर्लिंग से पाठक मुस्कुरा ही सकता हैं ।


अखिलेश , हो सकता है इस कविता का मेरा पाठ आपको कंविंसिंग ना लगे पर इतना जरूर कहूंगा कि जो इस पाठ में अनकंविंसिंग लगे उसे जरूर साझा करें जिससे मैं भी अपने पाठ को दुरुस्त कर सँकू ।
Akhilesh: सुरेन सर
आप तो कवि मन के हर कोश तक पहुचते है आप से क्या छुपा है ..
पर मैने पिता का संतान हित मे काम से परे उठ जाने को एक पडाव के रूप मे नहीं सोचा क्योंकि वह क्षणिक है ।क ई बार मिथक सत्य लगने लगते है एक मिथक है संतान से मोक्ष को पाना । सो यदि मोक्ष पाना है तो पिता बनना अनिवार्य है सो पिता बनने की घटना एक पडाव जैसा है कि ये कंडीशन पूरी हो गई अब ये येऔर करगें तो मोक्ष मिल सकता है ..।
बाकी आपने जो दृष्टि दी है वो तो एक नयी कविता का बीज बन सकती है ।
आपका होना हमें समरि्दध करता है ँ
 Dr D. N. Tiwari: अखिलेश जी की कवितायें :
चांद पर पानी ,चांद को बूढा कहने की बजाय सुंदर कह देते भाई जी
कविता नं २ :
मंहगाई सभी चीजों का अच्छा विश्लेषण
नंबर ३
प्रेम :
अरहर और लडकी की तुलना ,भाषा अटपटी ।
नंबर चार पिता :-कुल मिलाकर अच्छी भाषा का प्रयोग है ।
ये मेरे निजी विचार हैं अखिलेश जी और अच्छी टीप का प्रयास रहेगा अगली बार ।

Anuma Aachary: "उपग्रही़ीय कचरा", सोने की चिड़िया पर विलुप्तप्राय गौरैया, दुशासनों की जमात.....हर सरोकार से सरोकार रखने वाले कवि को कड़क सैल्यूट है. "जज़्बा बरक़रार रहे" आपके लिये ये संदेश भी है और शुभकामना भी.
 एक तो दिन का अंतिम प्रहर और मेरी स्पीड.....न्याय नहीं कर पाई. Supplementary लेकर लिखूँगी
 Bodhisatv Ji: अखिलेश की सब कविताएँ अच्छी हैं, कल विस्तार से लिखूँगा, अच्छी कविताओं के लिए बधाई अखिलेश जी
 Avinash Tivari: अखिलेश जी ने चांद की बहुत अच्छी समीक्षा की है जिसमें केमिकल इंजीनियर होने का बखुबी परिचय दिया है। पानी का रासायनिक गुण पानी आने का कारण उपग्रह का चांद की सतह सेे टकराने जैसी तकनीकी रिपोर्ट और फिर चांद का मुंह टेढ़ा होने का कलात्मक कारण और इससे बढ़कर वैज्ञानिक प्रयोग उसे चांद की सतह पर बढ़ते प्रदूषण की चिंता सब कुछ अद्भुत और मजेदार है चांद पर पानी मिलने से परसू कहार मगन है इसी तरह जिस तरह कि हम जैसा जनता मगन हैं अच्छे दिनों के विवाह संजय वाह सपनों
 अच्छे दिनों के दिवा स्वपनों में, गरीबी हटाओ के नारों में समाजवाद में साम्यवाद मैं धार्मिक मकड़ जाल में जकड़े हुए हैं। पानी क्या प्रकृति के सभी संसाधनों पर पहले पैसे और ताकत वाले रसूखदारोंका कब्जा रहता है वे सभी ब्राह्मण नहीं होते अमेरिका रुस चीन जर्मनी इंग्लैंड जापान यह सभी अंतरिक्ष समुद्र धरती सब पर यथा शक्ति अधिकार जमा हुए हैं बकौल अखिलेश ये सब ब्राम्हण हैं फिर उनसे कमजोर क्रमशः ठाकुर  वैश्य शूद्र जैसे आते हैं।गरीब और निम्नमध्यम वर्ग और गरीब देश तो शूद्रों की श्रेणी में आते हैं,इनका नम्बर भी संसाधनों पर सबसे बाद में और बहुत जरूरी समझे जाने पर लगता है।अखिलेश जी ने चांद पर बहुत अच्छा लिखा है।
महंगाई चीनी दाल चावल गेहूं महंगाई को अलग दृष्टि से देखती कविता है किंतु कविता को आकर्षित बनाने के लिए हमेशा की तरह हमारे धर्म देवी देवता को कोसने का निर्मम प्रयास किया गया है अच्छा लिखने वाला वाले ऐसा नहीं कर के भी बहुत अच्छा लिख सकते हैं अखिलेश जी भी इससे अछूते नहीं है।
प्रेम बहुत अच्छी रचना है एक-एक शब्द अर्थ पूर्ण और सीधा दिल को चोट करने वाला है आखिरी  भाग तो बहुत  ही मार्मिक है।
पिताभी उतनी ही अच्छी रचना है स्त्री पुरुष सृष्टि के सृजनकर्ता हैं। स्त्री पुरुष के प्रेम के रसायन को विज्ञान तो अभी तक डी कोड नहीं कर पा रहा है परंतु हदय की प्रयोगशाला में यह हमेशा से डिकोड होता आया है और संभोग से समाधि तक के सफर में एक दूसरे का हाथ थामे चलते रहे स्त्री पुरुष इस कविता में पिता को महत्व दिया गया है जबकि सृजन में दोनों का महत्व समान लगता है।
अखिलेश जी आपने बहुत अच्छा लिखा है प्रतिक्रिया मेरे अपने विचार है आप इससे भी अच्छा लिख सकते हैं।आप भविष्य की संभावना है बहूत बहुत शुभकामनाऐं।एडमिन जी संचालक जी आपको धन्यवाद आभार।।

Sarad Kokas : चाँद पर पानी कविता की शुरुआत एक यथार्थ से होती है जो बिम्बों में ढलते हुए कल्पना के आवरण में फिर विगत के यथार्थ तक ले जाती है कविता यथार्थ और फैंटेसी के मेल के साथ आगे बढती है चाँद पर पानी के साथ कुछ मिथकों का प्रयोग भी किया गया है लेकिन यह असावधान प्रयोग है , चाँद के बारे में अनेक प्रचलित मिथक हैं यदि उनका प्रयोग होता तो ठीक होता पिछले दिनों ...... इन पंक्तियों में फैंटेसी का अच्छा प्रयोग है लेकिन इसे थोड़ा और विस्तार चहिये था , दरअसल फैंटेसी बिम्बों से बिलकुल अलग कला होती है , दोनों का घालमेल नहीं होना चाहिए . उसी तरह कविता का अंत लाजवाब है , यह पूरी वर्ण व्यवस्था पर तंज़ है लेकिन यह हिस्सा भी कविता में अलग से जुड़ा हुआ लगता है . अगर कविता को वर्णव्यवस्था पर प्रहार तक पहुंचना है तो उसका प्रारंभिक कथ्य कुछ भिन्न होगा , कविता एक साथ कई मुद्दों को लेकर बात करती है लेकिन किसी भी मुद्दे का पूरी तरह निर्वाह नहीं हो पाता , बेहतर होगा इसे ठीक तरह से विस्तार दिया जाए .
 दल चावल चीनी अच्छी कविताएँ हैं , इस श्रंखला में और भी कविताएँ लिखी जा सकती हैं , जिनमे किसान का श्रम , राजनेताओं द्वारा रुपये दो रुपये किल में गेहू चावल बेचने की राजनीती जैसे विषय शामिल किये जा सकते हैं .

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 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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