Friday, March 31, 2017

एक कवि ह्रदय मनुष्य अपने मन के  सम्वेदन को लेकर सदैव बैचेन रहता है ,और यही बचैनी उसके सृजन  की साधना  होती है | उसके विचार अपने आस -पास के द्रश्यो में कविता का प्रस्फुटन देखते है जब कविता की  छोटी छोटी पौध  पल्लवित -पुष्पित होती है तब अपनी  सुगन्ध से  साहित्य जगत  को महका देती है |
"ऐसे दिन का इन्तजार " बोधि प्रकाशन  से प्रकाशित  ब्रज श्रीवास्तव का तृतीय काव्य संग्रह  ,जिसकी समीक्षक चर्चा साहित्य की बात समूह में हुई | चर्चा में समकालीन कवि , कथाकार ,समीक्षक ,आलोचक और जागरूक पाठक सम्मिलित थे |रचना प्रवेश पर कुछ चुनी हुई समीक्षाए  प्रस्तुत है |





मस्तिष्क विचारों का ज़खीरा है ....सतत विचारों की श्रंखला चलती रहती है ।कुछ विचार आते है और चले जाते है ...और जब कोई विचार शब्द के रूप में काव्यमय रूप ले लेते है तो दूसरे अनेक विचार उससे प्रभावित होते है ।
कुछ बेजान सी चीजों से भी  सार्थक विचारों की कड़ियां जोड़ लेना , खुद से बात करते हुए वो दूसरों के मन की बात  भी बन जाना ,आसपास वातावरण में अपनी  सम्वेदना रख देना और निडर हो अपनी बात कह देना.....  यही सच्चा काव्य कर्म है ।ऐसे ही कवि ब्रज जी कविताओ की हम आज पड़ताल करेगें ।
किसी की रचनाओं पर चर्चा करना ..एक तरह से खुद को टटोलना भी है और सहमति असहमति  से चिंतन और निष्कर्ष की राह को प्रशस्त होती है ।.
;मधु सक्सेना
 परिचय 


ब्रज श्रीवास्तव. 
जन्म :5 सितंबर 1966(विदिशा ) 
शिक्षा :एम. एस. सी. (गणित), एम. ए. हिन्दी, अंग्रेजी, बी. एड. 

प्रकाशन :साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं, पहल, हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश, बया, वागर्थ, तदभव, आउटलुक, शुक्रवार, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य,इंडिया टुडे, 
वसुधा, साक्षात्कार, संवेद, यथावत, अक्सर, रचना समय, कला समय, पूर्वग्रह,दस बरस, जनसत्ता, सहित अनेक अखबारों, रसरंग, लोकरंग, नवदुनिया, सहारा समय, राष्ट्रीय सहारा आदि में कविताएँ, समीक्षायें और अनुवाद प्रकाशित. 
कविता संग्रह :पहला संग्रह "तमाम गुमी हुई चीज़ें" म.प्र. साहित्य परिषद् भोपाल के आर्थिक सहयोग से2003में , रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा से प्रकाशित (ब्लर्व, राजेश जोशी) दूसरा कविता संग्रह, "घर के भीतर घर" २०१३ में, शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित. (ब्लर्व:मंगलेश डबराल,) हाल ही में कवि संग्रह ऐसे दिन का इंतज़ार बोधि प्रकाशन से आया है. 
संपादन :दैनिक विद्रोही धारा के साहित्यिक पृष्ठ का तीन वर्षों तक संपादन. वाटस एप समूह साहित्य की बात, में सृजनात्मक संयोजक 
काव्य संकलन, दिशा विदिशा.(वाणी प्रकाशन) से प्रकाशित. 
व्यवसाय :स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक( मा. शा.) के रूप में शासकीय नौकरी. विदिशा में ही. 
पता :२३३, हरिपुरा विदिशा. पिन464001 
मो.नं 9425034312. 

Email address. brajshrivastava7@gmail.com                        
========================================  
डाॅ पद्मा शर्मा
सकारात्मक सोच की मूल्यवान कविताएँ
संवेदनायुक्त मानव ही साहित्य से संपृक्त रह सकता है, जीवन की वेदना और विडम्बनाओं को समझ सकता है। यह वेदना विस्तृत रूप पाकर व्यष्टि की न होकर समष्टि की हो जाती है। देश -दुनिया के मर्म को साहित्य कर्म द्वारा यथार्थगत अनुभूति को अभिव्यक्ति देकर कवि अपने कर्म का निर्वाह करता है। भौतिकवादी युग और प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में लिप्त जीवन में भोगलिप्सा और अर्थ ही जब भगवान बन जाये तो इन्सान और ईमान की बातें बेमानी हो जाती हैं। ऐसे युग में जब शासन और मानव मन दादी-नानी की कहानियाँ, हितोपदेश और पंचतंत्र की कहानियों का आश्रय लेकर नयी पौध को संस्कारित करने और जीवन मूल्यों का पाठ पढ़ाने की सोचते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में मूल्यों की महŸाा अति आवश्यक है। काव्य विधा तो और भी अधिक सहजता से मूल्यों की स्थापना कर अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में सक्षम है। 
ब्रज श्रीवास्तव के काव्य-संग्रह ‘‘ऐसे दिन का इन्तजार’’ में मानवीय-बोध, सकारात्मक सोच और मूल्यों की प्रतिष्ठा की कविताएँ हैं। इसमें तिहŸार कवितायें संकलित की गयी हैं। समाज में जब बेटियों के संरक्षण की बात की जा रही हो ऐसे में ब्रज जी ने इस काव्य संग्रह को अपनी बेटियों को समर्पित कर बेटियों की प्रशस्ति में एक दीपक प्रज्वलित किया है।
संग्रह की प्रथम कविता ‘‘माँ की ढोलक’’ है और अन्तिम कविता ‘‘भुजरियाँ’’ है संग्रहीत कर वे माँ के पगों का प्रक्षालन करते हुए  संस्कृति के उत्सव पर कलम बंद करते हैं। पहले लोग लय में जीते थे। ‘‘माँ की ढोलक’’ सांस्कृतिक सदभाव को प्रदर्शित कर मनोवैज्ञानिक धरातल को स्पर्श करती चलती है। क्रियान्वयन के पूर्व क्रिया मन में दोहराई जाती है, जीवन की विषमताओं पर विजय प्राप्ति के अभियान में पूर्व तैयारी की आवश्यकता होती है उसी भाँति ढोलक बजाने की क्रिया भी होती है।   
जीवन की ढोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को खुशी-खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले
उत्सव में हम सलीम भाई को बुलाते हैं ढोलक बजाने के लिए
(पृ 9)
धर्म के कई रूप होते हैं। धर्म जब संकुचित अर्थ में सामने आता है तो देश गह्वर में चला जाता है। धर्म को विस्तृत रूप में देखना चाहिए। धार्मिक क्रियाओं मेें डूबना और उनका अनुकरण ही धार्मिक होने का प्रतीक नहीं है। धर्म आस्था और मानवीयता से जुड़ा भाव है। मानवीय धर्म को सर्वोपरि मानकर उसे ही प्रतिस्थापित किया जायेगा उस दिन की प्रतीक्षा को कवि ने ‘‘ऐसे दिन का इंतजार’’ मूल शीर्षक कविता में वर्णित किया है। मानवीय सŸाा की खोज और आस्था से पूर्ण जीवन में धार्मिक पैगम्बरों की पूजा ही धर्म का होना नहीं व्यक्त करती। मानवीय सŸाा की खोज और उसकी स्थापना ही सबसे बड़ा धर्म है क्योंकि बच्चों की हँसी में ही सबसे बड़ी पूजा है।
‘‘ऐसे दिन की प्रतीक्षा है अब
जब जातियाँ
पेड़ की तरह बढ़ने देंगी मानवता को
जब बच्चे हँसें तो सब 
पूजा छोड़कर आएँ उन्हें देखने के लिए
पंथ की परिधि से बाहर ले आया जाएगा
महापुरुषों को ’’    (पृ 61-62)
ब्रज जी की इस कविता की सघनता निदा फाजली की उन पंक्तियों की याद बरबस ही स्मृति में जीवंत कर देती है।
मस्जिद बहुत दूर थी घर से 
सोचा रोते बच्चे को हँसाया जाये
ब्रज जी की कविताएँ हमारे आसपास की कविताएँ हैं। समसामयिक विषयों और ज्वलंत समस्याओं पर उनकी पैनी दृष्टि गयी है। आतंकवाद कुछ वहशी और दरिन्दों का फैलाया जाल है जिसमें कुछ तो मर जाते हैं और कुछ घायल हाकेर आजीवन दुःख, पीड़ा और लाचारी भोगने को शापित हो जाते हैं। आतंकवादी बम ब्लास्ट जैसी घटनायें करके बड़ी संख्या में मानवीय जीवन को नष्ट कर सर्वत्र आतंक व्याप्त कर देते हैं। 
‘‘ जो मनुष्यता के हक में डटी थी मोर्चे पर
 जो विचारों को खड़ा कर रहीं थी 
वे साँसे छीन ली गयीं’’ - (आतंक)
‘‘ लाखों हजारों में से तुम्हीं चुने गये
ब्लास्ट बना शिकारी भेड़िया तुम्हारे लिये
जिसकी भूख पैदा की है कुछ सिरफिरों ने 
छोड़ा ही नहीं उसने तुम्हें थोड़ा भी धरती पर’’ - (बम ब्लास्ट)
ब्रज श्रीवास्तव की कविताएँ महानगर और अट्टालिकाओं की गाथा ही नहीं है, बाहरी चकाचैंध और तिलिस्मी दुनिया का दस्तावेज नहीं है वरन् उनका मूल प्रतिपाद्य आम जनता के जीवन को दृष्टिगत रखकर उनके क्रियाकलाप, दुःख-सुख, जीवन शैली, विभिन्न समस्याओं को वर्णित करना है। इतना ही नहीं वे इन समस्याओं और सामाजिक विषमताओं को दूर करने की संभावना पर भी विचार करना चाहते हैं।
‘‘हमारा प्रतिरोध करना ही
हमारे होने के हस्ताक्षर 
छोड़ता है कई बार’’
डनकी कविताओं में देशप्रेम और मानव प्रेम झलक उठता है। 
‘‘धरती से बाहर कोई मुल्क नहीं
कोई धर्म नहीं जीवन से बाहर
मानवता से बढ़कर नहीं है विचार कोई’’ 13
उन्होंने कवि, कविता और अपने प्रिय कवि वीरेन्द्र जैन और शरतचंद्र पर भी रचनाएँ लिखी हैं। एम्बुलेंस, खबर, टोपी, चींटी, किन्नर, भिखारी, मौन, याद, फोन आदि विषयों पर खूब तल्लीन होकर लिखा है। खेत, जंगल, वृक्ष, धरती, नदी, बरसात, गेहूँ के साथ-साथ पर्यावरण प्रेमी के लिए गीत भी लिखा तो केदारनाथ त्रासदी पर पाँच कवितायें लिखकर संग्रह के विषय को व्यापक और समृद्ध कर दिया है।‘गालियाँ’’ जैसे अछूते विषय पर कविता लिखकर उसकी प्रकृति पर प्रकाश डाला है।
‘‘गालियाँ सभ्य लोगों के बीच
वेश्याओं की तरह बहिष्कृत रहीं
भाषा के ये खदेड़े गए शब्द
अमूमन सबके काम आए
कभी हथियार की शक्ल में तो कभी 
रूमानी रंग की तरह’’ (गालियाँ)
ब्रज जी के संग्रह में लम्बे शीर्षक से लिखी कविताएँ भी प्रभावी बन पड़ी हैं- ‘‘बहुत ज्यादा होना चाहा तुमने’’, ‘‘नदियों से कुछ मत कहो’’, ‘‘यह सोचना ठीक नहीं’’, ‘‘रस भरी कविता सुनाओ’’ आदि।
उनकी कविताओं में अरबी-फारसी के शब्द, देशज शब्द, मुहावरे आदि का प्रयोग मिलता है। प्रतीक और बिम्ब काव्यगत भावों को और अधिक गहनता प्रदान करने में सक्षम हुए हैं। काव्य शैली सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण है। कहीं सूत्रशैली का प्रयोग किया है तो कहीं विस्तार से अपने कहे को समझाने का प्रयास करना उनका मुख्य शगल है। ‘‘अंतिम यात्रा’’ में व्यंग्य का प्रभाव है। कई उपमानों का भी प्रयोग उन्होंने किया है। कलात्मक भाषा से उनकी कविताओं में नवीन सौंदर्यानुभूति होती है।
’’बम ब्लास्ट ने छीन ही लिया तुम्हारा साँसों से भरा पर्स’’
‘‘तन के भीतर टहल रही हवा’’
‘‘साँसों ने देखा एक बुरा सपना’’
‘‘समय पर पाँव रखकर हम सब आगे बढ़ते रहे’’
आँखें लाल होना, आग घोलना आदि अनेक मुहावरों का यथोचित प्रयोग उनकी कविताओं में मिलते हैं। साथ ही अलंकारों के प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न करते हैं।
‘‘ गाँव था वो जैसे भुजरियों को एक दौना हो
लोग थे वैसे, जैसे गेहूँ के अंकुरित हरे-भरे पौधे हों।’’
 ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताएँ भारतीय संस्कृति में रची-पगी हैं। कविता उनके लिए मनोरंजन और केवल स्वांतःसुखाय ही नहीं है वरन् उनकी हर साँस में बसी और गहराई तक मनःमस्तिष्क में समाई है। उनके लिए कविता परत दर परत जीवन का खुश्नुमा पन्ना है, जीने का अहसास है, आनंदमय क्षण की अनंुभूति है। ब्रज श्रीवास्तव का प्रस्तुत काव्य संग्रह निश्चित ही साहित्य में नवीन स्थापनाएँ प्रस्तुत करेगा। स्वार्थलिप्सा बेईमानी और विद्वेषपूर्ण वातावरण में उन्होंने सकारात्मक सोच की एक रोशनी से जीवन-जगत् में प्रकाश की अनगिनत किरणों का पदार्पण कर दिया है। वे लिखते हैं-
‘‘जरूर दर्ज होगा नाम, हमारा भी तुम्हारा भी
ठीक से जीने वालों की कतार में’’
=============================================
प्रवेश सोनी
कवि ब्रज श्रीवास्तव   एक संवेदनशील कवि होने के साथ साथ सीधे और सरल स्वभाव के व्यक्ति  है |इनकी कविताओं की भाषा अपनेआप में अलग ही पहचान बनाती है |इनकी रचना प्रक्रिया जीवन की वास्तविकता की राह से गुजरती है  | स्वयं से लेकर समाज तक का परिक्षण करती इनकी कविताएं तृतीय काव्य संग्रह  “ऐसे दिन का इन्तजार “  में संगृहीत है, जो इनके अनुभव जनित विचारो की कोमलतम अभिव्यक्ति है |यह  जीवनशैली  के बदलाव में अद्रश्य होती लय को माँ की ढोलक की थाप में तलाशते है , बीते हुए समय की आवाज़ सुनते है कि
कैसे उन दिनों रात में /ढोल मंजीरों की आवाज़ सुनते सोया करते थे लोग /दरअसल तब लोग लय में जीते थे /जीवन की ढोलक पर लगी /मुश्किलों की डोरियों को ख़ुशी ख़ुशी कस लेते थे/ बजाने से पहले |
जीवन के प्रति घोर आस्था |जीवनानुभव को रचनानुभव में बदलने का  कौशल कवि की कविताओं में सहज ही दिखाई देता है |प्रकृति , वनस्पति ,जीव और अपने आस -पास के वातावरण में  कवि चुप होकर मन ही मन अपनी  काव्य सर्जना  में रहते  है |न कोई हड़बड़ी न कोई दबाव न कोई होहल्ला  बहुत ही सहजता और सलीके से अपनी बात कविता में ढाल देना  कवि का विशेष गुण है जो उनके कवित्व को अलग ही स्थान देता है |अनूठे और अछूते विषय पर लिखी कविताएं पाठक को भौचक्का कर देती है | एम्बुलेंस कविता पढ़कर ऐसा ही लगा जब कवि  नाउम्मीदी को ललकारते सकारात्मकता से लिखते है ...
हट जा नाउम्मीदी रास्ते से हट जा
मौत को मार डालने केलिए
घायल हुई जिन्दगी जा रही है ....
अपने समय के सत्य में सम्वेदनाओं की  नमी लिए हुए वृद्धाश्रम कविता कवि के मन की वो परत खोलती है जिसमे वो गहरी वेदना और विषाद  की गंध समाहित किये हुए है |
प्रकृति की त्रासदी में भगवान् को भी कटघरें में खड़ा कर भक्त और भक्ति के रिश्तें पर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है एक कवि की कलम में ही यह सामर्थ्य है जो स्रष्टि के रचियता से भी सवाल कर सकता है...जो मर गये केदारनाथ में /आखिर लम्हों में भी /मानते रहे तुम्हें ही महान /जो बच गए /वे भी तुम्हारें /ऋणी हुए /वाह रे ईश्वर /भक्त बनाना तो कोई तुमसे सीखे |
मजलूमों ,शोषित ,वंचितों ,असमानता ,असहिष्णुता के भाव ब्रज जी की कविताओं में आवाज़ बन गूंजते है |वंचित और शोषित किन्नर वर्ग भी इनकी कविता में सम्मान सहित रहा |बम ब्लास्ट को शिकारी भेडिया  बताया कवि ने जिसकी भूख को पैदा किया कुछ सिरफिरों ने ....आखिर तुम सब हो ही गए /दुनिया से बाहर /बम ब्लास्ट ने छीन ही लिया तुम्हारा /साँसों से भरा पर्स .... हिंसा के ताण्डव के आगे बेबस कवि कौचता है  अपनी कलम से उन भेड़ियों को जिनके लिए दूसरों की साँसे छीन लेना मात्र खेल है|
देखने की बात यह है कि कवि ने जो प्रतिक लिए है कविता में वो भाषा को क्लिष्ट न करके पाठक के साथ  सहज ही सम्प्रेषित लय जोड़ देते है और देखने में प्रांजल भाषा का बोध कराती है जैसे सांसो से भरा पर्स .....वाह कर उठता है मन  इस आह भरी कविता पर |
वर्तमान सामाजिक विद्रूपता में बच्चो की दुनियां कविता में कवि बच्चो को भीख न मागने और  स्वाभिमान से जीने की बात करते है इस कविता से कवि मन  में बच्चों के खोते हुए बचपन की चिंता जाहिर होती है |
प्रेम कवितायें संग्रह में उसी प्रकार लिखी हुई है जैसे तपते थार में नखलिस्तान हो |अलग ही ठीये पर रखा कवि ने अपनी प्रेम कविताओं को |नफ़रत की पौध को उखाड़ कर प्रेम का छायादार वृक्ष जैसी प्रेम कवितायें  ऐसे दिन के इन्तजार में है जब धर्म का आशय ठीक ठीक समझा जाय ,प्रतीक्षा कि जातियाँ पेड़ की तरह बड़ने दे मानवता को ,जब बच्चें हँसे तो सब पूजा छोड़कर आयें उन्हें देखने ..ऐसे दिन का इन्तजार कि भगवान् सुलभ हो जाए हमें हवा पानी और उजाले की तरह ....ऐसे दिन का इन्तजार है कवि को ,..और हमें भी तो यही इन्तजार रहा ,है और रहेगा सदा कि लिखी जाय और भी ऐसी ही कवितायें |
=========================================================
अबीर आनंद 
अपना एक टुकड़ा कहीं बो दिया जाये और जब वह फल देने लगे, उस फल में जिस तरह के बीज की उम्मीद हो, ऐसी कविताएं हैं। ब्रज जी की कई कविताएं टुकड़ों में पढ़ी हैं, कभी इस मंच पर तो कभी फेसबुक पर। उससे भी उनके व्यक्तित्व का अनुमान हो जाता है। फेसबुक पर कुछ पारिवारिक क्षण भी देखे हैं, तो उनसे बिना मिले भी कमोबेश एक शख्सियत का खाका खींचा जा सकता है। यह एक अलग बात है। पूरा एक कविता संग्रह एक बार में पढने, और फिर उनकी अर्द्ध-परिभाषित छवियों को छोटे-छोटे फ्लैशबैक अंदाज़ में बुनकर इस कविता संग्रह पर superimpose कर देने से जो पूरी तस्वीर बनती है, एक शख्सियत के तौर पर वह लाजवाब है। शख्सियत को परिभाषित करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वह तकरीबन हर कविता में एक सवाल की तरह प्रकट हो जाती है। ‘जिसकी कविता की सोच इतनी इतनी सुन्दर है; क्या इस तरह के लोग अब भी हैं दुनिया में?’ स्कूल पाठ्यक्रम में जब कविताएँ पढ़ते हैं तो कवि के व्यक्तित्व को परिभाषित करने की उतनी लालसा नहीं होती थी क्योंकि तब तक दुनिया में बहुत कुछ था जो देखा नहीं था या समझा नहीं था। आज ऐसा नहीं है। bottomline ये है कि अगर एक कुशल कारीगर यदि प्रतिमा बनाने में बेईमानी कर दे तो बहुत से लोग उस प्रतिमा को खरीदने या अपनाने से परहेज़ करें। कम से कम मैं उनमें से हूँ। जान बूझकर, व्यक्तित्व की ईमानदारी को कविता के ईमान से अलग करके देखना संभव ही नहीं है। इस लिहाज़ से मुझे गर्व हुआ कि मुझे ब्रज जी की कविताएं पढ़ने और उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण उन कविताओं के माध्यम से ब्रज जी को और करीब से जानने का अवसर मिला। कई बार इस मंच के संचालन में भी उन्होंने अपने व्यक्तित्व का ऐसा परिचय दिया है जिससे प्रभावित हुए बिना मैं नहीं रह सका।
संग्रह छपना एक उपलब्धि है, उसके लिए मैं ब्रज जी को बधाई देता हूँ। 
जैसा कि मैंने कहा, कविताओं में सच है- रोजाना जी लेने का सच, हार बैठने का सच, खो देने की चिंता का सच, बिना किसी गणित के किसी के सानिध्य का सच। सिर्फ रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का सच नहीं है; कई कविताएं शिखर पर ले जाकर छोड़ देती हैं जहाँ गहरे दार्शनिक भाव मिलते हैं, शायद रोज़मर्रा का आदमी जिन्हें उतनी सहजता से न समझ पाए। ‘अँधियारा’ उनमें से एक है। सज्जनों और महापुरुषों के समागम जैसा सुफल मिलता दिखाई देता है, बात वहां भी सरल बिम्बों और प्रतीकों के ज़रिये ही की गई है पर गहरी बात की गई है। अँधेरे को रोशनी से अलग करके देखना कौन सी नई बात है? अंतर करने का मर्म सटीक परिभाषा में लपेटा गया है पर हुआ तो नहीं है न। और इसे करना हर किसी के बस की बात भी नहीं है। ‘बम ब्लास्ट’ में भी ऐसा ही कुछ स्वर सुनाई देता है आखिरी की चार पंक्तियों में जब बामियान की प्रतिमा का ज़िक्र होता है। ‘यह सोचना ठीक नहीं’ भी कुछ ऐसी ही छाप छोड़ती है।  
एक आम कवि भी है जो कुछ कविताओं में अपने नज़रिए से चीज़ों को देखता है और सामने आता है एक नया पहलू। एक सीख भी है कि जब मन निराश होने लगे तो किसी दूसरे छोर पर जाकर चीजों को देखा जाये। ‘अम्बुलेंस’ में एक नजरिया है जो उसके साइरन को क्षणिक अफ़सोस करके उसे रास्ता देने भर से कहीं आगे है। ‘अम्बुलेंस’ में हमने मौत से जूझती जिंदगियां देखी हैं, यहाँ मौत को हराने की जिद लिए ज़िन्दगी है। कल आप सड़क पर फिर से ‘अम्बुलेंस’ देखिये इस नए नज़रिए से, साइरन सुनते ही आप उसे जाने का रास्ता देंगे बिना किसी शिकायत के। आज भी देते होंगे पर शायद नहीं भी; अब यकीनन देंगे। कितने नज़रिए हो सकते हैं? उसी अम्बुलेंस को अम्बुलेंस के चालाक की नज़र से देखें-‘स्पीडोमीटर के काँटों पर धडकनों की कदमताल’, अम्बुलेंस के परिचारक के नज़रिए से देखें तो ‘ऑक्सीजन के सिलेंडर में साँसों का शेष स्टॉक’। ये जो आप नजरिया लेकर आए हो, यह कविता है। ‘किन्नर’ को भी हमने नहीं सोचा होगा कि जब वह मर जाते हैं तो क्या रीत निभाई जाती है। उसकी हत्या पर एक छोर पकड़ा कवि ने और कहा, ‘अरे हम तो समझते थे कि ये इंसान होते ही नहीं पर दूसरे इंसानों की तरह आज इसका क़त्ल हुआ तो पता चला कि ये भी इंसान होते हैं’। उदाहरण के तौर पर अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, दलितों के लिए मानवाधिकार की बात हम रोज़ सुनते हैं पर कितनी बार हमने किन्नरों के लिए ऐसे सवाल सुने हैं? कोई लालच होगा, वह किन्नर कोई रोड़ा होगा जिसकी हत्या की गई या फिर किसी को चोट पहुंचाई होगी तभी उसे किसी ने मारा न? जब उसकी हत्या का विश्लेषण हुआ तो पता चला कि किन्नरों की संपत्ति हो सकती है, वे किसी से प्रेम कर सकते हैं या फिर किसी को लालच दे सकते हैं धोखा दे सकते हैं। इंसान की परिभाषा वहां से शुरू हो रही है जो उसे नहीं होना चाहिए था।     
कुछ कविताएं हैं जो आसानी से समझी जा सकती हैं पर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आदमी नहीं जीता। ‘बच्चोँ की दुनिया’ में कोई बड़ी बात नहीं है, धरातल है मैला धरातल। हर कोई अपने दैनिक जीवन में बाल-भिक्षुकों से दो चार नहीं होता। खुद सवाल कहता है, ‘अब तक हो रहा है यह सब’। सीधी-सच्ची बात है, एक सवाल उठाया है जिसमें न बिम्बों की बेईमानी जबरदस्ती ठूंसी गई है न प्रतीक थोपे गए हैं। कड़वे को सिर्फ़ कड़वा कहकर छोड़ दिया गया है।          
एक और श्रेणी की खूबसूरत कविता होती है जिसका कोई सार नहीं होता। आप पढ़ते जाइए और वह बस बिना किसी मतलब के आपके ज़हन में उतरती चली जाती है क्योंकि वह साफगोई, वह याद उतनी ही तरलता से आपने कभी जी है जितनी तरलता से वह पन्ने पर उतारी गई है। माँ की ढोलक में एक झीना सा फलसफा है ‘दरअसल तब लोग लय में जीते थे....डोरियाँ कस लेते थे’। फलसफा है पर वह कविता पर हावी नहीं होता। कविता पर हावी होती है ढोलक के थापों की याद जो हम सब ने कभी न कभी जी है। अच्छा, कविता में फलसफा है तो सशक्त बन पड़ी है पर मेरे लिए, अगर वह नहीं भी होता तो भी उतनी ही पसंद आती। अच्छी बात ये है कि फ़लसफ़ा हावी नहीं होता। ‘नहीं बदला’ उतने ही प्रभावी रूप से किसी को अपील करेगी जितने प्रभावी रूप से कवि को किया है। ‘मोहल्ले के लड़के’ भी एक बहुत अच्छा उदाहरण है।
ये बहुत सीमित दायरा है जिनमें शायद मैंने इन कविताओं को समझने का प्रयास किया है। समयाभाव में इतना ही कह पाऊंगा। मुझे बहुत पसंद आयीं कविताएं। वृद्धाश्रम, नदियों से कुछ मत कहो, पता नहीं, बरसात की प्रतीक्षा में, आवाज, कविता के मन की बात, भिखारी, ऐसे दिन का इंतज़ार बहुत खूबसूरत रचनाएं हैं। करीब करीब सभी पढ़ ली हैं, पर सब पर टिपण्णी देना तनिक कठिन है। मन तो चाहता है पर फिर सोचता हूँ कि शायद आपको पर्सनली टिपण्णी दूं तो भी आप बुरा नहीं मानेंगे।   

========================================================
प्रदीप मिश्र 
जब हम कोई कविता संग्रह हाथ में लेते हैं। तो सबसे पहले संग्रह का कवरसमने आता है। यहीं से संग्रह के प्रति एक मानसिकता बनती है। इस चेतना के प्रति हिन्दी पट्टी लापरवाह है। मुझे इस बात की ख़ुशी है 
कि पिछले कुछ वर्षों से कविता संग्रह के कवर का चयन भी कविताओं के अनुरूप हो रहा है। इसक्रम में ब्रज श्रीवास्तव के कविता संग्रह ऐसे दिन का इंतज़ार को सटीक उदाहरण की तरह लिया जा सकता है। वस्तुतः एक इन्तज़ार ही है जो कविता में कशिश के अस्वाद को जन्म देता है। यह कशिश कुँवर रवींद्र के बनाए आवरण से शुरू हो जाता है। दूसरी अच्छी बात इस संग्रह में ब्लर्ब और भूमिका का ना होना है। यह पाठक को स्वतंत्र करता है और पाठ केसाथ उसके आकाश को भी सम्मानित करता है। अब पुस्तक के आकार-प्रकार हमारे सामने खड़े होते है। भाई मायामृग जी ख़ुद कवि हैं। ज़ाहिर है उनकी प्रस्तुति भी हमें कविताओं के मर्म तक पहुँचने मेन मदद करती है। इसमें कोई संशय नहीं है कि बोधि प्रकाशन ने पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेज़ी अपनी जगह बनाया है। परिणामस्वरूप इस प्रकाशन से जब कोई किताब आती है, तो यह मानलिया जाता है कि संग्रह पठनीय है। इतनी ख़ूबियों के ऊपर से कवि का तीसरा है। कवि पहले संग्रह में अपने अनुभव संसार के टटकापन पाठकों सौंपता है। दूसरे संग्रह में कविताई के कौशल से जोड़ता है। तीसरे कविता संग्रह तक पहुँचते पहुँचते कविता की वैचारिक और तकनीक में कुछ नया हासिल करता है। इस नए की तलाश में मैं ब्रज की कविताओं के संसार में उतरा और मेरे समाने निम्न पंक्तियाँ आयीं।
ढोलक जब बजती है/तो ज़रूर पहले/वादक के मन में बजती होगी- इसी कविता में आगे चलकर एक पंक्ति मिलती है-दरसल तब लोग लय में जीते थे- और फिर माँ ही मिलती है उधर ढोलक बजाते हुए। यहाँ ढोलक की जगह कोई और वाद्ययंत्र हो सकता था लेकिन श्रम और मज़दूरों के मनोरंजन का यह पुरातन साथी कवि की पक्षधरता को साफ़ करता है। फिर लय की बात क्रिसटोफ़र काडवेल की याद दिलातें हैं। जहाँ लय श्रम के मूल में मिलता है। फिर माँ संवेदना को गहन करती हुयी मिलती है और बाज़ारवाद जो जीवन के लय को लील रहा है के विरुद्ध पाठक को चेतित करता है। यह आजकल बाज़ार के जादू से भरे मनोरंजन के साधनों पर स्मृति का सार्थक हस्तक्षेप है। यहाँ बिना किसी शोर शराबें या उत्तेजना के बाज़ार के इस घात का विरोध है। कविता अपना विरोध इसीतरह से दर्ज करती है।    
 पौधे का आत्मकथन मेन धक्का शब्द के प्रयोग पर आपत्ति है। धक्का मे विलग और अलगाओ का बोध है, जबकि यहाँ जड़ें धक्का दे रहीं हैं। जड़ें हमेशा जुड़ी रहतीं हैं। जीवन की रूढ़ियों पर यह कविता व्यंग्य करती है।सवाल सच का है में झूठ को सच की तरह पेश किया जाना, एक मनोकामना में काल्पनिक याचना और दौड़ कविता की इन पंक्तियों पर पाठक ठहर जाता है-दौड़ में शामिल किया गया मैं भी/बग़ैर दिए यह शर्त/कि छोड़ना भी है कोई पदचिह्न। इस पूरी मनोदशा को साफ़ करती हुयी कविता मेरी दिनचर्या में प्रेम को संकोच के साथ पंक्ति में खड़ा पता है। और हमारे समकाल को कवि रेखांकित करता है।    
 यह रेखांकन कोई आरोपण नहीं है, बल्कि सहज जीवननुभवों से प्राप्त है।फिर कविता पर कवि का विश्वास दुहस्वप्न से बाहर आने की ताक़त देती है।
इस संग्रह का कवि समय में आधुनिकता की धमक से ख़ूब परिचित है। इसलिए उसका आत्मकथन कविता में दर्जकरता है- अमेरिका, पैकेज, multinational कम्पनी, ऐसी, computer, दसवीं मंज़िल और व्यस्तता इतनी की कवि माँ की दवा भी लेने नहीं जा पाता। अंधियारा में हमारे समय की स्याही की सही पहचान, बमविस्फोट में आतंक और धर्म के गदमड, ऐंबुलेंस मे आशाघोष जैसे शब्दों की प्राप्ति, शिकार और शिकारी का मन तौलते हुए बच्चों की दुनिया में पहुँच जाता है। यह इस संग्रह की बहुत अच्छी कविताओं में से एक है।  नहीं बदला कविता को भी इसी क्रम में एक सुन्दर प्रेम कविता की तरह देखा जा सकता है। हम जब साथ चलते हैं कविता में - हम जब साथ चलते थे/एक उत्सव हुआ करता था । या यह प्यार कविता की पंक्ति- नफ़रत की पौध को उखड़ फेंकना चाहिए। या तुम्हारे बारे में की पंक्ति- तुमने प्यास को पानी मेन बदलना/और प्यास को बदला और तेज़ प्यास में। प्राप्तकरके कवि प्रेम के उत्कर्ष के साथ सरोकार को भी प्राप्त करता है। इस संग्रह के कवि का प्रेम निज से मुक्त पूरे समय से प्रेम है।
============================================
ऐसे दिन का इंतज़ार’, कविता संग्रह, 
कवि श्री ब्रज श्रीवास्तव
प्रकाशक बोधि प्रकाशन, जयपुर।
----------------------------------

‘‘ गाली ही से उपजे कलह,कष्ट और मीच ।
  छोड़ चले वो साधु हैं, लागे रहे सो नीच।।

कबीर के इस दोहे की तरह ही ब्रज श्रीवास्तव केे कविता संग्रह ‘ऐसे दिन का इंतज़ार‘ की कवितायें  हैं।

कविता गालियाँ (पृष्ठ76)... 

गालियाँ सभ्य लोगों के बीच
वेश्याओं की तरह बहिष्कृत रहीं
कामगारों ने अकसर सहारा लिया इनका
काम के वज़न को हल्का करने के लिए
आफ़िस में बड़ेबाबू ने एक अश्लील सी चुटकी ली
नहीं कि
ठहाकों के बाद
सबने अपने हिस्से के काम को आज ही अंजाम दे दिया....’’

हालाँकि यह  प्रयोग उचित नहीं हैं। यह संग्रह की ठीक और अच्छी कविताओं में से एक कविता हैं। एक तरफ़ जहाँ गालियाँ मजदूरों के बीच उत्साहवर्द्धन का काम करती हैं, वही कार्यालयों में हल्के-फुल्के विनोद का भी। कामगारों में जहाँ प्राण उर्जा भर देती है वहीं कलमधारी (कर्मियों) के ठहाके से उन्हें तनावमुक्त भी कर देती हैं।

प्रेम,प्यार, पारिवारिक सम्बन्धों की उष्मा, माँ का घर के प्रति समर्पण और अपने आसपास की दुनियाँ को अपनी कविताओं में समेट लेने का अथक प्रयास किया ब्रज भाई ने। 

यह उनका तीसरा कविता संग्रह हैं। 70 से अधिक कवितायें इसमें समाहित हैं, जिसमें...
‘ नज़दीक की हरेक चीज़
तेजी से दौड़ रही हैं
ज़मीन का ये टुकड़ा
बदल गया अब भव्य इमारत में
मन की गति से भी तेज बाज़ार दौड रहा हैं
सिमट रही हैं दुनियाँ एक जगह पर
नहीं हैं कोई भी वाहन स्थिर।
दौड़ (पृष्ठ 76)

प्रस्तुत संग्रह की कविता 'दौड़ ' बाज़ारवाद के क्रूर हाथों से सभ्यता और संस्कृति के दमन की ओर इशारा करती हैं। बाज़ारवाद के समर्थन और विरोध में हम कई तरह के विचार और मंतव्यों से रूबरू हो चुके हैं। लेकिन प्रस्तुत कविता में कवि ने जिस तरह बाज़ार की दौड़ को मन की गति से तेज रफ़तार बताया हैं, वहाँ हमारी दृष्टि और दिमाग भी चकाचौैंध होकर रह जाते हैं। अपने इस प्रयास में कवि अकसर नियति की सीमाओं को भी लांध जाते हैं....

कविता... (पृष्ठ 11)
पौधे का आत्मकथन

" मिट्टि के इसी खंड पर
बढ़ते जाना हैं मुझे
सीधे खड़े रहकर सहना हैं
लदते जा रहे फलों का बोझ... "               यह विरोधाभास पौधे का नहीं कवि का ही आत्मकथन हो सकता हैं।

कविता
एम्बुलेंस  (पृष्ठ 25)

हट जा ना-उम्मीदी रास्ते से हट जा
मौत को मार डालने के लिए
धायल हुई ज़िन्दगी जा रही हैं।

व 

मरणोपरांत जीवन (पृष्ठ 86)

अगर इसी तरह से
आपाधापी और भागदौड़ की तरफ़
जाता रहेगा जीवन तो मुमकिन हैं ऐसा भी न हो पाए
मेरा मरणोपरान्त जीवन....

व एक ओर अन्य कविता 

नहीं बदला  (पृष्ठ 31)

‘हज़ारों बार उग चुका सूरज
सैकड़ों बार झड़ चुके पेड़
दीवारों पर कलेन्डर
बीसियों बार बदला
पर स्मृति में
तुम्हारे चले जाने का अन्दाज नहीं बदला’

एम्बुलेंस कविता में कवि ‘ मौत ’ को मार डालने के लिए तत्पर हो जाते हैं और एम्बुलेंस की गति बढ़ता हुआ देखना चाहते हैं तो ‘मरणोपरान्न जीवन’ में मृत्यु पश्चात, मृत्युु द्वारा जीवन का अवलोकन करने की बात करते हैं...यहां कवि एकदम नई दृष्टि से चीजों को देखने की कोशिश करते हैं हालाँकि....

0 फलों के लदने से शाखाओं का झुकना प्राकृतिक हैं।
0 मौत को मारा नहीं जा सकता अपितु विजय प्राप्त करने की चेष्टा की जा सकती हैं।
0 मरणोपरान्त जीवन नहीं होता। मरण से पूर्व की अवस्था जीवन होती हैं।
0 एक जीवन में सैकड़ों बार पेड़ के पते झड़ सकते हैं- पेड़ नहीं।

संग्रह में प्रिय कवि का जाना, माँ प्रवास पर हैं भुजरियाँ, श्रमिको के लिए; ऐसे दिन का इंतज़ार आदि बेहतरीन कवितायें  हैं।  मुझे लगता हैं कहानी की तरह कविता का भी अपना एक कथ्य होता और हमें उसके साथ ठीक वैसा ही बर्ताव करना पड़ता हैं जैसा कहानी में। 

‘माँ की ढोलक’ कविता में  माँ और ढोलक के बीच के जिस आत्मिक रिश्ते को पूरी गरिमा और आत्मीयता के साथ प्रगट किया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ हैं।

कुल मिलाकर सरल, सहज भाषा में बिम्ब और प्रतीकों का सहारा लिये बगैर अपनी बात कहने की कला में कवि माहिर हैं और यही सरलता उनकी कविताओं की पहचान भी हैं। नये संग्रह पर उन्हें हार्दिक बधाई।

राजेश झरपुरे, छिन्दवाड़ा

9425837377
=====================================संध्या कुलकर्णी 
मनुष्य की उर्ध्वगामिनि चेतना के सौंदर्यीकरण के उपादानों की तलाश कवि यथार्थ के भीतर से करे अथवा यथार्थ को रचकर एक पाठक की नज़र मूलत: यही देखती है ।यहाँ कवि काल से लड़कर कविता को बचाने की भरसक चेष्टा कर रहा है ।
ब्रज की कवितायेँ और उनका सौंदर्य यही है कि, वे सत असत ,ग्राह्य अग्राह्य ,घटना ,परिवेश ,और केवल दृश्य का चित्रण मात्र ही नहीं करतीं बल्कि इन सबमे यथार्थ का अन्वेषण करके मानव आस्था एवं मानव सम्भावना की लकीरें खींचती हैं ,मनुष्य के भीतर छिपे मनुष्य की परत दर परत पड़ताल करती हैं ।साथ ही ये कवितायें तमाम नव उपनिवेशवादी सांस्कृतिक विचलनों द्वारा रचे गए काल व परम्पराबोध  से विछिन्न जिनके अनुसार मानवीयता को दरकिनार किया जाता है ....का प्रत्युत्तर देती चलती हैं और अपनी बनक में बहुत सरलता लेकर ये अपनी बात रखती हैं ।
जब ब्रज प्रेम कवितायेँ रचते हैं तब भी जैसे स्मृति में ही डूब कर लिखते हैं एक बानगी देखिये----
" हम जब चलते थे साथ
तो कोई दुख नहीं चलता था
हर सेकंड, जुनून और उमंग से भरा होता था
हमारे हिस्से में केवल वे ही पल आते थे
जो हमारे साथ चलने के बीच होते थे मौजूद......"
जीवन की छोटी से छोटी चीज़ें भी जिन्हें सामान्य जान अनदेखा कर देता है कवि की नज़रों से बच नहीं पाती टोपी ढोलक भी इतनी सुंदरता और विचारपरक रूप से कविताओं में दिखती हैं कि पाठक सहज ही कविताओं से अपना जुड़ाव महसूस करता है ।
प्रतिरोध की कवितायेँ भी यहाँ रेखांकित की जा सकती हैं जिसमे कवि प्रतिरोध को ही मुख्य एक्ट मान कर चलता है ,कई बार अपनी बात कहने के लिए वो अपनी बात को कई तरह से एलेबोरेट करता है कविता विस्तृत हो जाती है जो अनावश्यक भी प्रतीत होता है ।
इस कविता में देखिये ज़रा ----
यह सोचना ठीक नहीं .
" हमारा प्रतिरोध करना ही
हमारे होने के हस्ताक्षर
छोड़ता है कई बार "
युग बोध कवि की कविताओं में मुखर है प्रगतिशील विचारों की महक भी कविताओं में विद्यमान है जो अपनी चिर परिचित शैली में प्रकट करते हैं वो अपनी बात में समय भी स्वत:ही शामिल हो जाता है -----
मुझे चिंता है
"जाने कब सौंप दे हाथ में
ख़ारिज करने का फरमान
उसने लिया है निशाने पर
मानकर प्रतिस्पर्धी मुझे
सोचता रहता है मेरे बारे में ही
मैं सामान्य और सहज हूँ
वह चल रहा है आक्रमण की चालें
मेरी गति को समझकर विरूद्ध
साँस लेने तक को
ना फ़रमानी समझ लेता है "
विस्लावा शिम्ब्रोस्का की बात याद आती है जब वो कहती हैं कि, "छोटी से छोटी बात पर लिखो कैसा भी  पेपर मिले उस पर लिखो पर लिखो"
कवि अपने कवि कर्म में ये सिद्ध कर रहा है इनकी कल्पनायें असीम हैं और उसमे डूब कर ऐसे दिन का इंतज़ारकर रहे हैं जब इनकी कल्पनाओं और चिंताओं को सकारात्मक प्रवाह  मिलेगा कविताओं के माध्यम से तो ये कर ही रहे हैं कवि कर्म 😊
इन्हें तहेदिल से शुभकामनाये
संध्या कुलकर्णी 
=============================================
सुधीर देशपान्डे
कवि का सकारात्मक होना ही उसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। छोटे और अनछुए विषयों पर सहज सरल कविताएं अन्य विशेषता है। अति बौद्धिकता का प्रदर्शन नहीं। जैसा समझा जैसा देखा उसे वैसा कहा। पर अर्थवत्ता की दृष्टि से यस कविताएं चमत्कृत करती है।


===============================================
राजेन्द्र श्रीवास्तव 
ऐसे दिन का इंतज़ार'
 "........रचना की सच्ची मनोभूमिका काव्य -रचना के क्षणों के बाहर निरंतर तैयार होती रहती है।यदि इस मनोभूमि की तैयारी के दौरान कवि सचमुच ईमानदार है,यानी वहअपनी जीवन-दृष्टि व्यापक और गहरी रखने का प्रयत्न करता है,तो उस काव्य -रचना से संबंधित वह मनोभूमिका भी अधिकाधिक विशद और यथार्थ होती जाती है।"
 #मुक्तिबोध#
 प्रिय ब्रज के काव्यसंग्रह "ऐसे दिन का इंतज़ार" की कविताओं में हम ऐसी ही विशद व यथार्थ मनोभूमिका देख सकते हैं।उनकी कविताएँ टेबल पर बैठ कर लिखने से बहुत पहिले सङक चलते,मित्रों से बतियाते विद्यार्थीयों की गतिविधि देखते आकार ले चुकी होती हैं।
आत्मगत व बस्तुपरक दोनों का अच्छा मिश्रण ब्रज की कविताओं में हम देख  सकते हैं। 'मुझे चिंता है' , 'जीवन नहीं रचा' कविताओं में उनका आत्मकथ्य पढ़ा जा सकता है।
उनकी कवि-दृष्टि  का कैनवास भी  व्यापकता लिये हुये चीटी के मुँह में दबे तृण/कण, किन्नर ,वृद्धाश्रम ,श्रमिक ,खेत व अंतिम यात्रा से होते हुये नदी किनारे रेत के भीतर गहराई तक फैले अंधियारे पर जा टिकता है।
भाषा व भाव का संतुलित समन्वयन जो कविता के प्रभाव को बढ़ाने व शिल्प गढ़ने में सहायक है ,वह ब्रज की कविताओं में भी  यत्र-तत्र यह सामंजस्य दिख जाता है।
"जीत जाते तो
खूब जय जय कराते अपनी
अब प्रकृति की
जय जय होने दो।"
शब्दाडम्बर व बिम्ब आदि से यथासाध्य बचने का प्रयास कुछ इस तरह  किया है कि कविता रुक्ष भी न हो साथ ही साधारण पाठक भी  इस दुरूहता से बचकर कविता के मर्म को छूकर संतुष्टि पा सके। यद्यपि कविता के शिल्प पर प्रतिकूल प्रभाव की आशंका बढ़ जाती है,तथापि कवि ने आम पाठक की अभिरूचि को प्राथमिकता देकर साहित्य -धर्म ही निभाया है। कई कविताओ्ं में अच्छा शिल्प भी  गढ़ा है।प्रेम ,मानवीय गुण-दोष,  सामयिक विसंगति, समस्याओं पर भी कलम चली है।आतंक ,पर्यावरणअसंतुलन बालमनोविज्ञान ,वृद्ध बनाम परिवार और सामाजिक सरोकार सभी  विषयों पर प्रत्यक्ष -परोक्ष बात की है।
इनकी कविताओं में लाउड नहीं के बराबर है।व्यथा है,आक्रोश है,वेदना है और कदाचित क्रोध भी  पर सब कुछ संयमित संतुलित ।
मुझे ऐसे दिन का इंतज़ार था कि मैं ब्रज की कविताओं पर सराहना के शब्द कहूँ। अवसर मिल ही गया ।
गूढ़ विवेचना समभाव से साहित्य- मनीषी ही करेंगे ।मैं ठहरा साधारण पाठक सो साधारण बात ही कर सका।
हाँ! ऐसे दिन का इंतज़ार अवश्य मुझे भी है। जब (ब्रज की ही एक कविता का अंश) -
  "पंथ की परिधि से बाहर ले आया जायेगा महापुरुषों को । "
ब्रज के अगले काव्यसंग्रह पर होने वाली चर्चा का  भी हिस्सा बनूँ।
बधाई व शुभकामनाएँ ।  

======================================
ओमप्रकाश शर्मा
मुझे भी 'ऐसे दिन का इंतज़ार'था, कि जब मैं , सामान्य पाठक की बात आप सब से शेयर कर सकूं।
मां की ढोलक से लेकर भुजरियाँ तक ,मुझे सभी कविताओं ने खूब डुबोया औरअपने प्रवाह में बहाती रहीं!
 पुस्तक का आवरण ,साज- सज्जा,छपाई सब आकर्षक हैं। विषयों का कैनवास काफ़ी विस्तृत है-वर्तमान के सभी मौजू विषय जैसे- आतंक,बाज़ार, खेत, प्रकृति, पर्यावरण, चिड़िया, नदी, बच्चे, श्रमिक, भिखारी, किन्नर,ईश्वर, मां, वृद्धाश्रमऔर स्थानिकता कुछ भी बचा नहीं है,कवि की नज़र से! विदिशा में और ब्रज जी के साथ बिताये समय के कारण-
अलविदा गीत ,प्रिय कवि का जाना, भुजरियां की स्थानिकता से मैं स्वयं को सीधे-सीधे रिलेट कर रहा हूँ। 'मां प्रवास पर है'ने मुझे गहरे से छुआ।
ब्रज जी को हार्दिक बधाई !साकीबा का आभार!
========================================
अखिलेश श्रीवास्तव
ब्रज जी का यह संग्रह मेरे पास हैं साधारण विषयों पर लिखी ये असाधारण कवितायें उनके कवित्व दृष्टि की उदाहरण हैं ।आप इस किताब को सिरहाने रखी जाने वाली किताबों में भी शामिल कर सकते हैं यह आपके आसपास से बतकही में शामिल विषयों को उठायेगी और इससे पहले की आप पुरानी बातों  को दुहराये,कविता को कोई पंक्ति नया  संदर्भ उठा कर विचार प्रकिया को नये सिरे से आमंत्रित कर देती है ।
संग्रह संग्रहणीय है मैं आश्वस्त हूँ यह किताब कभी भी पढ़ ली जाने वाली बुकलिस्ट में शामिल हैं और कवि ब्रज भी अग्रज कवि के रूप में हमारे कविताई जीवन में शामिल हैं ।
इस संग्रह की एक लिमिटेशन, जो दिखती हैं वह यह कि न के बराबर कविताओं में विस्तार हैं कुछ लम्बी कविताओं को भी स्थान मिलना चाहिए था ।
ब्रज जी की अधिकतर कविताएं जो मैनें पढी ,पंद्रह पंक्तियों के आसपास हैं वो संग्रह में लंबी कविताओं के पक्ष में नहीं है शायद,ऐसा वास्तव में है या अच्छी कविता पंद्रह बीस पंक्ति तक ही होनी चाहिए, यह एक प्रश्न है शाम के लिये ।
15 पंक्तियों की कविता को उनके ही समकालीन आलोचक शाब्दिक न्यूनता या शाब्दिक अक्षमता मान रहे हैं रविंद्र जी ने तो कहा कि जो युवा कवि 12-15 लाइन की कविता लिख रहे है वो शब्दों की तुरपाई कविता में नहीं कर पा रहे ,करे तो पता चले कि वो कविता की शब्द योजना में सफल है या शब्दों के भार पड़ते ही उनकी कविता बिखेर जाती हैं यह आज के युवा कवियों की असमर्थता हैं ।
दूसरी तरफ ब्रज जी अपने इस संग्रह से छोटी कविताओं को स्थापित करते लगते हैं नये कवियों के संग्रह में तो तीन पेज की एक भी कविता शायद ही मिले पर अगर ब्रज जी और अन्य वरिष्ठ भी यही करे तो आलोचकों को कुछ रिक्तता दिखती है संग्रह में ।
यह फटाफट कविता का दौर भी हैं जब अधिकतर पाठक जल्दी में हो तो कवि न चाहते हुये भी उधर झुक ही जाता हैं पर एक प्रश्न रहेगा हि कि जब छंद से अकविता की तरह मुड़ना हुआ तो एक तर्क यह भी था कि आज के समय के गुच्छे बन चुके विषयो पर छंद विस्तार नही दे पाता सो प्रयोग व प्रगतिशीलता हेतु अकविता ..।अब फिर वही लौट रहे है  तो प्रश्न कि क्या अब विषय सहज हो गये कि कवि ही सुविधानुसार विषय चुन रहे हैं समयानुकूल देखे तो इस दौरान कुछ आंदोलन या विषय महीनो चले पर  उन्हे कुछ पंक्तियों में समेटते युवा कवि निश्चय ही न्याय नहीं रहे हैं ।
छोटी कविताएं पाठक को तुंरत चमत्कृत कर देती है पाठक को पाठ का बहुत अवसर नहीं देती ।पाठकीय न्याय व आलोचकीय तृप्ति के लिये ही सही पर कुछ लंबी कविताएं संग्रह में होनी चाहिए यह मेरा विचार हैं ।
ब्रज जी का संग्रह बोधि से आया है संभवत प्रकाशक ने ही बाजार को समझते हुये संकलन किया हो ।

========================================
अंजू शर्मा
मैं कई कोशिशों के बाद भी पीडीएफ नहीं खोल पाई। मेरा नेट परसो से लुकाछिपी खेल रहा है।  ब्रज जी की कविताओं की बात पर यही कहूँगी कि मैं पिछले कई साल से उन्हें पढ़ रही हूँ।  दस्तक संवाद में हालिया संग्रह के विमोचन में मैं भी शामिल रही।  करीब 10 कविताएँ भी सुनी थीं उस दिन। सब की सब बढ़िया कविताएँ थीं।  बहुत धैर्य से अपनी बात रखी कवि ने। कहीं कोई लाउडनेस नहीं।  हड़बड़ी नहीं। एक परिपक्व ठहराव, अपने समय की आहट और सधी हुई कविताएँ मतलब जहां जितने जरूरी हों उतने शब्दों में अपनी बात संप्रेषित करने का सलीका है कवि के पास।  कविताएँ प्रासंगिक हैं,  ये आम विषयों पर लिखी जरूरी कविताएँ हैं।  मैं पुनः संग्रह के लिए ब्रज जी को हार्दिक बधाई देती हूँ और उनकी रचनायात्रा के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ। 🙏🏼💐💐                      
===========================================
अलका त्रिवेदी
बेहतरीन कवितायें. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नवीन बिम्बों की सुन्दर संयोजना. छोटी छोटी  कविताओं में बडे बडे विषय. पहली कविता "मॉं की ढोलक"से "मॉं का प्रवास" तक कम शब्दों में भी पूरे भावों की संप्रेषणा पाठकों तक बखूबी हो रही है. "पौधा* इसी स्थिति में खुश होना है फलों के तोड़े जाने कर..... "चींटियों "का नवीन बिम्ब.. चलते जाना है भावनाओं का तिनका दबाए हुए...वाह... "प्रेम का संकोच "टीस दे गया.. एेसे ही "याद" और  "हमतुम" की कसक.  .....हर रचना धीरे धीरे महसूस होने वाली रचना है..
============================================
हरगोविंद मैंथिल, विदिशा
यथार्थ का अहसास        
कहा जाता है कि कविता का पाठ अलग - अलग पाठकों के लिए अलग - अलग होता है और यह भी कि कवि की कविता ही उसका आत्म कथ्य होता है ।तभी तो प्रमुख  छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद  ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है  तथा
आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा  ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा कि,  "कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है ।"
ब्रज जी की कविताएँ पहले भी उनके काव्य संग्रह तमाम गुमी हुई चीजें  (2003 )और घर के भीतर घर  (2013 )के रूप में पाठकों के सामने आई है लेकिन अभी हाल ही में प्रकाशित तृतीय काव्य संग्रह ऐसे दिन का इंतजार उनकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनकर हमारे  (पाठकों के ) बीच आया है , जिसकी कविताएँ एक नए तेवर की कविताएँ है और इन कविताओं को पढ़ना अनुभव और अनुभूति के गहरे संसार से गुजरना है ।
आजकल प्रायः देखने में आता है कि अधिकांश कवियों की प्रकृति से दूरी बढ़ती जा रही है ।
ऐसे में ब्रज जी की कविताएँ प्रकृति से घनिष्ठ जुड़ाव का अहसास कराती प्रतीत होती है ।जब वे पौधों का आत्म कथन ,नदियों से कुछ मत कहो, बरसात की प्रतीक्षा या गेहूँ ने कहा था आदि कविताओं के माध्यम से प्रकृति की सूक्ष्म जटिलताओं को शब्दों में भरकर अपने पाठकों के समक्ष रखते हैं ।
ब्रज जी की कविताओं में अपनी परंपरा, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति असीम लगाव दिखाई देता है जब वह कहते है कि ----
मिट्टी और किनारे की घास को
कब से नहीं देखा ,
फिर भी पहुँचाते रहे हो तुम
हमें ताजा अनाज ।
ब्रज जी के द्वारा अपनी कविताओं में जीवन की जटिलताओं को भी बहुत सरल व सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है ,लेकिन
इस सरलता के पीछे के संसार का अनुभव सार सदैव एक सजीव चित्रण की भाँति दृष्टि गोचर होता है ।
ब्रज जी ने समाज के प्रत्येक वर्ग ( चाहे वह निम्न मध्यम वर्ग हो, श्रमिक वर्ग हो या फिर चाहे कोई उपेक्षित वर्ग ही क्यों न हो
जीवन को देखा और  समझा ही नहीं बल्कि संबंधित वर्ग या क्षेत्र के यथार्थ को बड़ी सिद्दत से अपनी कविताओं में स्थान दिया है ।
दरअसल ब्रज जी ने वही लिखा है, जो उनके अनुभवों ने लिखवाया है ।एक आम आदमी की बात कहते हुए इस चींटी की तरह के हवाले से वे कहते हैं कि --
अपनी दिनचर्या में /हम हजार बार पस्त होते है /फिलहाल यह फैसला ले रहे है मन ही मन  या फिर अँधियाराके माध्यम से  कहते है कि  ---हम डरे हुए है दरअसल /अपनी बनाई चीज के मौजूद न होने पर /
अँधियारा इसलिए हुआ है भयानक आज /
क्योंकि हमने कल तक इसे /इतना अलग करके नहीं देखा रोशनी से ।
घर परिवार और रिश्ते नातों के प्रति उनकी गहरी आस्था है और भाव प्रवणता व उत्कट उत्तर दायित्व बोध भी ---माँ की ढोलक, माँ प्रवास पर है, मोहल्ले के लड़के और प्रिय कवि का जाना इस बात के स्पष्ट द्योतक है ।
इस प्रकार ब्रज जी की सभी कविताएँ धीरे से अपनी बात कहने में सफल होती है ।
सारांश रूप यह कहा जा सकता है कि ब्रज जी की सभी कविताएँ सूक्ष्म संवेदनाओं की कविताएँ है और गहन मन की वीणा के अदृश्य तारों को झंकृत करने के साथ ही अद्भुत बिम्बों और विषय वस्तु के लिए सदैव स्मरणीय है ।

========================================
विनीता वाजपई
गुमी हुई चीजों को ढूंढता , घर के अंदर धर की खोज करता संवेदनशील कवि ऐसे दिन का इंतजार में है ये इन्तजार एक विस्तृत फलक पर है , ये इंतजार एक ईमानदार , संवेदनशील व्यक्ति का इंतजार है जिसमें शमिल है मानवता की स्थापना
हमेशा की तरह ब्रज जी की कविताएँ धीमी चलती हैं , हल्के से पर बेहद मजबूत बात कहती हैं , कवि सृजन की इस प्रकिया में शरीक होता है कविता के अंदर , यही इनकी सबसे अच्छी बात है
रस भरी कविता वर्तमान का दस्तावेज़ है जो सच को अस्वीकार कर कविता को दरबार में लाना चाहते हैं ,
कविता के मन की बात खूब तंज है व्यवस्था पर ,
भिखारी कविता बेचैन करती है
सिक्कों में जैसे गिनते हैं दुःख और
ये कि करोङों में हैं इन्हें इस हालात में पहुचाँने वाले , पूंजीवादी व्यवस्था पर तंज है
जीवन रचा नहीं आज के युग की सच्चाई को बयाँ करती है जहाँ आपाधापी में मनुष्य जीवन को महसूस ही नहीं कर पाता ,श्रमिक के लिए कविता बढ़िया शिल्प गढ़ती है जो सृजन की सच्चाई को उजागर करती है , आई है कविता एक खूब प्रतीक है , अब जब कविता रहेगी तो जीवन सुरक्षित रहेगा ,
यह सोचना ठीक नहीं पहले पढ़ी हुई लगती है , बहुत प्रभावित करती है हौसला देती है
हमारा मुस्कराना कई बार औरों  के बुरे इरादों को कुचलने के काम आता है  , प्रेरक लगती है समय के बहाव का जोरदार जवाब है ये कविता ,
खबरों का अर्ध्य एक भावुक कविता है जो हम सब की आवाज है ,सन्नाटा और बुरी खबर खूब बुनी हुई लगती हैं , बिम्ब भी खूब गढ़ा गया है

==============================================
सुमन सिंह
ब्रज जी अपनी पहली कविता की शुरूआत अपने मन में पड़ी मॉं की छाप से करते हैं और उनकी ढोलक की थाप के स्वर को कविता की फ़िज़ा में बिखेर देते है जिसकी लहरियाँ देर तक मन में समायी रहती हैं।ब्रज जी की कवितायें बहुत आसान तरीके से गहरी बात करती हैं ,एक विषय में चलते हुए कई बार उसकी परिधि में कई और विषय भी आ जाते हैं जैसे "मेरी दिनचर्या में", बच्चों की दुनियाँ"।  उनकी कवितायें नॉस्टेल्जिया में भी ले जाती हैं।  अपने मन की बातों कोये अत्यन्त प्रसिद्ध कवि श्र नरेश मेहता जी की कविता है। भी वे बहुत अनूठे ढंग से कहते हैं और जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छूते हैं।
ब्ज जी की कविताओं में कलाबाजी नहीं है बल्कि बहुत भोली और सच्ची कवितायें हैं जो उनकी अलग पहचान बनाती हैं। ब्रज जी को इस संकलन के लिये बहुत बधाई💐                      

==============================================
दिनेश मिश्रा
ब्रज भाई की कवितायेँ मुझे ब्रज की तरह ही अपनेपन और संवेदना से भरपूर लगीं, जिन्हें पढ़ने और उनपर लिखने के लिए एक भावुक हृदय की अनिवार्यता है, माँ की ढोलक से लगाकर भुजरिया तक पढ़ना दरअसल उन सारे परिवेश को जीना है, जो हम सबके आसपास है, पर वक़्त रहते हम उसकी महत्ता नहीं समझ पाते, और बाद में वे कविता की शक़्ल में टीस बनकर उभरती हैं। वे हमारे अंदर का ही एक अहम हिस्सा हैं, पर पर जिन्हें अपनी अहमियत दर्ज़ कराने के लिए इंतज़ार करना होता है, एक ऐसे दिन का इंतज़ार जब बहुत कुछ बाहर आ जाता है, और बहुत कुछ अभी भी इंतज़ार में है, बाहर आने के लिए बेताब है, पर जब अनुकूल समय होगा तब। कवितायेँ अच्छी लगीं, पर अलग अलग विषयों की कवितायेँ एक ही संकलन में होना थोड़ा सा खलता है। ब्रज जी को बधाइयां और समूह में प्रस्तुति के लिए भी आभार।
चीज़ों को देखकर एक कवि के मन में क्या क्या सुलगता है, उसे ज़ाहिर करने की कामयाब कोशिश है ये कवितायेँ। क्योंकि एक सामान्य व्यक्ति के मनोमस्तिष्क से अलहदा होती है एक कवि की सोच। कई कविताएं अच्छी लगीं। और दिन भर का इंतज़ार मैंने एक बार फिर किया, ऐसे दिन का इंतज़ार पर लिखने के लिए। मधु जी ने मुझसे कुछ पूछा था, मेरे ख्याल से हमारे रिश्तों को और घर पर केंद्रित कवितायें एक अलग पार्ट के रूप में इसी संकलन में एक साथ हो सकती थीं, और शेष कविताएं जो ताल्लुक़ तो हमारे घर रिश्ते से ही हैं, पर एक व्यापक नज़रिया देती है को अलग से दिया जा सकता था।
गालियां सन्नाटा खेत मशीन प्रिय कवि का जाना और कभी यूँ ही ऐसी ही कवितायेँ हैं।
कुल मिलाकर ब्रज की सोच ने एक परचम लेकर हमे झिंझोड़ा है, जो अच्छा लगा। ब्रज जी मुबारक हो इन कविताओं को परोसने से हमे बहुत कुछ सीखने मिला।
===============================================
डाॅ .अलका प्रकाश 
ऐसे दिन का इंतजार*       कवि की आशावादी दृष्टि की अभिव्यक्ति है।दरअसल कविता का संप्रेषण अन्य विधाओं जैसा तात्कालिक नहीं होता ।इसके अंदर अर्थ की अनेक परते लिपटी रहती हैं ।कविता एक बड़ा अनुशासन है।वर्तमान परिदृश्य मे लोग सब कुछ इंस्टेंट चाह रहे हैं । यह हड़बड़ी सही नही है।     सत्ता के विरोध मे कही गयी हर अभिव्यक्ति वामपंथी होती है।वामपंथी की परिभाषा ही वह नही है,जो आज समझी जा रही है *मुझे चिंता है*कविता इसी प्रतिपक्ष की करुण पुकार है।जिसे मैं भवभूति के कविता पोस्टर से भी जोड़ना चाहूँगी, जिसे साकीबा मे लगाया गया था।                 *मुझे चिंता है कहीं वह/ऐसी लड़ाई न लड़ बैठे /कि वह खुद को समझे विजेता/जिसमें मैं मुकाबिल ही नहीं रहा उसके*यह पंक्ति पढ़ने के बाद मेरी हालत उस व्यक्ति की तरह हो गयी है जो खुशी के आवेग से कभी-कभी बेवकूफ की तरह मुस्कुराने लगता है।अप्रतिम😇👍     *एंबुलेंस*कविता मरने वाले के लिए जिंदगी की दुआ के समान है।वह रसायन जिसके मिलने पर पदार्थ दवा बन जाता है,प्रेम ही है शायद!            *यह सोचना ठीक नहीं*कविता मे कवि का जीवन दर्शन छुपा हुआ है।यह कविता कर्म करते रहने की प्रेरणा देती है। *खेत*कविता वर्तमान समय का कड़वा सच है।सारे रिश्ते अर्थ केंद्रित हो कर रहे गये हैं ।बुद्धि खूब होने पर भी स्त्री सदैव प्रेम के कारण ही छली जाती है।उसका इस्तेमाल होता है।क्योंकि वह जिससे प्रेम करती है,उसका विरोध नहीं कर पाती और यदि विरोध करती है तो मेरे लिहाज से वह प्रेम ही नहीं है।स्त्री की पराधीनता का मूल कारण उसका कोमल मन और प्रेम है जिस पर आज  समाज की नज़र लग गयी है।स्त्री मजबूत तो हो जायेगी पर टूट कर शिद्दत से अब ऐसा  प्रेम नहीं कर पायेगी कि बिखर जाय,क्या यह प्रगति है ?इस मुद्दे पर विमर्श की जरूरत बनी हुयी है। आभार ब्रज जी इन सशक्त कविताओं के हेतु ।इतनी बड़ी रेंज की कविताएँ इस पटल पर कम पढ़ने को मिलती हैं ।  
===========================================================                                 
आरती तिवारी
ऐसे दिन का इंतेज़ार
संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है ब्रज जी का कवि अपने परिवेश समाज और संस्कृति से ही नहीं अपनी पक्षधरता से भी बावस्ता है देश के जाने माने आलोचक कवि अशोक बाजपेयी कहते हैं कि कविता का लोकतंत्र कवि के मन का लोकतंत्र होता है,.ब्रज जी के मन का लोकतंत्र भी व्यापक है,जिसमें असहाय समुदाय के लिए करुणा उपजती है,.
हज़ारों मन्दिर हैं
तो लाखों हैं भिखारी
और करोड़ों हैं इन्हें इस हालत में
पहुँचाने वाले लोग
तो दबंग,भृष्टाचारियों के ख़िलाफ़ आक्रोश भी है..
लाखों हज़ारों में से तुम्ही चुने गए
ब्लास्ट बना शिकारी भेड़िया तुम्हारे लिए
जिसकी भूख पैदा की है कुछ सिरफिरों ने
छोड़ा ही नहीं उसने तुम्हे थोड़ा भी
धरती पर
उनकी कविताओं में प्रेम भी लरजता है,.कुछ पाने और खोने की चाह से इतर,.बस अपने में गुम प्रेम..
दीवार पर केलेंडर बीसियों बार बदला
पर स्मृति में
तुम्हारे चले आने का अंदाज नहीं बदला
उनकी कविताओं में सघन भावबोध है,प्रवंचना है,चिंताएँ हैं,समाधान भी हैं। विस्मृत होती जा रही संस्कृति से नई पीढ़ी को मिलवाने का आग्रह है,..
मैं लौटता हूँ बरसों पीछे तक
जहाँ गाँव में तिरोहित होती
ये नन्हें पौधों की टोकनियाँ हैं
जहाँ दादा दादी हैं और मज़दूरनुमा लोग हैं
जो कबके पहुँच चुके सितारों के पास भुजरियाँ के लिए लिखी ये कविता मन भिगो देती है।
इसी संग्रह में माँ की ढोलक द्रवित कर देती है।
कवितायेँ जो कह रही हैं उससे अधिक अनकहा है.जो बहुत कुछ कह रहा है,..
मुझे चिन्ता है कहीं वह
ऐसी लड़ाई न लड़ बैठे
कि वह खुद ही समझे विजेता
जिसमें मैं मुक़ाबिल ही नहीं रहा उसके..
ये वे कवितायेँ हैं जो बरसों राख में दबी चिंगारी सी सुलगती रहीं,.अपने आसपास के माहौल,.शहर,नदी,मैदान,घर हर शै में समाई रहीं और एक दिन एक किताब की शक़्ल में तब्दील हो गईं।
ब्रज जी की कवितायेँ बंधेज की चुनरी की वो छटा है जिसमें सारे रंग समाहित हैं।
इन छोटी छोटी कविताओं में बडे बडे सारगर्भित तथ्य हैं,.कम शब्दों में अधिक कह देने का हुनर है और बौद्धिक अतिरेक से परहेज है। ये कवितायेँ हर वर्ग के पाठक के लिए सहज ग्राह्य है,.इनके आनन्द में सहज ही डूबा जा सकता है,.ये इन कविताओं का वैशिष्ट्य है।
हाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी,.ब्रज जी की कुछ लम्बी कवितायेँ भी इस संग्रह में होनी चाहिए थी,.किन्तु अभी तो उनके और संग्रह आने शेष हैं,.हमारी प्रतीक्षा अवश्य पूरी होगी।
मुख्य पृष्ठ आकर्षक है,.जो संग्रह को पढ़ने की चुनौती सी देता है,.इसे पलटा कर यूँ ही नहीं छोड़ा जा सकता।
बोधि प्रकाशन से पुस्तक आना स्वयं में संग्रह की एक उपलब्धि है।
ऐसे दिन का इंतज़ार के लिए ब्रज जी को हार्दिक शुभकामनायें🌹🌹🌹🌹🍀🍀🍀🍀

=============================================
दुष्यंत तिवारी
नमस्कार शिक्षक दिवस पर जन्मे विदिशा के संवेदनशील और समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर ब्रज सर का बतौर वरिष्ठ कवि मुझे सानिध्य प्राप्त है।
मैंने बृज सर की काफी कविताऐं सुनीं हैं। उनके संग्रह तमाम गुमी हुई चीजें घर के भीतर घर और यह नवीनतम संग्रह ऐसे दिन का इंतजार मेरे संग्रह में सुशोभित हैं।
नवीनतम संग्रह में 73 खूबसूरत छोटी-छोटी कविताएं हैं जिनमें जीवन के हर पहलू को  हर बिम्ब को अपनी खोजी दृष्टि से देखा है और विश्लेषण किया है।
मां की ढोलक को बहुत बार सुना है इसमें सर ने मां के बारे में डूबकर लिखा है पर जितना लिखा है उससे कहीं बहुत बढ़कर हैं दादी जी सवाल सच का संदेश है धरती के बाहर कोई मुल्क नहीं कोई धर्म नहीं जीवन से बाहर और मानवता से बढ़कर कोई विचार नहीं बहुत अच्छा संदेश है पर इस सत्य को मानवता स्वीकार क्यों नहीं करती है चींटी की जीवन शैली हमारे लिए कितनी शिक्षाप्रद है यह तो इस कविता को पढ़कर ही समझा जा सकता है जन्मदिन कविता में जन्मदिन के अंतिम प्रहर में उपजती हताशा को दर्शाता है की वर्षगांठ में आखिर क्या है खास? उसका आत्म कथन आज के कारपोरेट मल्टीनेशनल एन आर आई व्यवस्था की व्यथा को चित्रित करता है एंबुलेंस कविता में जीवन मृत्यु के संघर्ष में जीवन के आशा घोष को स्थापित करने का प्रयास किया गया है। बच्चों की दुनिया कविता कहीं-कहीं श्री राजेश जोशी की कविता के समानांतर चलती दिखाई देती है, गरीब बच्चों को स्वावलंबन की ओर प्रेरित करती है ।तुम्हारे बारे में कवि अपने अपनी पत्नी के प्रति आभार और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं जो कि कवि की सकारात्मक सोच को दिखलाता है। वृद्ध आश्रम कविता बहुत ही मार्मिक कविता है विदिशा स्थित वृद्ध आश्रम में जन्मतीं सैकड़ों कविताओं में से एक है। एक मनोकामना नदियों से कुछ ना कहो पता नहीं बरसात की प्रतीक्षा में और केदारनाथ त्रासदी पांच कविताएं यह सभी कविताएं केदारनाथ त्रासदी से उपजी पीड़ा के बाद की है जिनमें कवि ने प्रकृति से ईश्वर से मानव की ओर से शिकायत की है अरदास की है। किन्नर भिखारी श्रमिक खबरों का अर्ध्य  सामाजिक व्यवस्थाओं का  मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती कविता है सन्नाटा अच्छी खबर मरणोपरांत जीवन भी अच्छा प्रभाव छोड़ती है । ऐसे दिन का इंतजार कुल मिलाकर छोटी छोटी कविताओं का अनूठा संग्रह है जिसका लेखक यदि कोई विदेशी होता तो संग्रह पता नहीं कितनी ऊंचाई छूता। बृज सर को बधाई संचालक आदरणीय मधु जी और अय्यूब जी को भी बधाई सादर आपका दुष्यंत तिवारी विदिशा से नहीं मुंबई से भी नहीं अब दिल्ली से।💐💐💐                      

=============================================
सुरेन्द्र सिंह कुशवाह
 ब्रज जी निपट कविताई तक ही सीमित नहीं रहे हैं वे अपने साथी कवियों के जीवन से कितने बा वस्ता हैं संग्रह की कविता"प्रिय कवि का जाना "(सन्दर्भ:नरेंद्र जैन) इसे बड़ी खूबसूरती से रेखांकित करती है।
पंक्तियों पर ध्यान दें...
"किताबों का दीवाना जब सुनाता
कवि मित्रों के प्रसंग तो भरा होता, ताज्जुब से
आलोचक से कहता कि
कविता ही है आलोचना भी"
बहुत कुछ ना कहते हुए यही कहूँगा कि आप एक कवि की ऐसी संतान हैं
जो परंपरा और आधुनिकता का बेजोड़ नमूना ही नहीं कवि-साहित्यकार-साहित्य प्रेमियों के बीच सेतु का काम भी करते हैं।
अधिक महिमा मंडन ना करते हुए...
"ऐसे दिन का इंतज़ार"के लिए अनंत शुभकामनायें दे रहा हूँ।
अगले संकलन का बेताबी से इंतज़ार रहेगा..
आपका शुभेच्छु

===========================================
 मञ्जूषा मन 
"ऐसे दिन का इंतज़ार" हम सभी को जीवन भर किसी एक दिन का इंतज़ार होता ही है। सब के लिए अलग अलग हो सकता है वह दिन, पर एक सपनों का दिन हम सभी को चाहिए, हम सभी को होता है इंतज़ार ऐसे दिन का जो हमारी मर्जी का हो, जिसमें घटे वह सब जो हमारा चाहा हुआ हो।
"ऐसे दिन का इंतज़ार" ब्रज श्रीवास्तव जी का काव्य संग्रह पढ़ा। पढ़ने की लालसा इतनी तीव्र थी कि एक ही रात में सारी कविताएँ पढ़ लीं, फिर दुबारा भी पढ़ीं। कविताएं बहुत ही सरल भाषा में कहीं गईं हैं, जो सीधे में को छू लेतीं हैं। ब्रज के विषय चुनाव की बात करें तो बड़े सहज विषय चुने हैं कविताओं के लिए, या यूँ कहें कि ब्रज जी ने विषय नहीं चुने विषय ने ब्रज जी को चुना, विषय ने ब्रज जी से कहा मुझे लिखो, हृदय ने कविता बुनी तब कविता लिखी गई। हर कविता आम जीवन की कविता है।
हट जा नाउम्मीदी रास्ते से हट जा,
मौत को मार डालने के लिये
घायल हुई जिंदगी जा रही है...
एक जरूरी
बहुत ज़रुरी आशाघोष करती हुई
एम्बुलेंस जा रही है।
कितनी सकारात्मक ऊर्जा देती है ये कविता... एम्बुलेंस के विषय में किसने ऐसा सोचा होगा। सच में कमाल की सोच है सायरन बजाती एम्बुलेंस... यही भाव जागती है कि एक जिंदगी बचाई जायेगी। एक छोटी सी कविता पर बहुत कुछ कह दिया ब्रज जी ने।
मैरिज गार्डन में चौकीदार बन जाओ
रोजाना मस्त खाना भी खाओ
वेटर बन जाओ
बारात में गमले वाले बनने में भी
खूब फायदा है....
अब भी हो रहा है ये
बच्चों की दुनिया में।
गहन भाव लिए कविता है इस कविता में गरीबी, बाल मजदूरी, बच्चों की सोच समझ की कविता है। यह कविता ब्रज जी की बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ को इंगित करती है।
बार बार बस
तुम्हारे बारे में ही सोचने की
होती रही इच्छा
लिखने की
तुम्हारे बारे में
उम्र के खास मोड़ की मानिंद आईं तुम
तुमने सजाया
मेरे सपनों के घर का सामान...
उक्त कविता में प्रेम की अवस्था का कितना प्यारा वर्णन है। ब्रज जी ने इस संग्रह में कई प्रेम कवितायेँ लिखी हैं। इन सभी प्रेम कविताओं में ख़ालिस प्रेम है। प्रेम में पगीं है ये कवितायेँ, कोमलता से पैरों गईं हैं।
ब्रज जी की किस किस कविता का उल्लेख किया जाये बड़ी दुविधा हो रही है। सभी कविताएं उछल उछल कर कह रहीं हैं मुझे लिखो मुझे लिखो। जीवन के सभी भावों पर ब्रज जी ने कविताएं लिखीं हैं। "उसका आत्मकथन" "है किसकी वजह से" "वृद्धाश्रम" "मुझे चिंता है" "किन्नर" "ऐसे दिन का इंतज़ार" अनेकों कविताएं हैं जो पढ़ने के बाद याद रह जातीं है।
ब्रज श्रीवास्तव जी को उनके उज्ज्वल साहित्यक भविष्य के लिए बहुत बहुत शुभकामनायें।

========================================
भावना सिन्हा    
 " ऐसे दिन के इंतजार में ", 73 कविताएँ  है । इन कविताओं की खासियत है कि आम जन की बात करती है  समय की नब्ज़ पकड़कर चलती है। ये कविताएँ   सकारात्मक सोच का परिचायक  है।
एक कविता जो मुझे बेहद पसंद है---
मैरिज गार्डन में चौकीदार बन जाओ
रोजाना मस्त खाना भी खाओ
वेटर बन जाओ
बारात में गमले वाले बनने में भी
खूब फायदा है 
खूबसूरत संदेश देती कितनी सच्ची पंक्तियाँ  हैं ये । 
गहन भाव लिए  संवेदनाओं से भरपूर  ऐसी 73  अलग अलग कविताएँ  जिंदगी की कविताएँ हैं  जिसे पढ़कर पाठक समृद्ध होता है
इस संग्रह के लिए  आदरणीय ब्रज श्रीवास्तव जी को  अनेकानेक बधाईयाँ  एवं  उनके उज्ज्वल साहित्यक भविष्य के लिए  शुभकामनायें।

===============================================                    
ब्रजेश कानूनगो
ब्रज श्रीवास्तव संवेदनाओं के कवि हैं। लेकिन केवल इतना ही नहीं कि उनकी प्रतिबद्धताएं कविता में दृष्टव्य नहीं हैं। जब उन्होंने चाहा ये तेवर बहुत ख़ूबसूरती से निकलकर आते हैं। 
छोटी छोटी घटनाएँ और अपने आसपास का दृश्य हमारी अनुभूतियों के सहज स्रोत होते हैं।ब्रज जी की कविताओं में भी आमतौर पर विषय यहीं से निकलकर आते हैं।
पाठशाला और टाइमलाइन जैसे समूहों में दिए गए विषयों पर कविता पढ़ते हुए उनकी रचना प्रक्रिया से दो चार होते रहें हैं और यह इस बात की पुष्टि करता है कि वे विषय पर अपनी शैली और अपनी भाषा में कविता लिखने में समर्थ कवि हैं और उनका लंबा अनुभव कविता के कथ्य को डील करने में दिखाई देता है।
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं को अभी सरसरी तौर से देख पाया हूँ। तथापि उनकी कविताओं पर पूर्व में कहे कथनों से इन्हें बल ही मिलता है।
पीडीएफ में कविताओं पर आज की परिस्थिति में ध्यान ठीक से केंद्रित नहीं कर पाया लेकिन इससे उबरते ही,कविताओं और संग्रह संदर्भ सहित विस्तृत टिप्पणी देने की पूरी कोशिश करूंगा।आज इतना ही।
बहुत बधाई और शुभकामनाएं। 

================================================    
मणि मोहन मेहता
सबसे पहले तो ब्रज भाई को इस संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनाएं । एक रचनाकार के रूप में उन्हें मैं लगभग पिछले दो दशक से जानता हूँ । एक अजब संयोग भी हम लोगों के साथ जुड़ा हुआ है ...हम दोनों के तीनों संग्रह एक साथ ही आते रहे , पहला 2003 में , दूसरा 2013 में और यह अंतिम संग्रह 2016 में । संयोग यह भी कि ब्रज भाई और मेरा पहला और तीसरा संग्रह भी एक ही प्रकाशन से आये 
अब कुछ कविता के सम्बन्ध में ..
ब्रज भाई की कविताएं उनके स्वाभाव के ही रूपान्तरण की कविताएं है । सरल , सहज और पारदर्शी इतनी कि उनके आर- पार  भी देखा जा सकता है । बहुत कम समकालीन कवियों के पास इतनी आडम्बरहीन भाषा देखने को मिलती है जो ब्रज जी के पास है।
कविता लिखते हुए वे एक ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं जो पूरी तरह छल छ्द्म से दूर होती है । उनकी भाषा में कई बार एक स्वाभाविक ठंडापन भी होता है जो पाठक को सुकून के साथ अपना पाठ सम्प्रेषित कर देता है । अपनी कविता के कथ्य को लेकर भी मैंने महसूस किया है कि वे इस मामले में बहुत दुःसाहसी हैं । जिन विषयों को ज्यादातर रचनाकार बहुत गैरजरूरी समझ कर नकार देते हैं वे उन विषयों पर कविता लिखकर अक्सर चौंका देते हैं । इस संग्रह में भी ऐसी अनेक कविताएं हैं । 
 उनकी कविताएं मूलतः हमारी सम्वेदना को झंकृत करती हैं । शायद इन कविताओं का उत्स हृदय के किसी भीतरी कोने से शुरू होता है और फिर ज़ेहन की तरफ यह यात्रा चलती है । 
 विचार उनकी कविता में अंडरटोन में रहता है । इसलिए इन कविताओं को थोड़ा ठहरकर भी पढ़ना होता है। पहले पाठ के बाद जब किसी कविता को दुबारा पढ़ो तो समझ आता है कि " अच्छा यह बात है '...और भी कई मित्रों ने यहां लिखा है कि वे साधारण चीजों के असाधारण कवि हैं ...दूसरे शब्दों में कहूँ तो God of small things 😊...उनका स्पर्श पाकर साधारण भी असाधारण हो उठता है ।
पुनः बधाई और शुभकामनाएं ।

=============================================
  माया मृग 
ब्रज जी की इन कविताओं से गुजरना अपनी निराशाओं की परिधि लांघकर एक बेहतर कल की उम्मीद में प्रवेश करने जैसा है। इंतज़ार हम सबको है लेकिन बहुत अकेले में ब्रज जी एक सामूहिक इंतज़ार के लिए हिम्मत जगाते हैं। ये इंतज़ार तटस्थ रहकर हाथ पर हाथ धरे व्यक्ति का इंतज़ार में होना नही है, ये एक सक्रिय कवि का सामूहिक चेतना को संजोकर उम्मीद और रास्ते खोजने का उपक्रम है। ब्रज जी अपने समकालीनों में ये लौ जलाते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है, अब भी कुछ बेहतर होना संभव है। पहली अच्छी खबर तो ये कि बुरी खबर अब भी दरवाज़ा नहीं लाँघ पाई है। यह उस कवी कथन से अलग बात है जिसमे हमें बताया गया कि जो खुश है वो इसमिये खुश हो सकता है क्योंकि बुरी खबर उस तक नहीं पहुंची है। ब्रज जी का कवि 
जानता है कि खबर बहुत बुरी है मगर एक उम्मीद उसमे बाकि है कि भीतर की शक्ति ने इस खबर को दरवाज़े के भीतर नहीं आने दिया है। बाहर बहुत कुछ बुरा है, भीतर अब भी बहुत कुछ अच्छा होने का इंतज़ार।               
================================================
संजीव जैन
ब्रज भाई की कवितायें पढना एक चुनौतीपूर्ण कर्म है। जिसके पास कु छ ज्यादा बुद्धि हो, जैसे मेरे पास "कवि ने लिखा - तुम्हारे पास खूब बुद्धि थी, जिसको खपाया गया" हो गुलामी में.....उसे एक सहज भाव से लिखी गयी कवितायें पढना एक चुनौती भरा काम ही होता है।
बहुत विरोधाभासी प्रतीत है यह पंक्ति कि पहले तो कवि लिखता है कि "जिसको खपाया गया लगभग कहीं भी नहीं." अगली ही पंक्ति में लिखता है कि "हाँ गुलामी में बस" यह पंक्ति मुझे बहुत अपील करतघ है। हालांकि यह स्त्री के संबंध में है कविता में, पर यह मैं अपने वर्ग पर भी लागू करता हूँ। 
क्या वाकई हमने अपनी खूब बुद्धि गुलामी में खपा रखी है.......? दर असल कविता प्रश्न खडा नहीं कर.रही है, वह एक स्टेटमेंट है .....पर मैं इसे एक प्रश्न की तरह देखता हूँ अपने लिये.   . ....!!!
अनजाने ही एक बडा सच लिखा गया कवि के द्वारा.......स्त्रियों की खूब बुद्धि को तो गुलाम बनाया गया है.....ताकत को चौके चूल्हे तक सीमित किया गया है.......पर हम तमाम बुद्धिजीवी कहे जाने वालों ने अपनी "खूब.वुद्धि" को स्वयं ही गुलामी में खपा दिया।
हम आज अपनी बुद्धि को पूरी तरह से गुलामी को बनाये रखने के लिये लगाये हैं। कितने लोग हैं जो अपनी.बुद्धी को मुक्ति के लिये नियोजित करते हैं....?                        
ब्रज भाई की कवितायें बौद्धिक.समीक्षा की अपेक्षा नहीं रखतीं। वे एक सहज पाठक.रसास्वादन की दृष्टि और अनूभूति की अपेक्षा से.पढी.जानी.चाहिये..।

================================================= 
संतोष तिवारी 
ब्रज जी की कविताएं आसान शब्दों में आसान तरीके से सीधे मर्म पर निशाना लेती हैं और फिर अचूक अपने निशाने पर लगती भी हैं। उनकी कविताओं में शब्दों की फिजूलखर्ची नहीं दिखती।  भावनाओ को उभारने के लिए वे इसअपव्यव से बचते हैं । आपकी कविताओं को पढ़ने के लिए आपको कविताओं का रसिक होना ज़रूरी नहीं कविताओं का मर्मज्ञ होना आवश्यक नहीं। आपके सीने में अगर दिल नाम की चीज़ धड़कती है तो ब्रज जी की कवितायेँ आपके सबसे करीब होंगी। 
ब्रज जी को संग्रह हेतु शुभकामनायें।

=============================================
अरुणेश शुक्ल
 ब्रज भाई एक आशावादी कवी हैं।कविताओं का सौंदर्य सरलता का है ।बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहना।बात महत्वपूर्ण है शिल्प नहीं।और यही उनका शिल्प है।वो छोटी छोटी बातों चीज़ों को रचना का विषय बनाते हैं।वो चीज़ें जो रचना व जीवन दोनों के लिए जरुरी हैं।स्मृतियाँ उनकी शक्ति हैं तो सूक्ष्म पर्याबेक्षण क्षमता उनकी खासियत।सामाजिक आधार लिए हुए ये रचनाएं हमे जीवन व संबंधों की तरफ लौटने को विवश करती हैं।प्रेम की यानि संबंधों जीवन आदि के प्रति एक अंतर्धारा कविताओं में विद्यमान है जो इस हिंसक समय में हिंसा का प्रतिपक्ष रचते हुए प्रेम की प्रतिष्ठा करती हैं।एक संवेदनशील कवी की यही पक्षधरता हमे आश्वस्त करती है कि अभी भी उम्मीद बाकी है।सुन्दर को रचने उसे समझने व उसकी प्रतिष्ठा का उनका सफल प्रयास उन्हें विशिस्ट बनाता।साधारण चीज़ों का यह असाधारण कवि हिंदी की उपलब्धि है।उन्हें बधाई और शुभकामना  

=====================================================                       
 अपर्णा अनेकवर॒णा
वैसे तो इस प्रश्न का सही उत्तर ब्रज जी ही दे पाएंगे पर मेरी समझ कहती है कि कविता की लंबाई से कथ्य का संबंध कवि के संतोष जनक प्रेक्षण से ही होना चाहिए। 
अनावश्यक विस्तार क्यों भला। एक पंक्ति में बात कही जा सकती है तो वो भी काव्य है। वैसे भी सब कुछ कह देने से भला है संकेतों में कहना। 
उदाहरण के लिए आज की समर्थ कवि पारुल पुखराज का काव्य संग्रह जहाँ होना लिखा है तुम्हारा जिसकी लगभग हर कविता लंबी तो नहीं कही जा सकती। और वो हर बार अपनी बात उसी योग्यता से कविता के रूप में कह जाती हैं।
ब्रज जी की कविताओं में भी वही बात दिखती है। ये artlessness भी कमाल तरीके से प्रभावित करती है। 

===================================================
कनक ठाकुर
मैंने बचपन से सुना है बृज चाचा जी के बारे में..पर यह संग्रह ..  ऐसे दिन का इंतजार पढ़ उन्हें एक अलग ही रूप में जाना है जो बहुत ही कोमल हृदय रखते हैं..उनकी छवि में और इजाफा करती उनकी रचनाओं ने मेरे हृदय में और आदर बढ़ाया है ।
कुछ बहुत ही बेहतरीन रचनाएं जैसे:- दौड़  इस चींटी की तरह ने जहाँ मुझे आत्मप्रेरित किया वहि.. बम ब्लास्ट  एबुलेंस ने एक भावनात्मक परिदृश्य प्रस्तुत किया।
पौधे का आत्मकथन तथा श्रमिक के लिए ने एक अलग ही दुनिया खोली.. मैं ज्यादा तो नहीं जानती हूँ इस विषय में आप सबकी तरह..पर संग्रह बहुत ही बेहतरीन है..🙏🏻😊😊💐💐 
बहुत-बहुत शुभकामनाएं.. और भी पढ़ने के इंतजार में💁🏻

================================================= 
राखी तिवारी 
ऐसे दिन का इंतज़ार,
हर कवि के साथ पाठकों को भी होता है।
ब्रज जी को बहुत- बहुत बधाई।
सारी की सारी कविता ऐँ एक से बढ़कर एक है.....................
पहली कविता-(मां की ढोलक)
"दर असल तब लोग लय मे जीते थे।
(सवाल सच का है)
"सच यह हुआ कि
एक झूठ को पेश किया जा रहा है
सच के अदांज मे,
(इस चींटी की तरह)
कवि ने मन मे ऊपजी निराशा को दूर भागा चींटी द्बारा सकारात्मक तका संदेश दिया है।
 (दौड़)कविता मे समय को केंद्रबिन्दु मानकर सरल भाव मे वर्तमान परिवेश की झांकी प्रस्तुत की गई हैं।
(वह प्रंसग)कवि(जन्म दिन)सरल शब्दों मेअपने अस्तित्व का आकंलन करती कविता।
(उसका आत्मकथन)
कवि ने अमीर व्यक्ति को कितना असहाय बताया है।
मार्मिक रचना......
(बच्चों की दुनिया मे)
एक गरीब बच्चा कया-कया सोचता है, बच्चे के मन को पढा़कर समझा है कवि ने........
(टोपी)हमारी जरूरत है,पहचान नही,
अच्छा व्यक्ति त्व ही सब कुछ है,
पहनावा तो मात्र दिखावा है।
( वृद्धावस्था पर रचित कविता वृद्बाश्रम नैतिक मूल्यों के हा्स पर है) 
(बरसात की प्रतीक्षा मे)-भावनाओं ने भीगा दिया।
अदभुत प्राकृतिक छटा.....
(समाज मे किन्नरो के दशा का मार्मिक चित्रण-कौन  कहता है कि किन्नर अलग होते है)
(अंतिम यात्रा )-तादाद जरूरी नहीं है,
जरूरी है -मन का जुड़ाव।
( केदारनाथ त्रासदी) की पांचों कविताऐं-प्रकृतिक विनाश को इंगित करती हुई सशक्त रचना।
(प्रिय कवि का जा ना)-शहर को कितना अखरता है।
अन्तिम कविता-(भुजरियाँ)क्षैत्रीय त्यौहार की आभा के साथ सुन्दर सावन का चित्रण-जहाँ दादी घर मे शुभकामनाऐं बोती थी.......
अन्त मे,
एक बार फिर..........
ऐसे अच्छे दिन के इंतज़ार मे।

========================================================
अनिता मण्डा  
विसंगतियों को दूर करने की शुभेच्छा: 'ऐसे दिन का इंतज़ार'
ऐसे दिन का इंतज़ार- जैसा का कि नाम से ही ध्वनित हो रहा है कि यह एक ऐसे समय की प्रतीक्षा है या शुभेच्छा है जब मानव समाज में कुछ बेहतरीन घटित हो। धर्म-जाति के विवादों से परे मानवता का विकास हो और नई पीढ़ी इन विवादों से अभिशिप्त न हो। 
बोधि प्रकाशन से संकलित ब्रज श्रीवास्तव के इस कविता-संग्रह में  मध्यम आकार की 73 कविताएँ हैं। इनमें फैलाव की जरूरत भी नहीं, संक्षेप में कहने में समर्थ हैं। कविताओं के विषय वर्तमान जीवन के आस-पास घटित घटनाओं और परिवेश की विसंगतियों से आये हैं।इन कविताओं की भाषा प्रांजल तथा संवेदना गहन है। कविताओं का अन्तर्गठन अच्छा है, प्रतीकों में दुर्बोधता नहीं है। अत्यधिक बिम्बों के माध्यम से कोरा बौद्धिक आत्मालाप न होकर सहजता, सहृदयता, सरलता है।
मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है और कवि संवेदना के स्तर पर अन्य लोगों से कुछ ज्यादा ही अनुभव करता है इसलिए समाज में कुछ भी घटित हो रहा है उसे गहराई से देखता समझता है। टूटते मूल्यों, सूखते रिश्तों के सोते कवि मन को आहत करने को काफी हैं। इन परिस्थितियों से उपजे अवसाद से पार पाने के लिए अच्छे की कामना करता है। सकारात्मक को बढ़ावा देता है। यह एक शुरुआत ही सही पर कुछ तो हो रहा है इस क्षेत्र में।
ब्रज श्रीवास्तव अपनी रचना प्रक्रिया पर कहते हैं - " कविता.. कविता मेरे लिए क्या नहीं है, मन की बात कहने का ज़रिया है, एक उपाय है तनाव को शिफ्ट करने का। सुंदरता को महसूस करने के लिए एक सूत्र है, कुदरत के कामों पर खुद को ही चकित कराने की वजह है, संवेग को तरीके से धारण करने का साधन है,अपने मानसिक अनुकूलन के लिए जरूरी है मेरी कविता। दरअसल तो वह मुझसे झिलमिल तारे की तरह जुड़ी है लगने में कभी बिलकुल सगी, कभी निस्पृह। कभी अपनी मुस्कान से मेरे साथ होने का भरोसा देती हुई, कभी मेरी तरफ पीठ किये बैठी हुई। कविता मुझे, अपनी पीठ पर बैठाकर तेजी से उड़ती हुई एक चिड़िया है जिस पर मैं नन्ही जान की तरह डरता, और रोमांचित होता रहता हूँ।"
संग्रह की पहली कविता 'माँ की ढोलक' में कवि पुराने समय की बात याद करते हुए जब कहता है 'दरअसल तब लोग लय में जीते थे।'  तो वह वर्तमान जीवन के बदलावों को रेखांकित करता है तथा परिणामस्वरूप खोई जीवन की लय का महत्व बताता है।
विरोध की आवाज उठाने के संदेश को बोझिल बनाये बिना किस तरह से कहा जाता है यह कविता 'यह सोचना ठीक नहीं' (पेज 59) में दिखता है 'हमारा प्रतिरोध करना ही/ हमारे होने के हस्ताक्षर/ छोड़ता है कई बार'
'सवाल सच का' कविता सच को विभिन्न दृष्टियों से देखती हुई वर्तमान में विभिन्न देशों शस्त्रीकरण को मानवता के विरुद्ध देखती है, विश्व-बन्धुत्व के विचार को पोषित करते हुए कवि कहता है कि 'धरती से बाहर कोई मुल्क नहीं'
 कविताओं का मूल स्वर शुभेच्छा है कविता 'एक मनोकामना' (पेज 14) में यह स्वर चरम पर है 'सूरज बस इतनी ही करे आँखें लाल/ कि हरियाते रहें जीवन के पौधे'। 
वर्तमान जीवन की आपाधापी को कविता 'दौड़' में इस तरह से देखा गया है कि भागते समय की दौड़ में सब भाग रहे हैं पर कोई भी पदचिन्ह छोड़ने या कोई उल्लेखनीय कार्य करना भी सम्भव नहीं हो पा रहा। 
अधिकांश कविताएँ अनुभव से उपजी कविताएँ हैं जिनमें कोरी भावुकता न होकर जमीनी ठोसपन है, गहराई है। भोगे हुए की पीड़ा का स्वर है। 
वर्तमान जीवन की विसंगतियों महंगाई, बजट, आतंकवाद, हत्याएँ, आंदोलन के कारण जीवन में प्रेम का स्थान दोयम दर्जे का हो गया है यह भाव कविता 'मेरी दिनचर्या में' में पूरी शिद्दत के साथ मुखरित हुआ है 'प्रेम पंक्ति में खड़ा रहा संकोच के साथ' 
'वह प्रसंग' में स्वप्न में बम ब्लास्ट देखकर 'जीवन बेसुरा महसूस' होने की बात करते हुए दुःस्वप्न से बाहर आने का स्वप्न देखने की बात है। जबकि यह मात्र दुःस्वप्न नहीं है। आक्रोश कहीं भी जोर नहीं पकड़ता, बात को रेखांकित कर कवि अलग हट जाता है, जिसका असर तुरंत नहीं दिखता पर आपकी स्मृति में वो स्वर स्थान बना लेता है।
 'माँ प्रवास पर है' (पेज 78) कविता माँ को समुद्र की तरह देखना और पिता के न रहने पर उपजी उदासी का चित्र तथा माँ के घर  से बाहर रहते हुए भी मन संतान में रहना, यहाँ स्त्रीमन को सहजता से उकेरता है।
स्मृतियों के सहारे आई कविताएँ आम आदमी की अनुभूतियाँ हैं। 'याद' (पेज 20) समय स्थान परिवर्तन के बाद भी जो चीज़ बची रहती है वो है याद 'तुम्हारे और मेरे मैं के बड़े होने के बीच एक चीज धीमें से पलती रही।'
 'उसका आत्मकथन' (पेज21) प्रगति की होड़ में युवाओं से छूटे जा रहे नैसर्गिक जीवन और अनजाने ही इन्सान के मशीन में तब्दील हो जाने की बात है। प्रतिस्पर्धा, मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को जुटाने की जुगत में जीवन जीने का समय मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाता है। जीवन पैसे कमाने का उपक्रम भर बन जाता है उस पर विडम्बना यह कि उस पैसों का उपभोग करने का समय भी नहीं मिलता। यह एक बड़ी सोच है जो कि इस कविता में उभरकर आई है।
 आतंक मानवता के लिए अभिशाप है और यह मानव का ही उपजाया हुआ है। कवि आतंक उपजाने वालों को भेड़िये की श्रेणी में रख सहानुभूति रखता है इसके शिकार हुए लोगों से।
एम्बुलेंस को आशाघोष कहकर नई स्थापना की है।
 शीर्षक कविता 'ऐसे दिन का इंतज़ार' (पेज 61) में वर्तमान हालात की फ़िक्र है, धर्मान्धता, जातिवाद, पोंगापंथी, आडम्बर, मानवता विरोधी गतिविधियों आदि सबको समाहित किया है अपनी बात में।  कविताओं में विषय विविधता पर दृष्टिपात करते हुए पाते हैं कि बुजुर्गों पर, वृद्धाश्रम, किन्नर, बरसात, भिखारी, श्रमिक, मोहल्ले के लड़के आदि विषय व्यापक रूप से आये हैं।
कहीं-कहीं संवेदना की गहनता इतनी तीव्र है कि आँखें नम हुए बिना नहीं रहती 'अंतिम यात्रा में' ऐसी ही एक कविता है। केदारनाथ त्रासदी पर पाँच कविताएँ इसी श्रेणी की हैं जिनमें व्यंग्य का पुट भी है। 
आज़ादी के सत्तर साल बाद भी मुल्क की तस्वीर  नहीं बदली है आज भी बचपन शापित है मजदूरी करने को। शिक्षा, अधिकारों की बातें तो केवल भाषणों का हिस्सा भर बन कर रह गई हैं। इसी भाव पर केंद्रित 'बच्चों की दुनिया में' (पेज 27) बहुत ही मार्मिक कविता है। गरीबी ने बच्चों से हँसता-खेलता बचपन छीन जिम्मेदारी का बोझ अभी से कंधों पर रख दिया है। कवि को दुःख है कि 'अभी भी हो रहा है ये /बच्चों की दुनिया मे एक अच्छा व्यंग्य 'है किसकी वजह से' कविता में चुटीले अंदाज़ से आया है कि सिर्फ मानव के कार्य व्यापार से ही प्रकृति को बहुत क्षति हुई है। वर्तमान राजनितिक धार्मिक विसंगति के परिप्रेक्ष्य में 'टोपी' कविता व्यंग्य की तासीर रखती है। कविता 'अपना पक्ष' में 'आखिर तुम कैसे हो/ तुम किस ओर हो / इंसानियत की तरफ़/ या सियासत की तरफ़ // अपना पक्ष तय करो/ तुम्हारे बारे में कुछ / तय हो जाये/ इससे पहले।' बहुत कम शब्दों में कटाक्ष है।
'ख़बरों का अर्घ्य' - कविता में दिवंगत पिता को इस दुनिया के हालात सुनाते हुए कवि वर्तमान हालात पर दृष्टिपात करते  है- बढ़ी हुई भीड़, आबादी, कृतघ्नता, संचार क्रांति, भ्रष्टाचार का ज़िक्र  करते हुए 'आख़िरी ख़बर यह कि/ अब ख़बरों से ही तय हो रही है / राजनीती की दिशा भी।'
'देवी' कविता में अपने शोषण के खिलाफ मौन रहने वालों को कवि चेतावनी देता है कि लोग तुम्हें देवता तो बना देंगे लेकिन बदले में तुम्हारा सर्वस्व ले लेंगे। गेहूँ को विषय बनाकर कोई कविता इतनी अर्थपूर्ण भी हो सकती है 'ग़नीमत मानता हूँ यही/ कि तुम लड़ते-झगड़ते नहीं/ हत्या और मारपीट नहीं करते/ मुझे खाने या न खाने का मुद्दा बनाकर।'
कुछ कविताओं में बिम्ब विधान चमत्कृत करता है। कविता 'अलविदा का गीत' की शुरुआत कुछ इस तरह से 'जिसे वह प्यार करते रहे/ उस पानी की आँखों में / आज पानी है।' यहाँ पानी की आँखों में पानी देखना अद्भुत हुआ है।
 प्रेम कविताओं में 'ये कभी खत्म न हो' , 'नहीं बदला' , 'हम और तुम' 'प्यार' इनका स्वर लगभग एक जैसा है। कवि प्रेम को जीवन का जरूरी अंग मानता है। संयोग के क्षण ही वियोग में स्मृति का आधार बन सहारा बनते हैं। प्रेम नफ़रत का विरोध है, प्रेम पतझड़ के समय की बहार है। प्रेम की तलाश स्वयं की तलाश है। प्रेम मुश्किल समय में आशा का महीन स्वर है। 'इसके रहते हमारे पास फटका नहीं अवसाद/ एकांत ने डसा नहीं हमें।'
आशा का स्वर बहुत बड़ी विशेषता है कवि की। अच्छी खबर शीर्षक कविता में कवि कहता है 'अच्छी ख़बर अभी बस यही है/ कि दरवाज़ा तोड़कर/ बाहर आने में/ नाकाम हो रही है / बुरी ख़बर।'
 कहीं कहीं यह भी महसूस होता है कि कवि का लहज़ा टाइप्ड हो रहा है, अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आकर भी कभी कभार लिखना ठीक रहता है।
 भाषा के तौर पर गौर करने योग्य बात है कि कवि ने स्वतः आ रही भाषा को ही लिया है, न उसे उर्दूनिष्ठ करने की चेष्टा की है, न संस्कृत निष्ठ। आम जन की भाषा में उर्दू हिन्दी का मिश्रण एक साथ प्रवाह से आ रहा है और प्रेम कविताओं को ताज़गी व मिठास दे रहा है।
इतने विश्लेषण से यही निष्कर्ष निकलता है कि काव्य संग्रह काफी अच्छा बन पड़ा है। जरूर पढ़ना चाहिए। अपनी अनुभूति की मिट्टी को गूँध कभी कवि दीपक बना रहा है जिसकी रौशनी में अँधेरे से लड़ा जा सके, कभी सुराही जिससे कि प्यास के समय में प्रेम की तृप्ति पा सकें।  ज़मीं से जुड़ी कविताओं का विस्तार गगन तक है। 
   
=========================================
जतिन अरोड़ा 
ब्रज जी के काव्य संग्रह में हर रंग..हर खुशबू और हर तासीर के फूल हैं। जीवन से जुड़ी बातें...किस्से...आस से विश्वास...डर से निडरता...छाँव से धूप...बचपन की हँसी और हर रोज के संघर्ष.
आम आदमी को किसी न किसी तरह छू कर जी कर निकलती कविताएँ,..लेखन की सूक्ष्मता सबसे बड़ा + प्वाइंट है। 
ढोलक की थाप में मां की लोरी का आभास और बाजारीकरण के ढोल में लोरी न होने की मायूसी अचरज में डालती है। 
यही सूक्ष्मता लेखन के नए आयाम रखती है।
बहुत ज्यादा होना चाहा के जरिए मानव की भाग दौड़ और हर काम में शार्ट कट  की पेशकश बहुत ही बढ़िया है..
एंबुलेंस मार्मिक रचना है। अच्छी खबर एक छोटी वाली फुलझड़ी है जो धमाका करती है. आस की दीवार को फांदने में नाकाम निराशा का बखान बेहद खूबसूरत बन पड़ा है
यह सोचना ठीक नहीं.  अन्याय के खिलाफ न्याय की आवाज है। विरोध में उठना जीने की कला में शामिल नहीं...बेहद ही गहरी चोट है कविता में.
फसल से रिश्ता गांठना कोई ऐसे सीखें....पर निभाना ऐसा नहीं हो...
नारी कविता ने बहुत प्रभावित किया है मुझे.दैवीय रूप में पूजी जाने वाली महिला से दोयम व्यवहार की बात करती कविता...
जितनी भी कविताएँ पढ़ पाया हूँ वह जीवन की मूलभूत आवश्यकताओ, पीड़ा...प्रसन्नता और आशा निराशा का मिश्रण हैं। कविता जी कर लिखी हैं पर पढ़ने वाले ने भी जरूर इन्हें जिया होगा.. ब्रज जी का काव्य संग्रह आम जनता की बात है.आम जनता की प्यास है।
व्यस्तता बहुत है और एकाग्रता का इंतजाम बड़ी मुश्किल से हो पा रहा है। जितना भर महसूस किया वही लिख पाया हूँ..पर मेरे लिखे की पहुँच से भी दूर तलक उड़ती कविताएँ 🙏💐

============================================
ज्योत्स्ना प्रदीप 
सबसे पहले तो ब्रज  जी को ढेर सारी शुभकामनाएँ!!!
कवि की रचनाएँ कवि के निर्मल ह्रदय का पता देती है । एम्बुलेंस ,मुझे चिंता है, यह सोचना ठीक नहीं ,खेत ...सभी
एक से बढ़कर एक है!! इनमें एक तरह का नूर है..रौशनी है ..जो रचना से सीधे पाठक के दिल में उतरकर उसे भी रौशन करती है एम्बुलेंस में सकरात्मक  भाव लिएआशाघोष ,मुझे  चिंता है में सहजता में छिपी गहनता ,हम जब साथ चलते थे में यादों का सुखद बसंत ,अच्छी खबर में नकरात्मक भाव की  नाकामी तथा खेत और टोपी में छिपे गहरी विचारों नें बहुत प्रभावित किया है।ब्रज जी की रचनाओं को पढना सुकून पानें जैसा है।सहज तथा सरल भाषा लिए सुन्दर ,सटीक साथ ही गहन भाव लिए रचनाओं को
नमन है 🙏
==================================================
सुरेन  सिंह 
बृज जी की कविताये पिछले एक वर्ष में काफी पढ़ी और उन सभी कविताओं को पढ़कर एक पाठकीय राय भी बनी । उसी पाठकीय मन से कुछ सामान्य बाते ब्रज जी की कविताओं और काव्य कर्म पर उपजती है ,जिन्हें साझा कर रहा हूँ ।
ब्रज जी की कविताओं पर मैंने पहले भी लिखा है कि वे सर्वेश्वर और कुंवर नारायन के जॉनर में अपना काव्य कर्म अंजाम देते है । अपनी बात को धीरे से कहते है, शब्दों का चयन भी मुलायम सा होता है और वाक्य विन्यास संप्रेषण के जल में डूबे हुए तरल सा  । इसके साथ ही  भाषाई चमत्कार से परहेज़ करते है और ऐसे ऐसे सामान्य या साधारण से उपक्रमो पर भी अपनी कलम से काव्य निसृत कर देते है ।
इन कविताओं के धीमे स्वर में भावो से भरे वाक्य और उन वाक्यों में संप्रेषित होने की क्षमता का आप्लावन सायास नही बल्कि अनायास शैलीगत  बाध्यता से उपजता है । इस प्रकार की कविताओं में एक जो खास बात होनी चाहिए वो ये कि अंततः अपने कहन में पाठक मन में एक मारक सा या कहे  अपने कहन में एक ऐसी प्रभावोत्कट जुम्बिश छोड़ने की क्षमता होनी चाहिए नही तो कविता बस ब्यौरे देने वाली विधा के रूप में पाठक ग्रहण करेगा ।
आज प्रस्तुत कविताओं को उपरोक्त आलोक में देखे  तो कुछ  कविताएं . .  बागीचे में वृद्ध और एम्बुलेंस कविताये उनके अपने डिक्शन के तहत सुंदर कविताये है ।
कुछ कविताये अपने कहन में कोई प्रभाव नही उत्पन्न करती पाठक मन में , जैसा की ऊपर कहा--  वे मात्र ब्यौरे सी उभरती है । 
कविताओं का स्वर धीमा होना , कविताओं का  पुनर्पाठ में स्वयं को खोल कर रख देना , किसी लाक्षणिकता को उत्पन्न करने की ललक का न होना , शब्द और वाक्य विन्यास का तरल होना , पाठक से पुनर्पाठ में कोई मेहनत न चाहना , कविता के  बिंम्ब और शिल्प को संकोच की हद तक सहज रखना , नारे बाज़ी और उत्कटता का न होना .......आदि आदि अच्छी बातें है परंतु यदि आप इन्हें अपने काव्य में समाहित करते है तो पुनः दोहराना चाहूंगा कि कविता के कहन में अंततः ऐसा प्रभाव लाना होगा जो पाठक मन में एक हल्की सी जुम्बिश छोड़ जाये । जबकि आधुनिक कविता का अंडर टोन होना उसकी usp है फिर भी काव्य वही जो आपके मन में भी एक संवेदना जगाए  ,पाठक को चौंका कर नही बल्कि उससे एक आत्मीय रिश्ता बना कर ।
दरअसल उनको पढ़ पढ़ कर एक  बढ़ती हुई  पाठकीय आकांक्षा  के तहत ये सब कहा है । 
अंततः ब्रज जी को हार्दिक शुभकामनायें की उनका नया काव्य  संकलन हम पाठको के बीच है जिसे पढ़ कर  निश्चित रूप  से पाठकीय आकांक्षाएं और बढ़ेंगी और कवि को और और रचने के लिए प्रेरित करेगी ।
≠====================================
रेखा दुबे
तरल-सरल शब्दों में डूबते उतरते,.. जब ब्रज जी की कविताओं को पढ़ती हूँ,..तो ऐसा महसूस होता है,जैसे- कि मैं मानव ह्रदय के अंदर व्याप्त छोटी-छोटी,..आशाओं-निराशाओं,..उम्मीदों, त्रासदियों,..संवेदनाओं,..मौन शिलाओं की नज़ाकतों,..व्यंग का पुट देतीं शरारतों,..सुर-लय-ताल में जीतीं,जीवन की पुरानी रीतियों,..को अपने अंदर की हलचल में महसूस कर रही हूँ। भागती जिंदगियों, की..स्पष्ट गूंज सुनाई देती है..ब्रज जी की कविताओं में। तो कहीं हैं..वह बिलकुल शांत और स्तब्ध,..एक अलौकिक प्रेम में लुप्त अंत में यही कह सकती हूँ,की..अलग-अलग रंगों में ढली इन बेश कीमती कविताओं के संग्रह के लिए ब्रज जी को बधाई रेखा दुबे
समीक्षाओं का संचालन सईद अय्यूब ,मधु सक्सेना और अपर्णा अनेक वरना  ने किया |              
===================================================================   


                   

5 comments:

  1. धन्यवाद, प्रवेश जी, यह मेरे लिए न केवल प्रोत्साहन है बल्कि यह एक पुरस्कार है और संग्रह की विविध कविताएँ, विविध टिप्पणी खींचकर ला सकीं, बड़ी बात है, उससे भी बड़ी बात है कि साकीबा के इस खजाने को आप मंज़रे आम तक ले आईं इस ब्लॉग पर लाने के बहाने. शुक्रिया.

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद प्रवेश ....पूरी किताब की समीक्षाओं को संकलित कर सहेज लेना एक अद्भुत काम है जो तुमने बेहतरीन तरीके से कर दिखाया ....भविष्य के लिए एक पाठ है ये सीखने के लिए।

    ReplyDelete
  3. आज फिर एक बार"पुष्प स्मरण"कार्यक्रम का हिस्सा बना।
    ब्रज जी अपने कवि-पिता की याद में हर वर्ष यह कार्य क्रम करते हैं।
    हेमंत देवलेकर(कवि)के मुख्य अतिथि होने से "चार चाँद"लग गए।
    निसार मालवी सहित अनेक कवियों ने पाठ किया।
    ब्रज जी का आभारी हूँ

    ReplyDelete
  4. प्रवेश जी आपको साधुवाद ऐसी महत्वपूर्ण समीक्षाओं के संकलन हेतु
    ब्रज भाई जमीन से जुड़े वास्तविक रचनाकार हैं
    इन्हें बधाई

    ReplyDelete
  5. बधाई..💐💐💐💐💐
    ब्रज श्रीवास्तव जी

    ReplyDelete

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

पिछले पन्ने